Friday, December 17, 2010

आज कुछ श्रंगार की बातें करें

यह पोस्‍ट पूरा एक सप्‍ताह विलंब से लगी है, 11 दिसम्‍बर की रात्रि में इसे पोस्‍ट करना था मगर अपनी मर्जी कब चलती है। बहरहाल, किसी तरह संपर्क हो पाता तो आदरणीय चंद्रसेन ‘विराट’ जी से उनका एक मुक्‍तक प्रस्‍तुत करने की अनुमति अवश्‍य लेता। यह मुक्‍तक अस्‍सी के दशक में पढ़ा था और पढ़ते ही कंठस्‍थ हो गया था। मुक्‍तक इस तरह है:
रोम झंकृत हो रहे हैं, ये शिरायें बज रहीं
जो हृदय में उठ रहा, उस ज्‍वार की बातें करो
शेष सारे ही रसों को आज तो विश्राम दो
मुक्‍त मन रसराज की श्रंगार की बातें करो।
श्रंगारिक प्रस्‍तुति के पूर्व इस मुक्‍तक का उल्‍लेख किये बिना मैं रह नहीं पाता, आज भी इसे प्रस्‍तुत करने का यही कारण है। आज श्रंगार रस पर अपनी कुछ पूर्व रचनायें प्रस्‍तुत कर रहा हूँ जो मैनें अस्‍सी के दशक में लिखी थीं।
सर्वप्रथम एक मुक्‍तक उस स्थिति पर जहॉं पहली बार नज़र मिलती है और पनपता है पहला-पहला प्‍यार:
मुस्‍कराकर, आपने, देखा इधर, मैं देखता हूँ
आपके दिल में जो उपजा, वो शजर मैं देखता हूँ
भाव उपजा, उठ गयी, पर लाज से फिर झुक गयी,
गिर के उठती, उठ के गिरती, हर नज़र मैं देखता हूँ।
शजर- पेड़
इसके बाद बात बढ़ती है दो दिलों के मिलने की ओर तो सांस्‍कृतिक, सामाजिक और धार्मिक नियम सामने आते हैं। यह मुक्‍तक वस्‍तुत: अपने छोटे साले की फ़र्माइश पर लिखा जब उसने चाहा कि एक ऐस छंद हो जो वह अपनी मँगेतर को भेजे जाने वाले प्रथम पत्र में लिख सके। मैं ठहरा कार्य विभाग से, पुल पुलियों के अलावा कुछ दिखता नहीं। छंद को रुचिकर बनाने के लिये कुछ आधार ज्ञान प्राप्‍त करना चाहा तो ज्ञात हुआ ‘बिछिया’ का महत्‍व, जो विवाहिता की पहचान होती है। बस सब कुछ जोड़कर जो मुक्‍तक तैयार हुआ वह इस प्रकार है:
प्रेम डगरिया की पुलिया तो, गोरी अभी अधूरी है,
बीच समय की बहती नदिया भी अपनी मजबूरी है,
पल-पल, क्षण-क्षण, समय कट रहा है, सखियों से कह देना,
देर नहीं पिय से मिलने में, बिछिया भर की दूरी है।
पल-पल के साथ क्षण-क्षण में आपत्ति हो तो ‘क्षण-क्षण’ के स्‍थान पर ‘करते’ पढ़ लें।
इसी क्रम में आगे बढ़ें तो आता है एक गीत, जो इस प्रकार है:
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन,
सहमी सी बैठी, नवेली दुल्‍हन।

युगों युगों के बाद रात इक, यूँ ही नही लजाई है,
बाबुल के अंगना से गोरी, पिय के घर को आई है।

घूँघट की ये ओट तुम्‍हारी, होगी नहीं सहन,
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन।
निशा का ऑंचल गहराया, अब तू भी पलकें ढलका दे,
रूप की मादक मदिरा मुझपर, आज प्रिये तू छलका दे।

आलिंगन में ले ले मेरा सारा पागलपन,
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन।
कितनी सुखद घड़ी वो होगी, जब दो हृदय मिलेंगे,
जीवन की बगिया में पगली, जब दो सुमन खिलेंगे।

वासंती मनुहारें होंगी, होगी कुछ सिहरन
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन।
प्रियतम, तेरा प्रणय निवेदन, कल के कोमल सपने,
वर लूँगी मैं बिना लजाये, ये हैं मेरे अपने।

बाहुपाश में कस लो मेरा उन्‍मादित यौवन,
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन।
और अंत में विशेष बात यह है कि प्रथम मुक्‍तक 'मुस्‍करा कर....' और यह गीत मैनें अविवाहित जीवन की श्रंगारिक कल्‍पना के रूप में लिखे थे। एक अन्‍य विशेष बात यह कि 12 दिसम्‍बर को हमने विवाह की पच्‍चीसवीं वर्षगॉंठ मनाई।
पच्‍चीस वर्ष के वैवाहिक अनुभव को समेटूँ तो ऐसा कुछ विशेष नहीं जो अन्‍य किसी के काम का हो; सिवाय इसके कि जब कभी रूठा-रूठी की स्थिति बनी मैनें एक दो घंटे रुककर सिर्फ एक प्रश्‍न पत्‍नी से किया कि क्‍या इस विवाद का अंत कभी नहीं होगा, अगर नहीं तो क्‍यूँ न हम अपने मार्ग निश्चित कर लें, और अगर इस विवाद को कभी न कभी सुलझना है तो क्‍यूँ न अभी इसका अन्‍त कर दें। यह हमेशा कारगर सिद्ध हुआ। इस प्रश्‍न में दबाव न होते हुए एक समझ का विकास आधार में है कि छोटे-मोटे मतभेद सामान्‍य हैं और अधिकॉंश विवाद कहने-सुनने, सोच, परिपक्‍वता, अनुभव के अंतर पर आधारित होते हैं और उन्‍हें आसानी से समाप्‍त किया जा सकता है।
र्इश्‍वर करे सभी के पारिवारिक जीवन में ऐसा ही हो। आनंद ही आनंद हो।
तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी