tag:blogger.com,1999:blog-36262977938299212892024-02-06T21:34:47.869-08:00रास्ते की धूलतिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.comBlogger27125tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-83876605806309131602018-12-18T09:44:00.001-08:002018-12-18T09:44:36.172-08:00Brainstorming Free PowerPoint Diagram<a href="https://www.slidegeeks.com/business/product/brainstorming-free-powerpoint-diagram#.XBkx9Lejsrc.blogger">Brainstorming Free PowerPoint Diagram</a>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-69145461376807909342014-05-26T09:49:00.001-07:002014-06-01T12:14:39.853-07:00जन-जन की ओर से संदेश <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: #a64d79; font-size: large;">आज संध्या-समय भारत सरकार के नवगठित मंत्रीमंडल का शपथ-ग्रहण <span style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">समारोह </span>देखते-देखते मन में एक सामान्य जन के रूप में उपजे भावों ने एक ग़ज़ल का रूप ले लिया। उसी को लेकर एक लंबे अंतराल के बाद आज ब्लॉग पर उपस्थित हूँ। </span><br />
<span style="color: #a64d79; font-size: large;"><br /></span>
<span style="color: #a64d79; font-size: large;">2122 2122 2122</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;">आप ने ली जो शपथ, वो याद रखना</span><br />
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;">जो यहॉं लाये हैं उन को, याद रखना।</span><br />
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;">राह में आये भले कोई चुनौती </span><br />
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;">आस जन-जन की तुम्हीं हो, याद रखना।</span><br />
<br />
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;">स्वप्न देखो जब तरक्की अम्न के तुम</span><br />
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;">खुद से पहले देश देखो, याद रखना।</span><br />
<br />
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;">बॉंटने निकलो तो खुशियॉं बॉंटना तुम</span><br />
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;">भूल से भी ग़म नहीं दो, याद रखना।</span><br />
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;">दूरियॉं जिनसे बढ़ें वो भूल कर तुम </span><br />
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;">दिल मिलें वो बात बोलो, याद रखना।</span><br />
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;">साथ मिलकर वायदे सारे निभाना</span><br />
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;">संगठित रहना, न टूटो, याद रखना।</span><br />
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f; font-size: large;">कर सको कुछ, फिर ये अवसर कब मिलेगा</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="color: #6aa84f;">मोह-माया में न लिपटो, याद रखना।</span> </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तिलक राज कपूर </span></div>
तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-76644597823010561812012-05-03T04:07:00.000-07:002012-05-04T08:45:33.863-07:00एक ताज़ा ग़ज़ल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: #274e13;">बहुत दिनों के बाद कुछ समय निकल सका ग़ज़ल के लिये और एकाएक हो गई ये ग़ज़ल; जैसे कि आने को बेताब ही थी। प्रस्तुत है:</span>
<br />
<br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">
हुआ क्या है ज़माने को कोई निश्छल नहीं मिलता<br />
किसी मासूम बच्चे सा कोई निर्मल नहीं मिलता।<br />
<br />
युगों की प्यास क्या होती है वो बतलाएगा तुमको<br />
जिसे मरुथल में मीलों तक कहीं बादल नहीं मिलता।<br />
<br />
जुनूँ की हद से आगे जो निकल जाये शराफ़त में<br />
हमें इस दौर में ऐसा कोई पागल नहीं मिलता।<br />
<br />
यक़ीं कोशिश पे रखता हूँ, मगर मालूम है मुझको<br />
अगर मर्जी़ न हो तेरी, किसी को फल नहीं मिलता।<br />
<br />
जहॉं भी देखिये नक़्शे भरे होते हैं जंगल से<br />
ज़मीं पर देखिये तो दूर तक जंगल नहीं मिलता।<br />
<br />
समस्या में छुपा होगा, अगर कुछ हल निकलना है<br />
नियति ही मान लें उसको, अगर कुछ हल नहीं मिलता।<br />
<br />
हर इक पल जि़ंदगी का खुल के हमने जी लिया 'राही'<br />
गुज़र जाता है जो इक बार फिर वो पल नहीं मिलता।<br />
<br />
तिलक राज कपूर 'राही'
</span>
</div>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com27tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-39025486802288244362012-03-05T05:24:00.000-08:002012-03-05T05:24:27.192-08:00होली की अग्रिम बधाई<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><strong>बस ज़रा सा इंतज़ार और होली आपके द्वार। होली में एक विशिष्ट आवश्यकता एक वर्ग विशेष की होती है जिसका मध्यप्रदेश में उस दिन बाज़ार में मिलना दूभर होता है। इसलिये पहले से स्टॉक जमा होने लगता है। आज उसी स्टॉक शौकीनों की बात एक तरही के माध्यम से। तरही तो पुरानी है लेकिन ब्लॉग पर पहली बार आपका स्वागत कर रही है।</strong><br />
<br />
<strong>तरही: रोज पव्वा पी लिया तो पीलिया हो जायेगा</strong> <br />
<br />
वक्त, यूँ सोचा न था, इक दिन हवा हो जायेगा <br />
जु़ल्फ़ से भरपूर ये सर, चॉंद सा हो जायेगा।<br />
<br />
हम मिले, तो पूछ मत, क्या फ़ायदा हो जायेगा <br />
तेरे अब्बा का पता, मेरा पता हो जायेगा।<br />
<br />
बंद डिब्बा दूध बच्चा, गुलगुला हो जायेगा <br />
और भूखा बाप इक दिन सींकिया हो जायेगा।<br />
<br />
है बहुत मजबूर, अद्धी पी रहा है, जानकर; <br />
रोज पव्वा पी लिया तो पीलिया हो जायेगा।<br />
<br />
बस यही तो सोचकर वो शादियॉं करता रहा <br />
दर्द बढ़ता ही गया तो खुद दवा हो जायेगा।<br />
<br />
रंग का त्यौहार है छेड़ें न क्यूँकर लड़कियॉं <br />
मुँह अगर काला हुआ तो क्या नया हो जायेगा।<br />
<br />
जिस्म सल्लू सा दिखा तो आपसे शादी करी <br />
ये न सोचा था बदन यूँ पिलपिला हो जायेगा।<br />
<br />
हो गया बेटा जवां, ये हरकतें मत कीजिये <br />
वरना वो भी आप सा ही मनचला हो जायेगा।<br />
<br />
हुस्न की शहजादियों को मुँह लगाना छोडि़ये <br />
गर किसी को भा गया तो पोपला हो जायेगा।<br />
<br />
इश्क जिससे हो गया ‘राही’ न शादी कीजिये <br />
इश्क का सारा मज़ा ही किरकिरा हो जायेगा। </div>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-16253527253934558282011-10-25T21:32:00.000-07:002011-10-28T08:29:03.356-07:00दीपोत्सव की हार्दिक बधाई<div style="text-align: left" dir="ltr" trbidi="on"> <div align="justify">अविवादित है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। सामाजिक होने के कारण स्वाभाविक है कि सामाजिक और सांस्कृतिक उत्सव भी होते हैं। हम सभी अपने-अपने तरह से उत्सव मनाते हैं, उत्सव का आनंद लेते हैं। आर्थिक विसंगतियों के चलते उत्सव के आनंद की परिभाषा में स्तरीय अंतर स्वाभाविक है। </div> <div align="justify">विचार का प्रश्न मात्र इतना है कि हमारी उत्सव की परिभाषा में क्या हम किसी ऐसे को शामिल कर सकते हैं जो आर्थिक रूप से हमसे कमज़ोर है। इन्हीं विचारों से जन्मी है यह ग़ज़ल जिसे एक आईना बनाकर प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसमें हम देखें कि उत्सव के हमारे आनंद में हम क्या वृद्धि कर सकते हैं। यही कामना है। </div> <br />नगर ने गॉंव के हिस्से की बिजली फूँक डाली है <br />यहॉं पर रात काली है, वहॉं रौशन दीवाली है। <br /> <br />बड़ी तरकीब से तरकीब ये तुमने निकाली है <br />वतन खुशहाल दिखलाती हुई झॉंकी निराली है। <br /> <br />बहुत छोटा सा इक अरमॉं लिये मायूस है बचपन <br />मगर मजबूर हैं मॉं-बाप, उनकी जेब खाली है। <br /> <br />खटा दिन रात, वो ये सोचकर, उत्सव मनायेगा <br />उसे बाज़ार ने बोला कि तेरा नोट जाली है। <br /> <br />कई घर मॉंजकर बर्तन, बचाई जो रकम मॉं ने <br />चुरा कर एक बेटे ने, जुए की फ़ड़ जमा ली है। <br /> <br />फ़सल अच्छी हुई सोचा सयानी का करें गौना <br />रकम फ़र्जी हिसाबों में महाजन ने दबा ली है। <br /> <br />कभी था राम ने मारा, उसी मारीचि के मृग ने <br />बिखर कर हर किसी दिल में जगह अपनी बना ली है। <br /> <br />सदा ही ईदो-दीवाली मनाई साथ में हम ने <br />सियासत ने मगर दो भाइयों में फ़ूट डाली है। <br /> <br />सियासत वायदे करती है पर पूरे नहीं करती <br />यहॉं का वायदा तो सिर्फ़ शब्दों की जुगाली है। <br /> <br />तुम्हें अहसास भी इसका कभी होता नहीं शायद <br />तुम्हारी हरकतों ने देश की पगड़ी उछाली है। <br /> <br />नहीं मॉंगा कभी तुझसे खुदा खुद के लिये लेकिन <br />दुआ सबके लिये लेकर खड़ा दर पर सवाली है। <br /> <br />चलो संकल्प लें स्वागत में इक दीपक सजाने का <br />धुँए औ शोर से जो मुक्त हो, सच्ची दीवाली है। <br /> <br />सभी उत्सव, सभी के हैं, चलो 'राही' यही ठानें <br />दिये दो हम जलायेंगे जहॉं भी रात काली है। <br /> <br />सादर <br />तिलक राज कपूर 'राही'</div> तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-47407602242744972482011-10-14T12:44:00.000-07:002011-10-14T12:44:18.006-07:00करवा चौथ पर विशेष<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">ग़ज़ल के पेच-ओ-खम बारीकियों से दूर रहता हूँ <br />
नया अहसास होता है तो बस इक शेर कहता हूँ।<br />
<br />
कभी-कभी सीधे-सादे अहसास सीधे-सादे लफ़्ज़ों में बयॉं करने का दिल करता है और ऐसे में कुछ अशआर जन्म लेते हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति आज प्रस्तुत इस ग़ज़ल में है। एक बहुत सीधी सादी बात आई कि क्या इस बार करवा चौथ पर कुछ नहीं कह रहे। पहले करवा चौथ पर बिटिया की एक सीधी-सादी फ़रमाईश को पूरा करना तो एक ऐसी स्थिति हो गयी कि रुका नहीं गया। बस उसी का परिणाम है ये सीधी-सादी ग़ज़ल बिना किसी पेच-ओ-खम के। <br />
<br />
हुस्न आया तो लजाना आ गया <br />
कनखियों से मुस्कराना आ गया।<br />
<br />
होंठ होंठों में दबाना आ गया <br />
देख कर नज़रें चुराना आ गया।<br />
<br />
चाहते हैं आप ऐसा जानकर <br />
फ़ूल वेणी में सजाना आ गया।<br />
<br />
जि़न्दगी में आप का आना सनम <br />
यूँ लगा जैसे खजाना आ गया।<br />
<br />
आपके अहसास ने छूकर कहा <br />
मीत जन्मों का पुराना आ गया।<br />
<br />
इक अलग अहसास करवा चौथ है <br />
ये लगा जब दिल लगाना आ गया।<br />
<br />
साथ करवा चौथ का उत्सव लिये <br />
जि़न्दगी में इक सयाना आ गया।<br />
<br />
ख़ैरियत में आपकी उपवास रख <br />
अब हमें भी दिन बिताना आ गया।<br />
<br />
दूर झुरमुट में छुपे उस चॉंद को <br />
सॉंझ ढलते ही बुलाना आ गया।<br />
<br />
तिलक राज कपूर 'राही'</div>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-26031714960768012932011-10-11T21:00:00.000-07:002011-10-14T04:14:56.262-07:00ग़ज़ल गायकी के सम्राट 'जगजीत सिंह' को विशेष श्रद्धॉंजलि<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">ग़ज़ल गायकी के सम्राट 'जगजीत सिंह' को विशेष श्रद्धॉंजलि<br />
ग़ज़ल क्या होती है, यह समझ भी नहीं थी जब पहली बार जगजीत सिंह की मंत्रमुग्ध कर देने वाली आवाज़ सुनी थी। फिर सुनता रहा, सुनता रहा और जब ग़ज़ल कहना आरंभ किया, दिल ने कहा एक ग़ज़ल ऐसी कहनी है जिसे जगजीत सिंह अपनी आवाज़ से नवाज़ना स्वीकार करें। उस आवाज़ लायक कुछ न कह सका और एकाएक आवाज़ से जग जीतने वाले जगजीत ने यह जग छोड़ दिया। ब्रेन हैमरेज से अस्पताल में भर्ती थे लेकिन लगता था अभी कोई कारण नहीं है जगजीत के जाने का, वो और जियेंगे और फिर कुछ और सुनने को मिलेगा। बस यहीं आदमी और उपर वाले के फ़ैसले का अंतर होता है शायद। उसने वही किया जो उसे ठीक लगा। कल दिन भर जगजीत सिंह की गाई एक ग़ज़ल लौट-लौट कर ज़ेह्न में आ रही थी। बहुत तलाशा नेट पर, नहीं मिली। रुका नहीं गया और एक ग़ज़ल हुई। <br />
आज जगजीत हमारे बीच देह-स्वरूप नहीं लेकिन स्वर-स्वरूप जिंदा हैं और उनके इस स्वर स्वरूप को समर्पित है यह ग़ज़ल। <br />
<br />
आज फिर तू, कुछ नया दे, जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी<br />
अब मुझे रब से मिला दे जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।<br />
<br />
नस्ल-ओ-मज़्हब के बखेड़ों से अलग मैं रह सकूँ<br />
एक ऐसा आसरा दे, जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।<br />
<br />
बंधनों के इस कफ़स में जी चुका इक उम्र मैं<br />
इस से आज़ादी दिला दे जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।<br />
<br />
जन्म से सोया हुआ हूँ, ख़्वाब सारे जी चुका<br />
नींद से मुझको उठा दे, जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।<br />
<br />
छोड़कर मिट्टी चला हूँ, पूछता हूँ बस यही<br />
क्यूँ मिली मिट्टी, बता दे, जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।<br />
<br />
साथ जितना था हमारा, कट गया, जैसा कटा<br />
आज ख़ुश हो कर, विदा दे जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।<br />
<br />
सोचना क्या वक्ते रुख़्सत, क्या मिला, क्या खो गया<br />
भूल जा, सब कुछ भुला दे जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।<br />
<br />
जा रहा हूँ, छोड़कर रिश्ते कई ऑंसू भरे<br />
दे सके तो हौसला दे जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।<br />
<br />
उम्र भर भटका मगर, मंजि़ल न 'राही' को मिली<br />
आज मंजि़ल का पता दे, जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।<br />
<br />
तिलक राज कपूर 'राही'</div>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-49536899620692683872011-08-21T01:01:00.000-07:002011-09-17T20:44:24.130-07:00एक ग़ज़ल- इस देश के जन जन को समर्पित<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><title>Untitled Document</title><style type="text/css">
<!--
.style1 {color: #0000FD}
.style2 {color: #FF0000}
.style3 {color: #0000FF}
-->
</style><span class="style1 style1">इस बार वर्तमान-विषय प्रासंगिक एक ग़ज़ल आपके विचारार्थ प्रस्तुत है। हो सकता है कुछ मित्रों को यह ग़ज़ल नागवार गुज़रे, उनसे क्षमाप्रार्थना करने में मुझे कोई संकोच नहीं है। प्रश्न सोच के ध्रुवीकरण का है। जो मुझसे असहमत हों उनसे तो मैं निरर्थक अनुरोध भी नहीं करना चाहूँगा लेकिन जो सहमत हैं उनसे अवश्य मेरा अनुरोध है कि इस ग़ज़ल को आपके संपर्क क्षेत्र में पहुँचाने में मेरी सहायता अवश्य करें। इस ग़ज़ल पर उठाये गये प्रश्नों के उत्तर देने के लिये मैं दिन में एक बार अवश्य उपस्थित रहूँगा।</span><br />
<div><span class="style3 style2"><br />
</span><span class="style2"><br />
देखकर लोकतंत्र तालों में<br />
लोग तब्दील हैं मशालों में।<br />
<br />
अब तो उत्तर बहुत कठिन होंगे<br />
इस दफ़्अ: आग है सवालों में।<br />
<br />
कोंपलों के भी देखिये तेवर<br />
वो बदलने लगी हैं भालों में।<br />
<br />
एकता क्या है अब वो देखेंगे<br />
बॉंटते आये हैं जो पालों में।<br />
<br />
वायदे तो बहुत हुए लेकिन<br />
क्या मिला है स्वतंत्र सालों में। <br />
<br />
जो हमारे लहू में होनी थी<br />
वो ही लाली है उनके गालों में।<br />
<br />
आदमीयत कभी तो समझेंगे<br />
भेडि़ये आदमी की खालों में।<br />
<br />
इस लड़ाई में मिट गये हम तो <br />
फिर मिलेंगे तुम्हें मिसालों में। <br />
<br />
मंजि़लें ठानकर ये निकले हैं<br />
अब न 'राही' फ़ँसेंगे चालों में।<br />
</span><span class="style1"><br />
</span><span class="style2 style1 style3"> बह्र: फ़ायलुन्, फ़ायलुन्, मफ़ाईलुन् </span></div></div>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com37tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-2982488318323809582011-04-29T10:51:00.000-07:002011-04-29T10:51:47.901-07:00ग़ज़ल: फिर से बूढ़ी बातियों में तेल डाला<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">एक लंबे अंतराल के बाद आज फिर उपस्थिति हूँ एक नई गैर-मुरद्दफ़ ग़ज़ल के साथ। इस अंतराल में यूँ तो बहुत सी ग़ज़ल हुईं लेकिन तसल्ली एक से न थी, ब्लॉग पर लगाने लायक नहीं लगीं। लंबे समय बाद कुछ ऐसा हुआ कि आपसे साझा करने लायक लगा और प्रस्तुत है आप सबके समीक्षार्थ: <br />
<br />
थक गये जब नौजवॉं, ये हल निकाला<br />
फिर से बूढ़ी बातियों में तेल डाला।<br />
<br />
जब से बूढ़ी बातियों में तेल डाला<br />
हर तरफ़ दिखने लगा सबको उजाला।<br />
<br />
जो परिंदे थे नये, टपके वही बस<br />
इस तरह बाज़ार को उसने उछाला।<br />
<br />
दूर तक अपना नज़र कोई न आया<br />
याद पर हमने बहुत ही ज़ोर डाला।<br />
<br />
देर मेरी ओर से भी हो गयी, पर<br />
आपने भी ये विषय हरचन्द टाला।<br />
<br />
दिल अगर चाहे, किसी भी राह में फिर<br />
पॉंव को कॉंटे नहीं दिखते न छाला।<br />
<br />
जब उसे कॉंधा दिया दिल सोचता था<br />
साथ कितना था सफ़र, क्यूँ बैर पाला।<br />
<br />
भूख क्या होती है जबसे देख ली है<br />
अब हलक में जा अटकता है निवाला।<br />
<br />
एकलव्यों की कमी देखी नहीं पर<br />
देश में दिखती नहीं इक द्रोणशाला।<br />
<br />
तोड़कर दिल जो गया वो पूछता है<br />
दिल हमारे बाद में कैसे संभाला।<br />
<br />
जि़ंदगी तेरा मज़ा देखा अलग है<br />
इक नशा दे जब खुशी औ दर्द हाला।<br />
<br />
त्याग कर बीता हुआ इतिहास इसने<br />
हरितिमा का आज ओढ़ा है दुशाला।<br />
<br />
बस उसी 'राही' को मंजि़ल मिल सकी है<br />
राह के अनुरूप जिसने खुद को ढाला।<br />
<br />
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी</div>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com43tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-88541118188417974782010-12-17T02:56:00.000-08:002010-12-17T02:56:02.076-08:00आज कुछ श्रंगार की बातें करें<div align="justify">यह पोस्ट पूरा एक सप्ताह विलंब से लगी है, 11 दिसम्बर की रात्रि में इसे पोस्ट करना था मगर अपनी मर्जी कब चलती है। बहरहाल, किसी तरह संपर्क हो पाता तो आदरणीय चंद्रसेन ‘विराट’ जी से उनका एक मुक्तक प्रस्तुत करने की अनुमति अवश्य लेता। यह मुक्तक अस्सी के दशक में पढ़ा था और पढ़ते ही कंठस्थ हो गया था। मुक्तक इस तरह है:</div><table border="0" cellpadding="2" cellspacing="0" style="width: 400px;"><tbody>
<tr><td valign="top" width="42"></td><td valign="top" width="358"><span style="color: #c0504d;"><strong>रोम झंकृत हो रहे हैं, ये शिरायें बज रहीं <br />
जो हृदय में उठ रहा, उस ज्वार की बातें करो <br />
शेष सारे ही रसों को आज तो विश्राम दो <br />
मुक्त मन रसराज की श्रंगार की बातें करो।</strong></span></td></tr>
</tbody></table><div align="justify">श्रंगारिक प्रस्तुति के पूर्व इस मुक्तक का उल्लेख किये बिना मैं रह नहीं पाता, आज भी इसे प्रस्तुत करने का यही कारण है। आज श्रंगार रस पर अपनी कुछ पूर्व रचनायें प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मैनें अस्सी के दशक में लिखी थीं। </div>सर्वप्रथम एक मुक्तक उस स्थिति पर जहॉं पहली बार नज़र मिलती है और पनपता है पहला-पहला प्यार:<br />
<table border="0" cellpadding="2" cellspacing="0" style="width: 400px;"><tbody>
<tr><td valign="top" width="37"></td><td valign="top" width="363"><span style="color: #ff0080;"><strong>मुस्कराकर, आपने, देखा इधर, मैं देखता हूँ <br />
आपके दिल में जो उपजा, वो शजर मैं देखता हूँ <br />
भाव उपजा, उठ गयी, पर लाज से फिर झुक गयी, <br />
गिर के उठती, उठ के गिरती, हर नज़र मैं देखता हूँ।</strong></span></td></tr>
</tbody></table>शजर- पेड़<br />
<div align="justify">इसके बाद बात बढ़ती है दो दिलों के मिलने की ओर तो सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक नियम सामने आते हैं। यह मुक्तक वस्तुत: अपने छोटे साले की फ़र्माइश पर लिखा जब उसने चाहा कि एक ऐस छंद हो जो वह अपनी मँगेतर को भेजे जाने वाले प्रथम पत्र में लिख सके। मैं ठहरा कार्य विभाग से, पुल पुलियों के अलावा कुछ दिखता नहीं। छंद को रुचिकर बनाने के लिये कुछ आधार ज्ञान प्राप्त करना चाहा तो ज्ञात हुआ ‘बिछिया’ का महत्व, जो विवाहिता की पहचान होती है। बस सब कुछ जोड़कर जो मुक्तक तैयार हुआ वह इस प्रकार है:</div><table border="0" cellpadding="2" cellspacing="0" style="width: 400px;"><tbody>
<tr><td valign="top" width="50"></td><td valign="top" width="350"><strong><span style="color: #804040;">प्रेम डगरिया की पुलिया तो, गोरी अभी अधूरी है, <br />
बीच समय की बहती नदिया भी अपनी मजबूरी है, <br />
पल-पल, क्षण-क्षण, समय कट रहा है, सखियों से कह देना, <br />
देर नहीं पिय से मिलने में, बिछिया भर की दूरी है।</span></strong></td></tr>
</tbody></table>पल-पल के साथ क्षण-क्षण में आपत्ति हो तो ‘क्षण-क्षण’ के स्थान पर ‘करते’ पढ़ लें। <br />
इसी क्रम में आगे बढ़ें तो आता है एक गीत, जो इस प्रकार है:<br />
<span style="color: #0080ff;">पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन, <br />
सहमी सी बैठी, नवेली दुल्हन।</span><br />
<span style="color: #0080ff;">युगों युगों के बाद रात इक, यूँ ही नही लजाई है, <br />
बाबुल के अंगना से गोरी, पिय के घर को आई है।</span><br />
<div align="right"><span style="color: #0080ff;">घूँघट की ये ओट तुम्हारी, होगी नहीं सहन, <br />
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन। </span></div><span style="color: #0080ff;">निशा का ऑंचल गहराया, अब तू भी पलकें ढलका दे, <br />
रूप की मादक मदिरा मुझपर, आज प्रिये तू छलका दे।</span><br />
<div align="right"><span style="color: #0080ff;">आलिंगन में ले ले मेरा सारा पागलपन, <br />
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन। </span></div><span style="color: #0080ff;">कितनी सुखद घड़ी वो होगी, जब दो हृदय मिलेंगे, <br />
जीवन की बगिया में पगली, जब दो सुमन खिलेंगे।</span><br />
<div align="right"><span style="color: #0080ff;">वासंती मनुहारें होंगी, होगी कुछ सिहरन <br />
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन। </span></div><span style="color: #0080ff;">प्रियतम, तेरा प्रणय निवेदन, कल के कोमल सपने, <br />
वर लूँगी मैं बिना लजाये, ये हैं मेरे अपने।</span><br />
<div align="right"><span style="color: #0080ff;">बाहुपाश में कस लो मेरा उन्मादित यौवन, <br />
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन।</span></div><div align="justify">और अंत में विशेष बात यह है कि प्रथम मुक्तक 'मुस्करा कर....' और यह गीत मैनें अविवाहित जीवन की श्रंगारिक कल्पना के रूप में लिखे थे। एक अन्य विशेष बात यह कि 12 दिसम्बर को हमने विवाह की पच्चीसवीं वर्षगॉंठ मनाई। </div><div align="justify"><span style="color: blue;">पच्चीस वर्ष के वैवाहिक अनुभव को समेटूँ तो ऐसा कुछ विशेष नहीं जो अन्य किसी के काम का हो; सिवाय इसके कि जब कभी रूठा-रूठी की स्थिति बनी मैनें एक दो घंटे रुककर सिर्फ एक प्रश्न पत्नी से किया कि क्या इस विवाद का अंत कभी नहीं होगा, अगर नहीं तो क्यूँ न हम अपने मार्ग निश्चित कर लें, और अगर इस विवाद को कभी न कभी सुलझना है तो क्यूँ न अभी इसका अन्त कर दें। यह हमेशा कारगर सिद्ध हुआ। इस प्रश्न में दबाव न होते हुए एक समझ का विकास आधार में है कि छोटे-मोटे मतभेद सामान्य हैं और अधिकॉंश विवाद कहने-सुनने, सोच, परिपक्वता, अनुभव के अंतर पर आधारित होते हैं और उन्हें आसानी से समाप्त किया जा सकता है। </span></div><div align="justify"><span style="color: blue;">र्इश्वर करे सभी के पारिवारिक जीवन में ऐसा ही हो। आनंद ही आनंद हो।</span></div><div align="justify"><span style="color: blue;">तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी</span></div>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-50801425632805504992010-11-03T10:49:00.000-07:002010-11-03T10:49:18.651-07:00दीपोत्सव की बहुत-बहुत बधाई<span style="color: #073763;">मन में एक विचार आया कि क्यूँ न इस बार ‘दीपक’ को ही अभिव्यक्ति का माध्यम चुना जाये। प्रस्तुत ग़ज़ल में ‘दीपक’ के माध्यम से संयोजन का वही प्रयास है। </span><span style="color: #073763;">मुझे काव्य के तत्वों का केवल आधार ज्ञान ही है इसलिये कहीं कुछ त्रुटि हुई हो तो आपकी टिप्पणी के माध्यम से ज्ञानवर्धन की अपेक्षा है। </span><br />
<span style="color: #073763;">कहने की आवश्यकता नहीं कि ग़ज़ल गैर मुरद्दफ़ है और इसके अ’र्कान फ़़ायलातुन, फ़़ायलातुन, फ़़ायलातुन, फ़़ायलुन यानि 2122, 2122, 2122, 212 हैं जो मेरी प्रिय बह्र है। </span><br />
<span style="color: #38761d; font-size: large;"><strong><br />
एक ग़ज़ल </strong></span><br />
<span style="color: #783f04;"><br />
वायदा है मैं तिमिर से हर घड़ी टकराउँगा<br />
स्नेह पाया है जगत से रौशनी दे जाउँगा।</span><br />
<br />
<span style="color: #073763;"><br />
कौन हूँ मैं बूझ पाओ तो मुझे तुम बूझ लो<br />
लौ पुराना प्रश्न है जो मैं नहीं सुलझाउँगा।</span><br />
<br />
<span style="color: #783f04;"><br />
बात जब मेरी हुई तो तेल बाती की हुई<br />
मैं रहा जिस पात्र में गुणगान उसके गाउँगा।</span><br />
<br />
<span style="color: #073763;"><br />
एक बच्चा मित्रता करने पटाखों से चला<br />
आग से मत खेलना उसको यही समझाउँगा।</span><br />
<br />
<span style="color: #783f04;"><br />
खुद अगर कोई पतंगा आ गिरा आग़ोश में<br />
हाथ मलने के सिवा कुछ भी नहीं कर पाउँगा।</span><br />
<br />
<span style="color: #073763;"><br />
एक अनबन सी रही बारूद की मुझसे मगर,<br />
वो गले मेरे लगा तो किस तरह ठुकराउँगा।</span><br />
<br />
<span style="color: #783f04;"><br />
साथ में तूफॉं लिये अब ऑंधियॉं चलने लगीं<br />
बुझ गया तो मैं मिसालों में दिया कहलाउँगा।</span><br />
<br />
<span style="color: #073763;"><br />
कब्र, मंदिर, राह हो या फिर मज़ारे पीर हो<br />
जिस जगह भी रख दिया, मैं रौशनी बिखराउँगा।</span><br />
<br />
<span style="color: #783f04;"><br />
जो डगर मैनें चुनी वो आपको लगती कठिन<br />
राह बारम्बार लेकिन मैं यही दुहराउँगा।</span><br />
<br />
<span style="color: #073763;"><br />
वक्त जाने का हुआ है भोर अब होने लगी<br />
सूर्य से रिश्ता अजब है, वो गया तो आउँगा।</span><br />
<br />
<span style="color: #783f04;"><br />
गर कभी मद्धम हवा निकली मुझे छूते हुए<br />
नृत्य में खो जाउँगा, इतराउँगा, इठलाउँगा। </span><br />
<br />
<span style="color: #073763;"><br />
धर्म, जात औ, उम्र क्या औ कर्म का अंतर है क्या<br />
जब मुझे ‘राही’ दिखेगा, राह मैं दिखलाउँगा। </span><br />
<br />
<span style="color: #783f04;"><br />
तिलक राज कपूर ‘राही’ ग्वालियरी</span>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com42tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-36997263013873893882010-10-27T10:59:00.000-07:002010-10-27T10:59:02.737-07:00करवा चौथ को समर्पित एक ग़ज़़ल<span style="color: #073763;">पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर इस बार तरही का जो मिसरा दिया गया है उसकी बह्र ग़ज़़ल साधना में लगे नये साधकों के लिये बड़े काम की है ऐसा मेरा मानना है। पहली बार ऐसा हुआ कि किसी तरही के लिये मुझे बहुत गंभीरता से प्रयास करना पड़ा, इस प्रयास में बहुत सा मसाला इकट्ठा हो गया और तरही की ग़ज़़ल भेजने के बाद ऐसा लगा कि इस बह्र पर कुछ और काम करना जरूरी है। इसी प्रयास में ‘अच्छा लगा’ रदीफ़ लेकर एक ग़ज़़ल पर काम कर रहा था कि ‘करवा चौथ’ की पूर्व रात्रि आ गयी और कुछ ऐसी अनुभूति हुई कि एक शेर ‘करवा चौथ’ पर बन गया। स्वाभाविक है कि इससे लोभ पैदा हो गया एक ग़ज़़ल ‘करवा चौथ’ को समर्पित करने का। मैं सामान्यतय: निजि जीवन से ग़ज़़ल के लिये अनुभूति नहीं ले पाता हूँ इसलिये कुछ समय लग गया और ग़ज़़ल आज ऐसा रूप ले सकी कि प्रस्तुत करने का साहस कर सकूँ। इस ग़ज़़ल के लिये प्रेरणा मिली ‘करवा चौथ’ से और साहस मिला प्राण शर्मा जी की ग़ज़़लों से जिनमें निजि पलों की खूबसूरती देखते ही बनती है। </span><br />
<span style="color: #073763;">यह ग़ज़़ल विशेष रूप से करवा चौथ को समर्पित है। इसका पूरा आनंद गुनगुना कर लेने के लिये ‘कल चौदवीं की रात थी, शब भर रहा चर्चा तेरा’ या ‘ये दिल, ये पागल दिल मेरा, क्यों बुझ गया, आवारगी’ की लय का स्मरण करें। </span><br />
<br />
<span style="color: #274e13; font-size: large;">ग़ज़़ल </span><br />
<br />
<span style="color: #134f5c;">छूकर इसे, तुमने किया, खुश्बू भरा, अच्छा लगा,</span><br />
<span style="color: #134f5c;">बदला हुआ, स्वागत भरा, जब घर मिला, अच्छा लगा।</span><br />
<span style="color: #134f5c;"><br />
</span><br />
<span style="color: #38761d;">नादान थे, अनजान थे, परिचित न थे, लेकिन हमें, </span><br />
<span style="color: #38761d;">जब दिल मिले, रिश्ता लगा, जाना हुआ, अच्छा लगा</span><br />
<span style="color: #134f5c;"><br />
</span><br />
<span style="color: #134f5c;">जब सात फेरों के वचन से जन्म सातों बॉंधकर</span><br />
<span style="color: #134f5c;">तूने मुझे, मैनें तुझे, अपना लिया, अच्छा लगा।</span><br />
<span style="color: #134f5c;"><br />
</span><br />
<span style="color: #38761d;">तुमने कहा, मैनें सुना, मैनें कहा, तुमने सुना,</span><br />
<span style="color: #38761d;">सुनते सुनाते वक्त ये, अपना कटा, अच्छा लगा।</span><br />
<span style="color: #134f5c;"><br />
</span><br />
<span style="color: #134f5c;">वो फासला, जो था बना, ग़फ़्लत भरी, इक धुँध से,</span><br />
<span style="color: #134f5c;">कोशिश हमारी देखकर, जब मिट गया, अच्छा लगा।</span><br />
<span style="color: #134f5c;"><br />
</span><br />
<span style="color: #38761d;">तुम सामने बैठे रहो, श्रंगार मेरा हो गया,</span><br />
<span style="color: #38761d;">इस बार करवा चौथ पर, तुमने कहा, अच्छा लगा।</span><br />
<span style="color: #134f5c;"><br />
</span><br />
<span style="color: #134f5c;">‘राही’ कटेगी जिन्दगी, महकी हुई, खुशियों भरी, </span><br />
<span style="color: #134f5c;">इस बात का, जब आपने, वादा किया, अच्छा लगा।</span><br />
<br />
<span style="color: #741b47;">तिलक राज कपूर 'राही ग्वालियरी'</span>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com50tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-55254491539360474092010-10-03T11:47:00.000-07:002010-10-03T11:47:39.508-07:00सांप्रदायिक सद्भाव पर एक ग़ज़ल<style type="text/css">
<!--
.style3 {
font-size: xx-large;
color: #FF6633;
}
.style4 {color: #000000}
.style8 {color: #006600}
.style9 {
color: #3300FF;
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}
-->
</style><br />
<span class="style4">तमाम शंकाओं, कुशंकाओं के बीच आखिर, एक बहुप्रतीक्षित फ़ैसला आ ही गया और देश के जन-जन ने संपूर्ण विषय को न्यायपालिका का कार्यक्षेत्र मानकर; निर्णय को सहजता से स्वीकार कर साम्प्रदायिक सद्भाव का उदाहरण दिया। देश का जन-जन इस सांप्रदायिक सद्भाव के लिये हार्दिक बधाई का पात्र है और ऐसे हर सद्भावी को आज की ग़ज़ल समर्पित है। इस ग़ज़ल का कोई भी शेर मेरा नहीं, यह केवल और केवल जन-जन की भावनाओं की अभिव्यक्ति का प्रयास है। </span><br />
<div class="style4">सिर्फ़ एक शब्द 'इनायत' को समझने के लिये शब्दकोष खोला और सिर्फ़ 'इ' से आरंभ होने वाले इतने हमकाफि़या शब्द मिल गये कि स्वयं को रोकना कठिन हो गया। परिणाम सामने है कि सामान्य ग़ज़ल से कुछ अधिक ही शेर हो गये हैं। इससे एक स्थिति और पैदा हो गयी है कि हिन्दी बोलचाल में प्रयुक्त उर्दू शब्दों से बात आगे निकल गयी है। इसके निराकरण के लिये शब्दकोष में दिये गये अर्थ भी साथ में ही दे दिये हैं। इसमें कुछ हिन्दीभाषियों को आपत्ति तो हो सकती है पर आशा है कि हिन्दी में प्रचलित शब्दों से अधिक उर्दू के प्रयोग को क्षमा करेंगे और शेर में कही बात के दृष्टिकोण से देखेंगे कि इन शब्दों के प्रयोग से क्या बात निकल कर सामने आयी है। </div><div class="style4">उर्दू शब्दों का मेरा ज्ञान उतना ही है जितना हिन्दी फि़ल्मों में उर्दू का उपयोग, इसलिये हो सकता है कुछ त्रुटि रह गयी हो, मेरा विशेष अनुरोध है कि कोई उपयोग-त्रुटि हो तो मुझे अवगत अवश्य करायें जिससे अर्थ के अनर्थ की स्थिति न बन जाये। </div><div class="style4">इस ग़ज़ल में शहर को नगर के वज़्न में लिया गया है जिसपर स्वर्गीय दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल 'कहॉं चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये' के साथ विवाद समाप्त हो चुका है फिर भी एतराज़ होने पर कृपया इसे नगर पढ़ लें। </div><span class="style4">इस पोस्ट पर मेरा विशेष अनुरोध है कि सांप्रदायिक सद्भाव पर अपने सुविचार ब्लॉग पर अथवा मेल के माध्यम से अवश्य रखें जिससे सद्भावियों को और अधिक मानसिक संबल मिले। आपके सुविचारों के प्रति मेरी ओर से सम्मान अग्रिम रूप से स्वीकार करें। </span><br />
<span class="style3">ग़ज़ल</span><br />
<br />
<span class="style4">कभी न हुक्म में उसके इदारत कीजिये साहब<br />
सदाकत से सदा उसकी इताअत कीजिये साहब।<br />
<span class="style8">इदारत- संपादन, एडीटरी<br />
इताअत- आज्ञा-पालन, फ़र्माबरदारी, सेवा, खिदमत</span></span><br />
<div class="style4"><br />
न उसकी राह चलने में इनाअत कीजिये साहब<br />
उसी के नाम पर, लेकिन इनाबत कीजिये साहब<br />
<span class="style8">इनाअत- विलंब, देर ढील, सुस्ती<br />
इनाबत- ईश्वर की ओर फि़रना, बुरे कामों से अलग हो जाना, तौबा करना</span></div><div class="style4"><br />
अगर कर पायें तो, इतनी इनायत कीजिये साहब<br />
दिलों में फ़ूट की न अब, शरारत कीजिये साहब।<br />
<span class="style8">इनायत- कृपा</span></div><div class="style4"><br />
बड़ी मुश्किल से, अम्नो-चैन की तस्वीर पाई है<br />
यही कायम रहे, ऐसी वकालत कीजिये साहब।</div><div class="style4"><br />
शहर के बंद रहने से कई चूल्हे नहीं जलते<br />
न ऐसा हो कभी ऐसी इशाअत कीजिये साहब।<br />
<span class="style8">इशाअत- प्रचार, प्रसार</span><br />
<br />
जुनूँ छाया है दिल में गर किसी को मारने का तो,</div><div class="style4">मेरी है इल्तिज़ा इसकी इताहत कीजिये साहब।<br />
<span class="style8">इताहत- मार डालना, हलाक करना </span></div><div class="style4"><br />
वो मेरा हो, या तेरा हो, या इसका हो, या उसका हो<br />
सभी मज़्हब तो कहते हैं इआनत कीजिये साहब।<br />
<span class="style8">इआनत- सहायता, मदद, सहयोग</span></div><div class="style4"><br />
किसी मज़्हब में दुनिया के कहॉं नफ़्रत की बातें हैं<br />
अगर वाईज़ ही भटकाये, खिलाफ़त कीजिये साहब।<br />
<span class="style8">वाईज़- धर्मोपदेशक</span></div><div class="style4"><br />
सियासत और मज़्हब जोड़ना फि़त्रत है शैतानी<br />
इन्हें जोड़े अगर कोई, मलामत कीजिये साहब।<br />
<span class="style8">सियासत- राजनीति<br />
मलामत- निंदा</span></div><div class="style4"><br />
जरूरी तो नहीं मंदिर औ गिरजा या हो गुरुद्वारा<br />
सुकूँ मिलता जहॉं पर हो इबादत कीजिये साहब।<br />
<span class="style8">इबादत- उपासना, अर्चना, पूजा</span></div><div class="style4"><br />
अगर ये थम गया तो फिर तरक्की हो नहीं सकती<br />
वतन चलता रहे ऐसी सियासत कीजिये साहब।<br />
<span class="style8">सियासत- राजनीति</span></div><div class="style4"><br />
सभी मज़्हब सिखाते हैं शरण में गर कोई आये<br />
तो अपनी जान से ज्यादह हिफ़ाज़त कीजिये साहब।<br />
<span class="style8">हिफ़ाज़त- रक्षा, बचाव, देख-रेख</span></div><br />
अगर हम दूरियों को दूर ही रक्खें तो बेहतर है<br />
मिटाकर दूरियॉं सारी रफ़ाकत कीजिये साहब।<br />
<span class="style8">रफ़ाकत- मैत्री, दोस्ती </span><br />
<div class="style4"><br />
कहॉं धरती सिवा जीवन वृहद् ब्रह्मांड में जाना<br />
किसी भी जीव से फिर क्यूँ शिकायत कीजिये साहब?</div><div class="style4"><br />
वकालत को अगर 'राही' बनाया आपने पेशा<br />
न इन फ़िर्क़:परस्तों की हिमायत कीजिये साहब।<br />
<span class="style8">फ़िर्क़:परस्तों - साम्प्रदायिकता रखने वाले, साम्प्रादायिक भेदभाव फैलाकर आपस में लड़ाने वाले </span></div><div class="style9"><br />
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी </div>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com50tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-9189960652166887192010-09-29T08:54:00.000-07:002010-09-29T08:54:28.905-07:00सूर्य का विश्राम पल होता नहींबात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी, मगर कौन ध्यान रखता है। सर्वत जमाल साहब ने साखी (sakhikabira.blogspot.com) ब्लॉग पर कहा कि इसके ब्लॉगस्वामी डाक्टर सुभाष राय रात को भी नहीं सोते। बस इसी बात से इस ग़ज़ल के मत्ले का शेर पैदा हुआ। देखना है अब ये बात कहॉं तक जाती है। यह मेरा प्रथम प्रयास है यथासंभव हिन्दी शब्दों के उपयोग का, कोई कारण नहीं, बस स्वयंपरीक्षण भर है अन्यथा मुझे तो मिलीजुली भाषा ही पसंद है जो मैं बचपन से सुनता और बोलता आया हूँ। <br />
<br />
<b>ग़ज़ल</b><br />
रात हो या दिन, कभी सोता नहीं, <br />
सूर्य का विश्राम पल होता नहीं। <br />
<br />
चाहतें मुझ में भी तुमसे कम नहीं,<br />
चाहिये पर, जो कभी खोता नहीं।<br />
<br />
मोतियों की क्या कमी सागर में है,<br />
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं। <br />
<br />
देखकर, परिणाम श्रम का, देखिये<br />
बीज कोई खेत में बोता नहीं।<br />
<br />
व्यस्तताओं ने शिथिल इतना किया <br />
अब कोई संबंध वो ढोता नहीं।<br />
<br />
क्यूँ में दोहराऊँ सिखाये पाठ को<br />
आदमी हूँ, मैं कोई तोता नहीं।<br />
<br />
देख कर ये रूप निर्मल गंग का<br />
पाप मैं संगम पे अब धोता नहीं।<br />
<br />
जब से जानी है विवशता बाप की,<br />
बात मनवाने को वो रोता नहीं। <br />
<br />
हैं सभी तो व्यस्त 'राही' गॉंव में<br />
मत शिकायत कर अगर श्रोता नहीं।<br />
<br />
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरीतिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com53tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-83332926164072969382010-09-11T10:37:00.000-07:002010-09-11T10:37:16.623-07:00ईद मुबारक<style type="text/css">
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body {
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}
-->
</style><br />
<table border="1" style="width: 400px;"><tbody>
<tr><td background="file:///C|/Users/User1/Documents/Desktop/Taj-ul-Masazid.JPG" height="300"></td></tr>
<tr><td>दो तीन दिन से मन में विचार चल रहा था कि ईद के मुबारक मौके पर एक ग़ज़ल ब्लॉग पर लगाई जाये। बहुत कोशिश करने पर भी सफ़ल नहीं रहा तो एक बार फिर मदद मिली कभी पढ़ी हुई एक ग़ज़ल से जिसका बस यही एक मिसरा याद रहा है कि 'मिलें क्यूँ न गले फिर शंभु और सत्तार होली में' । किसकी ग़ज़ल है यह याद नहीं। बस इसी को आधार बना कर कुछ भावनायें व्यक्त करने की कोशिश की है। <br />
<br />
बेटे को फोटोग्राफ़ी का शौक है, सुब्ह-सुब्ह निकल पड़ा भोपाल की शान 'ताज-उल-मसाजि़द' की ओर। उसी का लिया एक फ़ोटोग्राफ़ लगा रहा हूँ, और फ़ोटो देखना चाहें तो फ़ेसबुक पर निशांत कपूर को तलाश लें। <br />
<br />
ग़ज़ल <br />
<br />
नहीं कुछ और दिल को चाहिये इस बार ईदी में<br />
खुदा तू जोड़ दे इंसानियत के तार ईदी में। <br />
<br />
तेरी नज़्रे इनायत से न हो महरूम कोई भी<br />
सभी के नेक सपने तू करे साकार ईदी में। <br />
<br />
न कोई ग़म किसी को हो दुआ दिल से मेरे निकले<br />
गले सबसे मिले खुशियों भरा संसार ईदी में। <br />
<br />
रहे न फ़र्क कोई मंदिर-ओ-मस्जि़द औ गिरजा में<br />
सभी मिलकर सजायें उस खुदा का द्वार ईदी में। <br />
<br />
मुहब्बत ही मुहब्बत के नज़ारे हर तरफ़ देखूँ<br />
खुदा निकले दिलों से इक मधुर झंकार ईदी में। <br />
<br />
मिटाकर नफ़्रतों को भाईचारे की इबादत हो<br />
करें इंसानियत का मिल के सब श्रंगार ईदी में। <br />
<br />
खुदा से मॉंगता आया है पावन ईद पर ‘राही’<br />
बढ़ा दिल में सभी के और थोड़ा प्यार ईदी में। <br />
<br />
तिलक राज कपूर ‘राही’ ग्वालियरी </td></tr>
</tbody></table>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com54tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-27117856244338469522010-08-15T09:48:00.000-07:002010-08-15T09:48:31.814-07:00आतंकवादी की फरमाईश पर ग़ज़ल-2<style type="text/css">
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-->
</style><br />
आतंकवादी तो बड़ा शरीफ़ निकला; मेरी व्यस्तता की स्थिति से समझौता कर सब्र से बैठा हुआ है। मेरा दिल नहीं माना। सोचा इस अवकाश का लाभ लेकर कुछ मुहब्बत भरी बात कही जाये। बस पेश है। <br />
<br />
ग़ज़ल को सामान्यतय: कोई शीर्षक नहीं दिया जाता है लेकिन मुझे लगता है कि इस ग़ज़ल में यह गुँजाईश है। इसका हर शेर मुहब्बत की ही बात कहता है और हर शेर में मुहब्बत शब्दश: अलग रंग लिये हुए मौज़ूद है। इस ग़ज़ल का हर काफि़या उर्दू से है। जहाँ हिन्दी भाषियों को कठिनाई हो सकती है वहॉं सुविधा के लिये उर्दू शब्द का अर्थ सम्मिलित कर लिया है। <br />
<span class="style1">मुहब्बत</span><br /><br />
मुहब्बत के उसमें दिखे ये निशाँ से<br />
खयालों में ग़ुम बेखुदी इस जहाँ से।<br />
(निशाँ- निशान; जहाँ- दुनिया)<br /><br />
मुहब्बत में पाये हर इक आस्ताँ से,<br />
गिले, शिकवे, ताने सभी की ज़बाँ से। <br />
(आस्ताँ- दहलीज़, ड्यौढ़ी; ज़बाँ - जिव्हा, जीभ)<br /><br />
कोई मर मिटेगा, मुहब्बत में तेरी<br />
अगर तीर छोड़ा नयन की कमाँ से। <br /><br />
बदलता ही रहता है ये रंग अपने<br />
सम्हल कर मुहब्बत करो आस्माँ से।<br /><br />
भला किसकी खातिर हो दौलत के पीछे<br />
मुहब्बत तो मिलती नहीं है दुकाँ से।<br /><br />
वतन की हिफ़ाजत में वर्दी पहन कर<br />
मुहब्बत न हमने करी जिस्मो-जाँ से।<br /><br />
मुहब्बत तो मॉंगे है ज़ज्ब: दिलों का<br />
सितारे न चाहे कभी कहकशाँ से।<br />
(कहकशाँ- आकाश गंगा)<br /><br />
समाया हुआ है मज़ा इसमें लेकिन <br />
मुहब्बत न करना ज़मीन-ओ मकाँ से।<br /><br />
मुहब्बत को पर्वाज़ देने चला हूँ<br />
इज़ाज़त तो ले लूँ मैं उस मेह्रबाँ से।<br />
(पर्वाज़- उड़ान)<br /><br />
बने फ़स्ले-गुल से मुहब्बत के नग़्मे<br />
नयी रंगो-बू फिर उठी गुलिस्ताँ से।<br />
(फ़स्ले-गुल-बसंत ऋतु; रंगो-बू- रंग और सुगंध; गुलिस्ताँ-उद्यान, वाटिका)<br /><br />
डराने से पीछे हटी न मुहब्बत,<br />
लड़ी है हमेशा ये दौरे-ज़माँ से।<br />
(दौरे-ज़माँ- ज़माने का समय या काल)<br /><br />
अगर तल्ख़ लगती है तुमको मुहब्बत<br />
कला इसकी सीखो किसी कारदाँ से। <br />
(तल्ख़- कड़वी, अरुचिकर; कारदाँ- अनुभवी)<br /><br />
इबादत मुहब्बत की करने चला तो,<br />
मिले मुझको 'राही' सभी यकज़बाँ से।<br />
(इबादत- आराधना, पूजा; यकज़बाँ- सहमत, एकराय) </p><p>तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी</p>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com49tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-8203947309765334822010-06-20T12:29:00.000-07:002010-06-20T12:29:25.128-07:00एक आतंकवादी की फरमाईश पर ग़ज़ल<style type="text/css">
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color: #0000CC;
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}
-->
</style><br />
<p>अभी हाल ही में मैं एक आतंकवादी गतिविधि का शिकार हुआ हूँ जिसका विवरण आपसे बॉंटना जरूरी है। हमला चैट पर हुआ जिसकी पूरी प्रति इस प्रकार है। <br><br />
<span class="style1">शुक्रवार दिनांक 19 जून 2010</span><br />
आतंकवादी: आपको सूचित किया जाता है कि 24 घंटे के अन्दर 'रास्ते की धूल' पर एक ग़ज़ल लगाना है आपको, अगर ऐसा न किया तो आप पर देर तक तरसाने का आरोप लगाते हुए एक हफ़्ते में एक ग़ज़ल लगाने का जुर्माना लगाया जा सकता है; और आपको यह मानना होगा।<br />
मैं: यह तो आतंकवादी हमला है।<br />
आतंकवादी: बतादूँ कि आपको हर हफ़्ते एक ग़ज़ल दो महीने तक लगानी पड़ेगी।<br />
<span class="style1">शनिवार दिनांक 20 जून 2010</span><br />
आतंकवादी: आपको सूचित किया जाता है कि नोटिस जारी होने के बावजूद आपने रास्ते कि धुल पर नई पोस्ट नहीं लगाई, अब आपको हर हफ्ते एक गजल पोस्ट करनी है, और ऐसा २ महीने तक करना है, ऐसा ना होने पर आवश्यक कार्यवाही की जायेगी<br />
मैं: हम सच्चे हिन्दुस्तानी, आतंकवादी धमकियों से नहीं डरते। हॉं फिरौती में एकाध ग़ज़ल में सौदा पटता हो तो बोलो।<br />
आतंकवादी: फिरौती का समय निकल चुका है<br />
मैं: तो ले जाओ हमें ही, हम तो बंधक बनने को तैयार हैं।<br />
आतंकवादी: हा हा हा, आपको बंधक बनाना हमें भारी पड़ जाएगा, हमें तो आपकी गजल चाहिए<br />
मैं: कल संभव है। आज तो अभी रात के 2-3 बज जायेंगे आफिस के काम में ही।<br />
आतंकवादी: तो ठीक है इस हफ्ते की गजल कल, फिर अगले हफ्ते १ गजल, फिर उसके अगले हफ्ते १, फिर अगले में १, ठीक है न।<br />
मैं: ग़ज़ल के शेर ऐ लोगो निकाले कब निकलते हैं, कभी चुटकी में बन जायें कभी इक याम लग जाये।<br />
आतंकवादी: ये सब नहीं चलेगा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा<br />
मैं: वस्तुत: इस समय मुझे एक अत्यंत महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा गया है जिसमें दो तीन महीने व्यवस्था बनाने में लग जायेंगे, फिर संभव है कुछ समय के लिये आराम रहे।<br />
आतंकवादी: ओह ऐसा, बहुत बढ़िया<br />
मैं: लोक सेवक होने के नाते पहले पब्लिक की बजानी जरूरी है, जनता जो तनख्वाह देती है उसका कर्जा उतारने के मौके कम मिलते हैं।<br />
आतंकवादी: ये भी सही है। ठीक है कल गजल का इंतज़ार करते हैं<br />
मैं: ये हुई न अच्छे बच्चों वाली बात। ठीक है। अलविदा।<br />
आतंकवादी: नमस्ते</p><p>मैं इस आतंकवादी से भयभीत नहीं हूँ और दुआ करता हूँ कि हर आतंकवादी ऐसा ही हो जाये। मेरी दुआ दिल से है यह सिद्ध करने के लिये उसकी दिली फरमाईश पूरी कर रहा हूँ। अब अल्प समय में एक नयी ग़ज़ल तैयार हो जाये ये हमेशा संभव तो नहीं होता लेकिन जो कुछ कच्चा-पक्का बन सका परोस रहा हूँ, इस आशा के साथ कि इस आतंकवादी के विचार मात्र दो महीने का समय मुझे दे दें फि़र पूरे जोशोखरोश के साथ लौटता हूँ। </p><p><span class="style2">ग़ज़ल</span><br />
कल तक जो लड़ रहे थे किसी दक्ष की तरह<br />
निस्तेज हो गये हैं वही सक्ष की तरह। <span class="style5">सक्ष: पराजित</span><br><br />
कपड़ों के, रोटियों के, मकानों के वास्ते<br />
कुछ प्रश्न पूछते हैं सभी, यक्ष की तरह। <br><br />
ढूँढी तमाम उम्र, जगह मिल सकी न मॉं,<br />
सुख दे सके मुझे जो तेरे वक्ष की तरह।<br><br />
सर रख के फाईलों पे कई सो रहे यहॉं,<br />
दफ़्तर समझ रखा है शयन-कक्ष की तरह।<br><br />
वो वक्त और था, वो ज़माना ही और था,<br />
हम भी थे सल्तनत में कभी अक्ष की तरह।<br><br />
संसद सा हो गया है मेरा घर ही आजकल,<br />
गुट बन गये हैं पक्ष और विपक्ष की तरह।<br><br />
क्यूँकर ये चॉंद भी है अजब हरकतों में ग़ुम<br />
लगता है पक्ष शुक्ल, कृष्ण-पक्ष की तरह।<br><br />
है आपको खबर कि ज़हर से बनी हैं ये<br />
क्यूँ बेचते हैं आप इन्हें भक्ष की तरह। <span class="style5">भक्ष: खाने का पदार्थ</span> <br><br />
क्यूँ कर न आपकी ही शरण में बसे रहें<br />
हमको तुम्हारा एक करम, लक्ष की तरह। <span class="style5">लक्ष: एक लाख; सौ हजार</span><br><br />
जज़्बा यही है, अपनी इबादत यही रही<br />
हम देश से जुड़े हैं किसी रक्ष की तरह। <span class="style5">रक्ष: रक्षक, रखवाला</span><br><br />
अच्छी भली ग़ज़ल है, सुनाते नहीं हैं क्यूँ<br />
'राही' छिपाईये न इसे मक्ष की तरह। <span class="style5">मक्ष: अपने दोष को छिपाना</span><br><br />
<span class="style6">तिलकराज कपूर 'राही' ग्वालियरी</span></p>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com32tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-26896477781485711722010-05-04T11:42:00.000-07:002010-05-05T04:49:26.649-07:00बह्र-ए-हज़ज़ मुसम्मन् सालिम पर एक ग़ज़ल<style type="text/css">
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-->
</style><br />
<p>इस ब्लॉग पर मैं एक से ज्यादह पोस्ट एक माह में लगाने का इच्छुक नहीं पर परिस्थिति कुछ ऐसी बनी है कि इस बार बहुत कम अंतराल से एक नयी ग़ज़ल लगानी पड़ गयी। हुआ यूँ कि मेरे ही एक अन्य ब्लॉग 'कदम-दर-कदम' पर चर्चा के लिये जो ग़ज़ल प्राप्त हुई उसका हल निकालना एवरेस्ट पर चढ़ाई जैसा काम हो गया और एक उदाहरण ग़ज़ल लगाने की विवशता हो गयी जिससे उसपर काम करना व्यवहारिक हो सके। यह ग़ज़ल विशेष रूप से इसी के लिये कही गयी है। इसकी बह्र मफाईलुन् (1222 x 4) की आवृत्ति से बनी बह्र-ए-हज़ज़ मुसम्मन् सालिम है <br />
<br />
</p><p class="style2">ग़ज़ल</p><p>हमारे नाम लग जाये, तुम्हारे नाम लग जाये<br />
मुहब्बत में न जाने कब कोई इल्ज़ाम लग जाये।</p><p>तुम्हारी याद ने मिटना है गर इक जाम पीने से <br />
कभी पी तो नहीं लेकिन लबों से जाम लग जाये। </p><p>मेरी हर सॉंस पर लिक्खा तेरा ही नाम है दिलबर<br />
दुपहरी थी तुम्हारे नाम पर अब शाम लग जाये। </p><p>न भाषा की, न मज़्हब की कोई दीवार हो बाकी<br />
गले रहमान के तेरे, जो मेरा राम लग जाये।</p><p>करिश्मा ही कहेंगे लोग, कुदरत का अगर देखें<br />
बबूलों में पले इक नीम में गर आम लग जाये।</p><p>जवॉं बहनें, रिटायर बाप, कबसे आस रखते हैं<br />
खुदाया घर के बेटे का कहीं तो काम लग जाये। </p><p>ग़ज़ल के शेर ऐ लोगों निकाले कब निकलते हैं<br />
कभी चुटकी में ये निकलें, कभी इक याम लग जाये।</p><p>किसानों की इबादत तो यही ऐ दोस्त होती है<br />
फसल की चौकसी करना भले ही घाम लग जाये।</p><p>अगर दुश्मन हुआ जीवन तो चल इक काम हम करलें<br />
इबादत में इसी की ये दिले बदनाम लग जाये।</p><p>सुना है ख़ौफ़ सा लगने लगा है आज संसद में<br />
वहॉं की लाज रखने में कोई बन श्याम लग जाये।</p><p>कई फाके बिताकर दिल मेरा कहने लगा 'राही'<br />
चलें बाज़ार में शायद हमारा दाम लग जाये। </p>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com42tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-65762385791494055862010-04-30T12:03:00.000-07:002010-04-30T12:07:07.381-07:00ये न पूछो कि कैसे कटी जि़न्दगी<span style="color: #073763;">मध्यप्रदेश राज्य के मालवॉंचल में स्थित है आगर-मालवा, एक छोटा सा कस्बा। सरल जनजीवन और अपने-अपने काम में लगे रहने वाले सरल लोगों का सान्निध्य प्राप्त हुआ मुझे वर्ष 1983 से 1985 की अवधि में। वहीं मेरे एक सहकर्मी थे मनहर 'परदेसी', गीत और काव्य लिखते थे। कुछ स्थानीय सहयोग और कुछ उनके प्रयास आधार रहे 'प्रतिभा काव्य मंच' के गठन के। यह मंच परदेसी जी की गीत पुस्तिका के साथ ही निष्प्राण हो गया लेकिन लगभग डेढ़ दो वर्ष के जीवनकाल में मुझे अच्छे अवसर प्रदान कर गया। इसी मंच में जनाब मोहसिन अली रतलामी का स्नेह मुझे मिला और उन्होंने मेरी पहली ग़ज़ल पर इस्स्लाह दी। जो उन्हें ज्ञात था उसपर मेरा पूराहक़ था जानने का। सुना है उनका इंतकाल हो चुका है, परवरदिगार ने उनकी रूह को निश्चित ही ज़न्नत बख्शी होगी। शायद 1984 की सर्दियॉं थीं, इसी मंच ने एक कवि सम्मेलन आयोजित किया था जिसमें सोम ठाकुर जी, जनाब अज़हर हाशमी, जनाब अख़्तर ग्वालियरी और कई अन्य ने भाग लिया।</span><br />
<span style="color: #274e13;">अज़हर हाशमी साहब जब पढ़ने को खड़े हुए तो आवजें आने लगीं 'चाय की चुस्कियॉं'-'चाय की चुस्कियॉं'। मुझे समझने में दो मिनट लगे होंगे कि ये उनकी कोई मशहूर ग़ज़ल है। ग़ज़ल थी: </span><br />
<span style="color: #351c75;">चाय की चुस्कियों में कटी जि़न्दगी, </span><br />
<span style="color: #274e13;"><span style="color: #351c75;">प्यालियों, प्यालियों में बँटी जि़न्दगी।</span> </span><br />
<span style="color: #274e13;">अज़हर हाशमी साहब की आवाज़ का जादू ही कहूँगा कि चाय की चुस्कियॉं दिमाग़ छोड़ने को तैयार ही नहीं, सुब्ह चार बजे तक कवि सम्मेलन चला, फिर सोम ठाकुर जी को विदा कर करीब 8 बजे जब फुर्सत मिली तो रुका नहीं गया और मेरे अंदर का शाइर जाग गया। शाम तक ग़ज़ल पूरी हो चुकी थी। आज वही ग़ज़ल प्रस्तुत है, बहुत कुछ भूल चंका हूँ, लगभग आधे शेर दुबारा कहे हैं। यह ग़ज़ल हमेशा चाय की चुस्कियों को समर्पित रही है, आज भी है। तक्तीअ करने पर कुछ पंक्तियॉं बह्र से बाहर लगती हैं, लेकिन स्वरों का खेल है ये, गेयता में बाहर कुछ भी नहीं।</span><br />
<br />
<span style="color: #660000;">इसकी बह्र है फायलुन, फायलुन, फायलुन, फायलुन यानि 212, 212, 212, 212</span><br />
<br />
<span style="color: #0c343d;">ग़ज़ल</span><br />
<span style="color: #274e13;">ये न पूछो कि कैसे कटी जि़न्दगी,</span><br />
<span style="color: #274e13;">कितने धागों से हमने बटी जि़न्दगी।</span><br />
<br />
<span style="color: #274e13;">कुछ सपन लेके आगे सरकती रही</span><br />
<span style="color: #274e13;">उड़ न पाई कभी परकटी जि़न्दगी।</span><br />
<br />
<span style="color: #274e13;">कोई सुख जो मिला तो हृदय ने कहा</span><br />
<span style="color: #274e13;">लग रही है मुझे अटपटी जि़न्दगी।</span><br />
<br />
<span style="color: #274e13;">कल की यादें कभी, कल के सपने कभी,</span><br />
<span style="color: #274e13;">आज को भूलकर क्यूँ कटी जि़न्दगी।</span><br />
<br />
<span style="color: #274e13;">हैं क्षितिज हमने कितने ही देखे यहॉं</span><br />
<span style="color: #274e13;">है शिखर, है कभी तलहटी जि़न्दगी।</span><br />
<br />
<span style="color: #274e13;">करवटें, करवटें ही बदलती रही</span><br />
<span style="color: #274e13;">जि़न्दगी भर मिरी करवटी जि़न्दगी।</span><br />
<br />
<span style="color: #274e13;">धूप में खेलती, मेह में खेलती,</span><br />
<span style="color: #274e13;">याद आती है वो नटखटी जि़न्दगी।</span><br />
<br />
<span style="color: #274e13;">धूल राहों पे खाई तो समझा है ये,</span><br />
<span style="color: #274e13;">रोग है जि़न्दगी, है वटी जि़न्दगी।</span><br />
<br />
<span style="color: #274e13;">सत्य अन्तिम है क्या जान पाई नहीं,</span><br />
<span style="color: #274e13;">देह से ही हमेशा सटी जि़न्दगी।</span><br />
<br />
<span style="color: #274e13;">मौत आई तो इक शब्द लिख न सके</span><br />
<span style="color: #274e13;">उम्र के हाशिये से फटी जि़न्दगी।</span><br />
<br />
<span style="color: #274e13;">हम भी 'राही' बने साथ चलते रहे,</span><br />
<span style="color: #274e13;">राह अपनी न इक पल हटी जि़न्दगी।</span>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com29tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-15944138948219991532010-04-21T23:05:00.000-07:002010-05-05T05:11:43.894-07:00एक नज़्म- मॉं की याद में<span style="color: #4c1130;">मॉं, एक शब्द है, एक तसव्वुर है, एक एहसास है, जिससे शायद ही कोई रचनाधर्मी अछूता रहा हो। बहुत कुछ लिखा गया है 'मॉं' को केन्द्रीय पात्र मानकर। फिर भी कुछ न कुछ नया कहने की संभावना बनी रहती है।</span><br />
<span style="color: #20124d;">आज प्रस्तुत नज़्म जब कही थी तब मेरी 'मॉं' का भौतिक अस्तित्व था, अब नहीं। इसे 27 मार्च को उनकी चौथी पुण्यतिथि पर पोस्ट करने का इरादा था लेकिन परिस्थितियॉं कुछ ऐसी रहीं कि ऐसा करना संभव न हो सका। आज 22 अप्रैल को उनके जन्मदिवस के स्मरण के रूप में अवसर बना है इसे पोस्ट करने का।</span><br />
<span style="color: #073763;">वज़ीर आग़ा साहब की एक ग़ज़ल पढ़ी थी करीब 30 वर्ष पहले जिसके दो शेर दिल में बस गये थे कि:</span><br />
<span style="color: #073763;">मैला बदन पहन के न इतना उदास हो</span><br />
<span style="color: #073763;">लाजि़म कहॉं कि सारा जहां खुशलिबास हो।</span><br />
<span style="color: #073763;">और</span><br />
<span style="color: #073763;">इतना न पास आ कि तुझे ढूँढते फिरें</span><br />
<span style="color: #073763;">इतना न दूर जा कि हम:वक्त पास हो।</span><br />
<span style="color: #073763;">इस दूसरे शेर से आभार सहित एक भाव लिया है प्रस्तुत नज़्म में।</span><br />
<span style="color: #274e13;">मैं; यूँ तो नज़्म नहीं कहता, मुझसे हो नहीं पाता, बहुत कठिन काम है; लेकिन न जाने कब किस हाल में कुछ शब्द ऐसा रूप ले सके जिन्हें एक नज़्म के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्रबुद्ध पाठक ही बता पायेंगे कि ये नज़्म है या नहीं।</span> <br />
<span style="color: #660000;">बहुत धीरे से देकर थपकियॉं मुझको सुलाती थी,</span><br />
<span style="color: #660000;">कभी मैं रूठ जाता था तो अनथक वह मनाती थी।</span><br />
<span style="color: #660000;">नज़र से दूर जो जितना, वो दिल के पास है उतना,</span><br />
<span style="color: #660000;">ये रिश्ता दूरियों का वो मुझे अक्सर बताती थी।</span><br />
<span style="color: #660000;">अभी कुछ देर पहले ही</span><br />
<span style="color: #660000;">जो उसकी याद का झोंका</span><br />
<span style="color: #660000;">ज़ेह्न के पास से गुजरा</span><br />
<span style="color: #660000;">मुझे ऐसा लगा जैसे</span><br />
<span style="color: #660000;">कहीं वो मुस्कुराई है,</span><br />
<span style="color: #660000;">मगर वो दूर है इतनी</span><br />
<span style="color: #660000;">कि मुझ तक आ नहीं सकती।</span><br />
<span style="color: #660000;">मगर वो दूर है इतनी कि मुझ तक आ नहीं सकती,</span><br />
<span style="color: #660000;">बस उसकी याद आई है, बस उसकी याद आई है।</span>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-72775502081254419402010-04-02T11:41:00.000-07:002010-04-02T11:41:26.441-07:00उसके मेरे दरम्यॉं यूँ फ़ासला कुछ भी नहीं<span style="color: #38761d;">एक दिन गौतम राजऋषि के ब्लॉग पर गया तो कुमार विनोद की एक ग़ज़ल पढ़ने को मिली, अच्छी लगी। दिल ने कहा कि इसी तरह की ग़ज़ल कहनी है। दिल ने कहा तो दिमाग़ ने भी पूरा सहयोग देने का वादा किया और एहसासों को निमंत्रण भेज दिया कि भाई आओ तो कुछ कहें। एहसास ग़ज़ल की ओर बढ़ते दिखे तो शब्द कहॉं रुकते, उनके बिना तो एहसास व्यक्त हो नहीं सकते, सो वो भी चले आये और लीजिये ग़ज़ल हो गई तैयार।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">नीरज भाई से चर्चा हुई तो उन्होंने बताया कि इसी रदीफ़ काफि़ये और बह्र पर राजेश रेड्डी जी ने भी एक ग़ज़ल कही थी जिसे जगजीत सिंह जी ने आवाज़ दी। जगजीत सिंह जी जिस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ देने को तैयार हो जायें उसके एहसासात के बारे में कहने कुछ नहीं रह जाता है। </span><br />
<span style="color: #b45f06;">मेरा प्रयास प्रस्तुत है:</span><br />
<br />
उसके मेरे दरम्यॉं यूँ फ़ासला कुछ भी नहीं<br />
सामने बैठा था पर उसने कहा कुछ भी नहीं।<br />
<br />
उसका ये अंदाज़ मेरे दिल पे दस्तक दे गया<br />
लब तो खुलते हैं मगर वो बोलता कुछ भी नहीं।<br />
<br />
न तो मेरे ख़त का उत्तर, न शिकायत, न गिला,<br />
क्या हमारे बीच में रिश्ता बचा कुछ भी नहीं।<br />
<br />
देर तक सुनता रहा वो दास्ताने ग़म मिरी,<br />
और फिर बोला कि इसमें तो नया कुछ भी नहीं।<br />
<br />
बिजलियॉं कौंधी शहर में, बारिशें होने लगीं,<br />
जिसने थे गेसू बिखेरे जानता कुछ भी नहीं।<br />
<br />
लोग दब कर मर गये, सोते हुए फुटपाथ पर,<br />
और तेरे वास्ते, ये हादसा कुछ भी नहीं।<br />
<br />
देश में गणतंत्र को कायम भला कैसे करें, <br />
रोज मंथन हो रहे हैं, हो रहा कुछ भी नहीं।<br />
<br />
उसकी हालत में हो कुछ बदलाव, ये कहते हुए<br />
बह गयीं नदियॉं कई, हासिल हुआ कुछ भी नहीं।<br />
<br />
सुब्ह से विद्वान कुछ, सर जोड़ कर बैठे हैं पर,<br />
मैनें पूछा तो वो बोले मस्अला कुछ भी नहीं ।<br />
<br />
कौनसे मज़हब का सड़को पर लहू बिखरा है ये<br />
जिससे पूछो, वो कहे, मुझको पता कुछ भी नहीं।<br />
<br />
तुम जो ऑंखें भी घुमाओ, ये शहर घूमा करे,<br />
मैं अगर चीखूँ भी तो मेरी सदा कुछ भी नहीं।<br />
<br />
उसको ईक कॉंटा चुभा तो कट गये जंगल कई<br />
और वो कहता है कि उसकी ख़ता कुछ भी नहीं।<br />
<br />
इतने रिश्ते खो चुका 'राही' कि अब उसके लिये <br />
दर्द की गलियों की ये तीखी हवा कुछ भी नहीं।<br />
<br />
<span style="color: #990000;">बह्र: फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फायलुन (2122, 2122, 2122, 212)</span><br />
<span style="color: #20124d;">तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी</span>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com33tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-3329106737229709182010-03-14T09:25:00.000-07:002010-03-14T09:25:11.335-07:00अशआर की महफि़ल में ....<span style="color: #274e13;"><br />
आज जो ग़ज़ल प्रस्तुत है उसमें नया कुछ नहीं है। ये ग़ज़ल सिर्फ एक माध्यम है उन दृश्यों को प्रस्तुत करने का जो हमारे आस-पास हैं, हम देख रहे हैं, सुन रहे हैं, और कुछ हद तक जी रहे हैं। मैं स्वयं निपट अज्ञानी, किसी भटके हुए को राह दिखाने का प्रयास नहीं कर रहा लेकिन अगर किसी को यह एहसास हो कि इन अशआर के किसी भी दृश्य को सुधारने के लिये वो कुछ कर सकता है तो शायद यही एक नयी शुरुआत हो उसके कर्मक्षेत्र की। इस ग़ज़ल के अशआर अगर किसी को सोचने पर मजबूर कर सके और कुछ सकारात्मक करने के लिये प्रेरित कर सके तो इसे कहने का मेरा उद्देश्य पूरा हो जाता है।</span><br />
<br />
<span style="color: #660000;"><br />
अशआर की महफि़ल में आई ये ज़मीनें देखिये<br />
दृश्य जो चारों तरफ़ हैं, आज इनमें देखिये।<br />
<br />
देह के बाज़ार में सदियों से बिकती आ रहीं<br />
वक्त की मारी हुई, सहमी ये चीज़ें देखिये।<br />
<br />
सिर्फ़ आधे पेट में, दिन रात खट लेती हैं ये,<br />
आदमी के रूप में जि़दा मशीनें देखिये।<br />
<br />
एक कपड़ा मिल गया तो खुश ये बच्चे हो गये,<br />
इनके कद से भी बड़ी इनकी कमीज़ें देखिये।<br />
<br />
आपको दिखता नहीं क्यूँ, खून से मक्तूल के<br />
तरबतर हैं कातिलों की आस्तीनें देखिये।<br />
<br />
पास में थाना है पर, उनका इलाका ये नहीं,<br />
देखकर लुटती हुई अस्मत ना आयें देखिये।<br />
<br />
पद की गरिमा छोड़कर ईमान भी बिकने लगा<br />
दफ़्तरों में सज गयीं इसकी दुकानें देखिये।<br />
<br />
भर लिया सामान सातों पीढि़यों की भूख का,<br />
पर भटकती फिर रहीं इनकी निगाहें देखिये।<br />
<br />
उसने आज़ादी हमें, लौटाई इस अंदाज़ से,<br />
भाइयों में पड़ गयीं गहरी दरारें देखिये।<br />
<br />
छॉंटकर मासूम दिल, ये ज़ह्र ज़ेह्नों में भरें,<br />
मज़्हबी रंगत की ज़हरीली हवायें देखिये।<br />
<br />
कुछ ग़रीबों के लिये 'राही' मदद ये आयी थी<br />
खा गये जो लोग, बिल्कुल ना लजायें देखिये।</span><br />
<br />
<span style="color: #20124d;"><br />
पिछली ग़ज़ल पर बह्र को लेकर जिज्ञासा प्रस्तुत की गयी थी अत: मात्र उस जिज्ञासा के संदर्भ में इसकी बह्र का विवरण प्रस्तुत है:</span><br />
<span style="color: #783f04;"><br />
(फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलुन)x2 या (2122, 2122, 2122, 212) x2</span>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com32tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-79600987587076334122010-02-27T08:09:00.000-08:002010-02-27T08:28:35.733-08:00होली की शुभकामनायें<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAgHBXGmbh02DlXEn6es5W5ed6-5o4MX2_M6RmNewdOb2vludsPI0TvVKD4ndEqEzUNYJrz_iZUQIHmYdj5hOot94s06ShXjJbBwrF67XNLRTXnkpt4Ous11Ryak4nICAvzDMCvSYPBTU/s1600-h/Holi.gif" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAgHBXGmbh02DlXEn6es5W5ed6-5o4MX2_M6RmNewdOb2vludsPI0TvVKD4ndEqEzUNYJrz_iZUQIHmYdj5hOot94s06ShXjJbBwrF67XNLRTXnkpt4Ous11Ryak4nICAvzDMCvSYPBTU/s320/Holi.gif" /></a><span style="color: #783f04; font-size: small;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><span style="color: #4c1130;">एक विशेष आग्रह आया बिटिया की ओर से कि सूखी होली की बात हो ऐसा कम से कम एक शेर भेज दें। गंभीर समस्या। मुझे याद आ गयी भक्त कुंभनदास की। </span><br />
<span style="color: #20124d;">बताते हैं कि भक्त कुंभनदास सदैव गिरधर भक्ति में लीन रहते थे और इसमें व्यवधान उन्हें पसंद नहीं था।</span> </span></span><br />
<div style="color: #073763;"><span style="font-size: small;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">बादशाह अकबर ने जब इनके भक्तिगान की प्रशंसा सुनी तो बेताब हो गये सुनने को। राजाज्ञा जारी हो गयी कि भक्त कुंभनदास दरबार में उपस्थित होकर गायन प्रस्तुत करें। भक्त कुंभनदास ने मना कर दिया। अंतत: राजहठ की स्थिति पैदा हो गयी तो लोकहित में स्वीकार कर लिया दरबार में आने को लेकिन यह शर्त रखी कि राजा की भेजी सवारी में न आकर पैदल ही आयेंगे।</span></span></div><div style="color: #0c343d;"><span style="font-size: small;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">पैदल ही पहुँचे और जब गायन का निर्देश हुआ तो कहा कि भजन तो मन से होता है किसी के कहने से नहीं। अंतत: बीरबल की चतुराई ने मना तो लिया लेकिन बात मन की ही निकली:</span></span></div><div style="color: #274e13;"><span style="font-size: small;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">भगत को सीकरी सौं का काम।<br />
आवत जात पनहिया टूटी बिसरि गयो हरि नाम।<br />
जाको मुख देखे दुख उपजत ताको करनो परत सलाम।<br />
कुम्भनदास लाला गिरिधर बिन यह सब झूठो धाम।</span></span></div><div style="color: #660000;"><span style="font-size: small;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">(कहा जाता है कि बादशाह अकबर का चेहरा सुंदर नहीं था।)</span></span></div><span style="color: #783f04; font-size: small;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">मेरे साथ ऐसा स्थिति साम्य तो नहीं। मैं तो भक्त कुंभनदास के चरणरज भी पा लूँ तो स्वयं को धन्य समझूँ। अशआर तो खुद-ब-खुद निकलते हैं, निकालो तो कुछ बन जरूर जाता है लेकिन वो ग़ज़ल के पैमाने पर खरे उतरें ये जरूरी नहीं। यहॉं बात राजहठ की ना होकर पुत्री के निवेदन की थी और वो भी व्यापक संदर्भ में, सो कोशिश की और जो परिणाम रहा वह प्रस्तुत है। अर्सा पहले पढ़ा एक मिसरा याद आ गया जो इसमें मददगार रहा है। मिसरा था <b style="color: #351c75;">'</b></span></span><b style="color: #351c75;">मिले क्यूँ ना गले फिर शम्भू औ सत्तार होली में।' </b><br />
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12pt;"><span style="color: #783f04; font-size: small;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"> <span style="color: #660000;">किसका कहा हुआ मिसरा है, मुझे याद नहीं, हॉं मददगार रहा सो </span></span></span><span style="color: #660000; font-size: small;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;">हृदय से </span></span><span style="color: #783f04; font-size: small;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><span style="color: #660000;">आभारी हूँ यह संकटमोचक मिसरा कहने वाले का। यही स्थिति उपयोग किये गये चित्र की है जो मेल में प्राप्त हुआ था। इसके भी मूल रचयिता का हृदय से आभारी हूँ। </span></span></span></div><div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12pt;"><span style="color: #660000;"></span></div><div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12pt;"><div style="color: #990000;">दिलों के बीच ना बाकी बचे दीवार, होली में<o:p></o:p></div><span style="font-size: small;"><span lang="HI" style="color: #990000; font-family: Mangal;"> उठे सबके दिलों से एक ही झंकार, होली में।</span><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12pt;"><span style="font-size: small;"><span lang="HI" style="color: #783f04; font-family: Mangal;">जरा तो सोचिये पानी की किल्लत हो गयी कितनी<o:p></o:p><br />
ना गीले रंग की अब कीजिये बौछार, होली में। </span><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12pt;"><span style="font-size: small;"><span lang="HI" style="color: #7f6000; font-family: Mangal;">गुलालों से भरी थाली लिये हम राह तकते हैं<o:p></o:p><br />
निकलता ही नहीं दिखता कोई इस बार होली में।</span><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12pt;"><span style="font-size: small;"><span lang="HI" style="color: #274e13; font-family: Mangal;">अजब ये शार्ट मैसेज का लगा है रोग दुनिया को<br />
कोई खत ही नहीं आता है अब त्यौहार होली में।</span><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12pt;"><span style="font-size: small;"><span lang="HI" style="color: #0c343d; font-family: Mangal;">चलो बस एक दिन को भूल जायें दर्द के नग़्मे <br />
खुशी के गीत गायें और बॉंटें प्यार होली में।</span><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12pt;"><span style="font-size: small;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal;"><span style="color: #073763;">समझ में कुछ नहीं आता कि इसका क्या करे कोई</span><o:p style="color: #073763;"></o:p><br style="color: #073763;" /><span style="color: #073763;">बजट लेकर नया ईक आ गयी सरकार होली में।</span><o:p></o:p></span></span></div><div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12pt;"><span style="color: #20124d; font-size: small;"><span lang="AR-SA" style="font-family: Mangal;">बहुत बेचैन है </span>‘<span lang="AR-SA" style="font-family: Mangal;">राही</span>’<span lang="AR-SA" style="font-family: Mangal;"> कोई खुशबू नहीं आती<br />
बहुत बेरंग लगता है भरा गुलज़ार होली में।</span></span></div><div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12pt;"><span style="color: #20124d; font-size: small;"><span lang="AR-SA" style="font-family: Mangal;">तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी </span></span><span style="font-size: small;"><span lang="HI"><o:p></o:p></span></span></div>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com31tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-7366053114227421532010-02-22T10:53:00.000-08:002010-02-22T11:11:06.988-08:00गॉंव ग़ुम शहर की ज़मीनों में<span style="background-color: white; color: #274e13;"><span style="color: #38761d;">यह ग़ज़ल मूलत: करीब 25 वर्ष पहले कही थी। वक्त के साथ भूल ही चुका था। ब्लॉग जगत की वज़ह से फिर याद ताज़ा हुई और मत्ले का शेर और उसके बाद के दो शेर ही याद के ज़खीरे से निकल पाये। बाकी अशआर नये सिरे से कहने की कोशिश की है। लगता है जो अशआर याद ना रहे वो प्रस्तुति लायक ना रहे होंगे इसलिये उपर वाले ने ही खारिज कर दिये और उनकी जगह नये अशआर दे दिये।</span> </span><br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #0b5394;">एक करिश्मा है जो मैं आप सबसे निश्चित तौर पर बॉंटना चाहता हूँ।</span><br />
<span style="color: #0b5394;">'आज पत्थर... ' वाला शेर जब मैनें सोचा तो मैनें 'तराशता' कहा था जो टाईप करते समय 'तलाशता' टाईप हो गया। बाद में एक मित्र के ध्यान दिलाने पर मैं सोचता रह गया कि ऐसा क्यूँ हुआ। तराशता ही मैं कहना चाहता था मगर इस टंकण त्रुटि ने एक जादू कर दिया है। फिर सोचा तो लगा कि अब मैं तलाशता को ईश्वर का करिश्मा मानने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। एक अच्छा नगीना तराशने के लिये एक अच्छा पत्थर होना जरूरी है। तो अब बात एक कदम और पीछे की हो गयी कि मैं कुछ पत्थर तलाश रहा हूँ जो कल नग़ीनों के रूप में पहचान बनायेंगे। तराशना तो दोनों ही हालत में है। तलाश वाले मामले में अच्छे पत्थर तलाश कर तराशने में औरों की मदद भी ली जा सकती है। इसको अगर ऐसे लें कि मेरी कोशिश अच्छे पत्थरों को अच्छे नगीनों में बदलने की प्रक्रिया में अपनी भूमिका निबाहने की है तो तलाशना ही ठीक है। मुझे लगता है कि यह टंकण-त्रुटि मुझसे करवाई गयी है तो इसका सम्मान करना चाहिये। लेकिन यह बात भी तय है कि तराशना सीधे-सीधे समझ में आने वाली बात है। </span><br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #274e13;">गॉंव ग़ुम शहर की ज़मीनों में,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #274e13;">आदमी खो गये मशीनों में।</span><br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #660000;">हर तरफ़ आग़ सी लगी क्यूँ है,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #660000;">देश के सावनी महीनों में।</span><br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #274e13;">आपका ये सफर ना तै होगा,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #274e13;">बैठ कर कागज़ी सफीनों में।</span><br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #660000;">आज पत्थर तलाशता हूँ, कल</span><br />
<span style="background-color: white; color: #660000;">ये गिने जायेंगे नग़ीनों में।</span><br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #274e13;">चंद लफ़्ज़ों में बात कहने की,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #274e13;">हमको आदत मिली ज़हीनो में।</span><br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #660000;">होश आने प ये समझ आया,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #660000;">नाग पाले थे आस्तीनों में।</span><br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #274e13;">दर्द 'राही' ने जी लिये तन्हा,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #274e13;">कब ये चर्चा हुआ मकीनों में।</span><br />
<br />
<span style="color: #20124d;">तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी</span>तिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com27tag:blogger.com,1999:blog-3626297793829921289.post-17283705782328638302010-02-14T00:24:00.000-08:002010-02-22T11:12:18.719-08:00एक रुक्न के मिसरे में ग़ज़लएक रुक्न के मिसरे में ग़ज़ल कहने का प्रयास मैं शायद कभी नहीं करता यदि गौतम राज ऋषि के ब्लॉग पर छोटी बह्र के रूप में वीनस ‘केसरी’ की एक रुक्न के मिसरे वाली ग़ज़ल का संदर्भ न मिलता। <br />
<br />
<br />
जब मैने ग़ज़ल कहना आरंभ किया था तब विद्वजनों ने बताया था कि पूर्ण ग़ज़ल में कम से कम सात शेर, (मतला और मक्ता सहित) आवश्यक होता है। कोशिश रहती है कि इस नियम का पालन कर सकूँ। <br />
रचनाकार का धर्म तो अभिव्यक्ति के साथ पूरा हो जाता है। गुणीजन तो वो हैं जो मर्म तक पहुँच जाते हैं। <br />
इस ग़ज़ल के मक्ते और उससे पहले के शेर पर हो सकता है आपत्ति आये लेकिन प्रयोगवादी ग़ज़लों विशेषकर मुज़ाहिफ शक्लों पर आमतौर से इतनी बारीकी से विवेचना नहीं होती है, इसलिये प्रयोग का साहस किया है।<br />
<br />
<span style="background-color: #f4cccc; color: #990000;">छोटी बह्र की ग़ज़ल</span><br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #0c343d;">चहरे देखे</span><br />
<span style="background-color: white; color: #0c343d;">पहरे देखे।</span><br />
<span style="background-color: white;"><br />
<span style="color: #0c343d;"></span></span><br />
<span style="background-color: white; color: #0c343d;">घाव, बहुत ही</span><br />
<span style="background-color: white; color: #0c343d;">गहरे देखे।</span><br />
<span style="background-color: white;"><br />
<span style="color: #0c343d;"></span></span><br />
<span style="background-color: white; color: #0c343d;">कानों वाले</span><br />
<span style="background-color: white; color: #0c343d;">बहरे देखे।</span><br />
<span style="background-color: white;"><br />
<span style="color: #0c343d;"></span></span><br />
<span style="background-color: white; color: #0c343d;">सारे वादे</span><br />
<span style="background-color: white; color: #0c343d;">ठहरे देखे।</span><br />
<span style="background-color: white;"><br />
<span style="color: #0c343d;"></span></span><br />
<span style="background-color: white; color: #0c343d;">हर सू झंडे</span><br />
<span style="background-color: white; color: #0c343d;">फहरे देखे।</span><br />
<span style="background-color: white;"><br />
<span style="color: #0c343d;"></span></span><br />
<span style="background-color: white; color: #0c343d;">मानक अक्सर</span><br />
<span style="background-color: white; color: #0c343d;">दुहरे देखे। </span><br />
<span style="background-color: white;"><br />
<span style="color: #0c343d;"></span></span><br />
<span style="background-color: white; color: #0c343d;">’राही’ ख्वाब</span><br />
<span style="background-color: white; color: #0c343d;">सुनहरे देखे।</span><br />
<br />
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरीतिलक राज कपूरhttp://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.com16