Sunday, June 20, 2010

एक आतंकवादी की फरमाईश पर ग़ज़ल


अभी हाल ही में मैं एक आतंकवादी गतिविधि का शिकार हुआ हूँ जिसका विवरण आपसे बॉंटना जरूरी है। हमला चैट पर हुआ जिसकी पूरी प्रति इस प्रकार है।

शुक्रवार दिनांक 19 जून 2010
आतंकवादी: आपको सूचित किया जाता है कि 24 घंटे के अन्‍दर 'रास्‍ते की धूल' पर एक ग़ज़ल लगाना है आपको, अगर ऐसा न किया तो आप पर देर तक तरसाने का आरोप लगाते हुए एक हफ़्ते में एक ग़ज़ल लगाने का जुर्माना लगाया जा सकता है; और आपको यह मानना होगा।
मैं: यह तो आतंकवादी हमला है।
आतंकवादी: बतादूँ कि आपको हर हफ़्ते एक ग़ज़ल दो महीने तक लगानी पड़ेगी।
शनिवार दिनांक 20 जून 2010
आतंकवादी: आपको सूचित किया जाता है कि नोटिस जारी होने के बावजूद आपने रास्ते कि धुल पर नई पोस्ट नहीं लगाई, अब आपको हर हफ्ते एक गजल पोस्ट करनी है, और ऐसा २ महीने तक करना है, ऐसा ना होने पर आवश्यक कार्यवाही की जायेगी
मैं: हम सच्‍चे हिन्‍दुस्‍तानी, आतंकवादी धमकियों से नहीं डरते। हॉं फिरौती में एकाध ग़ज़ल में सौदा पटता हो तो बोलो।
आतंकवादी: फिरौती का समय निकल चुका है
मैं: तो ले जाओ हमें ही, हम तो बंधक बनने को तैयार हैं।
आतंकवादी: हा हा हा, आपको बंधक बनाना हमें भारी पड़ जाएगा, हमें तो आपकी गजल चाहिए
मैं: कल संभव है। आज तो अभी रात के 2-3 बज जायेंगे आफिस के काम में ही।
आतंकवादी: तो ठीक है इस हफ्ते की गजल कल, फिर अगले हफ्ते १ गजल, फिर उसके अगले हफ्ते १, फिर अगले में १, ठीक है न।
मैं: ग़ज़ल के शेर ऐ लोगो निकाले कब निकलते हैं, कभी चुटकी में बन जायें कभी इक याम लग जाये।
आतंकवादी: ये सब नहीं चलेगा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा
मैं: वस्‍तुत: इस समय मुझे एक अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण दायित्‍व सौंपा गया है जिसमें दो तीन महीने व्‍यवस्‍था बनाने में लग जायेंगे, फिर संभव है कुछ समय के लिये आराम रहे।
आतंकवादी: ओह ऐसा, बहुत बढ़िया
मैं: लोक सेवक होने के नाते पहले पब्लिक की बजानी जरूरी है, जनता जो तनख्‍वाह देती है उसका कर्जा उतारने के मौके कम मिलते हैं।
आतंकवादी: ये भी सही है। ठीक है कल गजल का इंतज़ार करते हैं
मैं: ये हुई न अच्‍छे बच्‍चों वाली बात। ठीक है। अलविदा।
आतंकवादी: नमस्ते

मैं इस आतंकवादी से भयभीत नहीं हूँ और दुआ करता हूँ कि हर आतंकवादी ऐसा ही हो जाये। मेरी दुआ दिल से है यह सिद्ध करने के लिये उसकी दिली फरमाईश पूरी कर रहा हूँ। अब अल्‍प समय में एक नयी ग़ज़ल तैयार हो जाये ये हमेशा संभव तो नहीं होता लेकिन जो कुछ कच्‍चा-पक्‍का बन सका परोस रहा हूँ, इस आशा के साथ कि इस आतंकवादी के विचार मात्र दो महीने का समय मुझे दे दें फि़र पूरे जोशोखरोश के साथ लौटता हूँ।

ग़ज़ल
कल तक जो लड़ रहे थे किसी दक्ष की तरह
निस्‍तेज हो गये हैं वही सक्ष की तरह। सक्ष: पराजित

कपड़ों के, रोटियों के, मकानों के वास्‍ते
कुछ प्रश्‍न पूछते हैं सभी, यक्ष की तरह।

ढूँढी तमाम उम्र, जगह मिल सकी न मॉं,
सुख दे सके मुझे जो तेरे वक्ष की तरह।

सर रख के फाईलों पे कई सो रहे यहॉं,
दफ़्तर समझ रखा है शयन-कक्ष की तरह।

वो वक्‍त और था, वो ज़माना ही और था,
हम भी थे सल्‍तनत में कभी अक्ष की तरह।

संसद सा हो गया है मेरा घर ही आजकल,
गुट बन गये हैं पक्ष और विपक्ष की तरह।

क्‍यूँकर ये चॉंद भी है अजब हरकतों में ग़ुम
लगता है पक्ष शुक्‍ल, कृष्‍ण-पक्ष की तरह।

है आपको खबर कि ज़हर से बनी हैं ये
क्‍यूँ बेचते हैं आप इन्‍हें भक्ष की तरह। भक्ष: खाने का पदार्थ

क्‍यूँ कर न आपकी ही शरण में बसे रहें
हमको तुम्‍हारा एक करम, लक्ष की तरह। लक्ष: एक लाख; सौ हजार

जज्‍़बा यही है, अपनी इबादत यही रही
हम देश से जुड़े हैं किसी रक्ष की तरह। रक्ष: रक्षक, रखवाला

अच्‍छी भली ग़ज़ल है, सुनाते नहीं हैं क्‍यूँ
'राही' छिपाईये न इसे मक्ष की तरह। मक्ष: अपने दोष को छिपाना

तिलकराज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी