मध्यप्रदेश राज्य के मालवॉंचल में स्थित है आगर-मालवा, एक छोटा सा कस्बा। सरल जनजीवन और अपने-अपने काम में लगे रहने वाले सरल लोगों का सान्निध्य प्राप्त हुआ मुझे वर्ष 1983 से 1985 की अवधि में। वहीं मेरे एक सहकर्मी थे मनहर 'परदेसी', गीत और काव्य लिखते थे। कुछ स्थानीय सहयोग और कुछ उनके प्रयास आधार रहे 'प्रतिभा काव्य मंच' के गठन के। यह मंच परदेसी जी की गीत पुस्तिका के साथ ही निष्प्राण हो गया लेकिन लगभग डेढ़ दो वर्ष के जीवनकाल में मुझे अच्छे अवसर प्रदान कर गया। इसी मंच में जनाब मोहसिन अली रतलामी का स्नेह मुझे मिला और उन्होंने मेरी पहली ग़ज़ल पर इस्स्लाह दी। जो उन्हें ज्ञात था उसपर मेरा पूराहक़ था जानने का। सुना है उनका इंतकाल हो चुका है, परवरदिगार ने उनकी रूह को निश्चित ही ज़न्नत बख्शी होगी। शायद 1984 की सर्दियॉं थीं, इसी मंच ने एक कवि सम्मेलन आयोजित किया था जिसमें सोम ठाकुर जी, जनाब अज़हर हाशमी, जनाब अख़्तर ग्वालियरी और कई अन्य ने भाग लिया।
अज़हर हाशमी साहब जब पढ़ने को खड़े हुए तो आवजें आने लगीं 'चाय की चुस्कियॉं'-'चाय की चुस्कियॉं'। मुझे समझने में दो मिनट लगे होंगे कि ये उनकी कोई मशहूर ग़ज़ल है। ग़ज़ल थी:
चाय की चुस्कियों में कटी जि़न्दगी,
प्यालियों, प्यालियों में बँटी जि़न्दगी।
अज़हर हाशमी साहब की आवाज़ का जादू ही कहूँगा कि चाय की चुस्कियॉं दिमाग़ छोड़ने को तैयार ही नहीं, सुब्ह चार बजे तक कवि सम्मेलन चला, फिर सोम ठाकुर जी को विदा कर करीब 8 बजे जब फुर्सत मिली तो रुका नहीं गया और मेरे अंदर का शाइर जाग गया। शाम तक ग़ज़ल पूरी हो चुकी थी। आज वही ग़ज़ल प्रस्तुत है, बहुत कुछ भूल चंका हूँ, लगभग आधे शेर दुबारा कहे हैं। यह ग़ज़ल हमेशा चाय की चुस्कियों को समर्पित रही है, आज भी है। तक्तीअ करने पर कुछ पंक्तियॉं बह्र से बाहर लगती हैं, लेकिन स्वरों का खेल है ये, गेयता में बाहर कुछ भी नहीं।
इसकी बह्र है फायलुन, फायलुन, फायलुन, फायलुन यानि 212, 212, 212, 212
ग़ज़ल
ये न पूछो कि कैसे कटी जि़न्दगी,
कितने धागों से हमने बटी जि़न्दगी।
कुछ सपन लेके आगे सरकती रही
उड़ न पाई कभी परकटी जि़न्दगी।
कोई सुख जो मिला तो हृदय ने कहा
लग रही है मुझे अटपटी जि़न्दगी।
कल की यादें कभी, कल के सपने कभी,
आज को भूलकर क्यूँ कटी जि़न्दगी।
हैं क्षितिज हमने कितने ही देखे यहॉं
है शिखर, है कभी तलहटी जि़न्दगी।
करवटें, करवटें ही बदलती रही
जि़न्दगी भर मिरी करवटी जि़न्दगी।
धूप में खेलती, मेह में खेलती,
याद आती है वो नटखटी जि़न्दगी।
धूल राहों पे खाई तो समझा है ये,
रोग है जि़न्दगी, है वटी जि़न्दगी।
सत्य अन्तिम है क्या जान पाई नहीं,
देह से ही हमेशा सटी जि़न्दगी।
मौत आई तो इक शब्द लिख न सके
उम्र के हाशिये से फटी जि़न्दगी।
हम भी 'राही' बने साथ चलते रहे,
राह अपनी न इक पल हटी जि़न्दगी।
Friday, April 30, 2010
Wednesday, April 21, 2010
एक नज़्म- मॉं की याद में
मॉं, एक शब्द है, एक तसव्वुर है, एक एहसास है, जिससे शायद ही कोई रचनाधर्मी अछूता रहा हो। बहुत कुछ लिखा गया है 'मॉं' को केन्द्रीय पात्र मानकर। फिर भी कुछ न कुछ नया कहने की संभावना बनी रहती है।
आज प्रस्तुत नज़्म जब कही थी तब मेरी 'मॉं' का भौतिक अस्तित्व था, अब नहीं। इसे 27 मार्च को उनकी चौथी पुण्यतिथि पर पोस्ट करने का इरादा था लेकिन परिस्थितियॉं कुछ ऐसी रहीं कि ऐसा करना संभव न हो सका। आज 22 अप्रैल को उनके जन्मदिवस के स्मरण के रूप में अवसर बना है इसे पोस्ट करने का।
वज़ीर आग़ा साहब की एक ग़ज़ल पढ़ी थी करीब 30 वर्ष पहले जिसके दो शेर दिल में बस गये थे कि:
मैला बदन पहन के न इतना उदास हो
लाजि़म कहॉं कि सारा जहां खुशलिबास हो।
और
इतना न पास आ कि तुझे ढूँढते फिरें
इतना न दूर जा कि हम:वक्त पास हो।
इस दूसरे शेर से आभार सहित एक भाव लिया है प्रस्तुत नज़्म में।
मैं; यूँ तो नज़्म नहीं कहता, मुझसे हो नहीं पाता, बहुत कठिन काम है; लेकिन न जाने कब किस हाल में कुछ शब्द ऐसा रूप ले सके जिन्हें एक नज़्म के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्रबुद्ध पाठक ही बता पायेंगे कि ये नज़्म है या नहीं।
बहुत धीरे से देकर थपकियॉं मुझको सुलाती थी,
कभी मैं रूठ जाता था तो अनथक वह मनाती थी।
नज़र से दूर जो जितना, वो दिल के पास है उतना,
ये रिश्ता दूरियों का वो मुझे अक्सर बताती थी।
अभी कुछ देर पहले ही
जो उसकी याद का झोंका
ज़ेह्न के पास से गुजरा
मुझे ऐसा लगा जैसे
कहीं वो मुस्कुराई है,
मगर वो दूर है इतनी
कि मुझ तक आ नहीं सकती।
मगर वो दूर है इतनी कि मुझ तक आ नहीं सकती,
बस उसकी याद आई है, बस उसकी याद आई है।
आज प्रस्तुत नज़्म जब कही थी तब मेरी 'मॉं' का भौतिक अस्तित्व था, अब नहीं। इसे 27 मार्च को उनकी चौथी पुण्यतिथि पर पोस्ट करने का इरादा था लेकिन परिस्थितियॉं कुछ ऐसी रहीं कि ऐसा करना संभव न हो सका। आज 22 अप्रैल को उनके जन्मदिवस के स्मरण के रूप में अवसर बना है इसे पोस्ट करने का।
वज़ीर आग़ा साहब की एक ग़ज़ल पढ़ी थी करीब 30 वर्ष पहले जिसके दो शेर दिल में बस गये थे कि:
मैला बदन पहन के न इतना उदास हो
लाजि़म कहॉं कि सारा जहां खुशलिबास हो।
और
इतना न पास आ कि तुझे ढूँढते फिरें
इतना न दूर जा कि हम:वक्त पास हो।
इस दूसरे शेर से आभार सहित एक भाव लिया है प्रस्तुत नज़्म में।
मैं; यूँ तो नज़्म नहीं कहता, मुझसे हो नहीं पाता, बहुत कठिन काम है; लेकिन न जाने कब किस हाल में कुछ शब्द ऐसा रूप ले सके जिन्हें एक नज़्म के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्रबुद्ध पाठक ही बता पायेंगे कि ये नज़्म है या नहीं।
बहुत धीरे से देकर थपकियॉं मुझको सुलाती थी,
कभी मैं रूठ जाता था तो अनथक वह मनाती थी।
नज़र से दूर जो जितना, वो दिल के पास है उतना,
ये रिश्ता दूरियों का वो मुझे अक्सर बताती थी।
अभी कुछ देर पहले ही
जो उसकी याद का झोंका
ज़ेह्न के पास से गुजरा
मुझे ऐसा लगा जैसे
कहीं वो मुस्कुराई है,
मगर वो दूर है इतनी
कि मुझ तक आ नहीं सकती।
मगर वो दूर है इतनी कि मुझ तक आ नहीं सकती,
बस उसकी याद आई है, बस उसकी याद आई है।
Friday, April 2, 2010
उसके मेरे दरम्यॉं यूँ फ़ासला कुछ भी नहीं
एक दिन गौतम राजऋषि के ब्लॉग पर गया तो कुमार विनोद की एक ग़ज़ल पढ़ने को मिली, अच्छी लगी। दिल ने कहा कि इसी तरह की ग़ज़ल कहनी है। दिल ने कहा तो दिमाग़ ने भी पूरा सहयोग देने का वादा किया और एहसासों को निमंत्रण भेज दिया कि भाई आओ तो कुछ कहें। एहसास ग़ज़ल की ओर बढ़ते दिखे तो शब्द कहॉं रुकते, उनके बिना तो एहसास व्यक्त हो नहीं सकते, सो वो भी चले आये और लीजिये ग़ज़ल हो गई तैयार।
नीरज भाई से चर्चा हुई तो उन्होंने बताया कि इसी रदीफ़ काफि़ये और बह्र पर राजेश रेड्डी जी ने भी एक ग़ज़ल कही थी जिसे जगजीत सिंह जी ने आवाज़ दी। जगजीत सिंह जी जिस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ देने को तैयार हो जायें उसके एहसासात के बारे में कहने कुछ नहीं रह जाता है।
मेरा प्रयास प्रस्तुत है:
उसके मेरे दरम्यॉं यूँ फ़ासला कुछ भी नहीं
सामने बैठा था पर उसने कहा कुछ भी नहीं।
उसका ये अंदाज़ मेरे दिल पे दस्तक दे गया
लब तो खुलते हैं मगर वो बोलता कुछ भी नहीं।
न तो मेरे ख़त का उत्तर, न शिकायत, न गिला,
क्या हमारे बीच में रिश्ता बचा कुछ भी नहीं।
देर तक सुनता रहा वो दास्ताने ग़म मिरी,
और फिर बोला कि इसमें तो नया कुछ भी नहीं।
बिजलियॉं कौंधी शहर में, बारिशें होने लगीं,
जिसने थे गेसू बिखेरे जानता कुछ भी नहीं।
लोग दब कर मर गये, सोते हुए फुटपाथ पर,
और तेरे वास्ते, ये हादसा कुछ भी नहीं।
देश में गणतंत्र को कायम भला कैसे करें,
रोज मंथन हो रहे हैं, हो रहा कुछ भी नहीं।
उसकी हालत में हो कुछ बदलाव, ये कहते हुए
बह गयीं नदियॉं कई, हासिल हुआ कुछ भी नहीं।
सुब्ह से विद्वान कुछ, सर जोड़ कर बैठे हैं पर,
मैनें पूछा तो वो बोले मस्अला कुछ भी नहीं ।
कौनसे मज़हब का सड़को पर लहू बिखरा है ये
जिससे पूछो, वो कहे, मुझको पता कुछ भी नहीं।
तुम जो ऑंखें भी घुमाओ, ये शहर घूमा करे,
मैं अगर चीखूँ भी तो मेरी सदा कुछ भी नहीं।
उसको ईक कॉंटा चुभा तो कट गये जंगल कई
और वो कहता है कि उसकी ख़ता कुछ भी नहीं।
इतने रिश्ते खो चुका 'राही' कि अब उसके लिये
दर्द की गलियों की ये तीखी हवा कुछ भी नहीं।
बह्र: फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फायलुन (2122, 2122, 2122, 212)
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी
नीरज भाई से चर्चा हुई तो उन्होंने बताया कि इसी रदीफ़ काफि़ये और बह्र पर राजेश रेड्डी जी ने भी एक ग़ज़ल कही थी जिसे जगजीत सिंह जी ने आवाज़ दी। जगजीत सिंह जी जिस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ देने को तैयार हो जायें उसके एहसासात के बारे में कहने कुछ नहीं रह जाता है।
मेरा प्रयास प्रस्तुत है:
उसके मेरे दरम्यॉं यूँ फ़ासला कुछ भी नहीं
सामने बैठा था पर उसने कहा कुछ भी नहीं।
उसका ये अंदाज़ मेरे दिल पे दस्तक दे गया
लब तो खुलते हैं मगर वो बोलता कुछ भी नहीं।
न तो मेरे ख़त का उत्तर, न शिकायत, न गिला,
क्या हमारे बीच में रिश्ता बचा कुछ भी नहीं।
देर तक सुनता रहा वो दास्ताने ग़म मिरी,
और फिर बोला कि इसमें तो नया कुछ भी नहीं।
बिजलियॉं कौंधी शहर में, बारिशें होने लगीं,
जिसने थे गेसू बिखेरे जानता कुछ भी नहीं।
लोग दब कर मर गये, सोते हुए फुटपाथ पर,
और तेरे वास्ते, ये हादसा कुछ भी नहीं।
देश में गणतंत्र को कायम भला कैसे करें,
रोज मंथन हो रहे हैं, हो रहा कुछ भी नहीं।
उसकी हालत में हो कुछ बदलाव, ये कहते हुए
बह गयीं नदियॉं कई, हासिल हुआ कुछ भी नहीं।
सुब्ह से विद्वान कुछ, सर जोड़ कर बैठे हैं पर,
मैनें पूछा तो वो बोले मस्अला कुछ भी नहीं ।
कौनसे मज़हब का सड़को पर लहू बिखरा है ये
जिससे पूछो, वो कहे, मुझको पता कुछ भी नहीं।
तुम जो ऑंखें भी घुमाओ, ये शहर घूमा करे,
मैं अगर चीखूँ भी तो मेरी सदा कुछ भी नहीं।
उसको ईक कॉंटा चुभा तो कट गये जंगल कई
और वो कहता है कि उसकी ख़ता कुछ भी नहीं।
इतने रिश्ते खो चुका 'राही' कि अब उसके लिये
दर्द की गलियों की ये तीखी हवा कुछ भी नहीं।
बह्र: फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फायलुन (2122, 2122, 2122, 212)
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी
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