Wednesday, November 3, 2010

दीपोत्‍सव की बहुत-बहुत बधाई

मन में एक विचार आया कि क्‍यूँ न इस बार ‘दीपक’ को ही अभिव्‍यक्ति का माध्‍यम चुना जाये। प्रस्‍तुत ग़ज़ल में ‘दीपक’ के माध्‍यम से संयोजन का वही प्रयास है। मुझे काव्‍य के तत्‍वों का केवल आधार ज्ञान ही है इसलिये कहीं कुछ त्रुटि हुई हो तो आपकी टिप्‍पणी के माध्‍यम से ज्ञानवर्धन की अपेक्षा है।
कहने की आवश्‍यकता नहीं कि ग़ज़ल गैर मुरद्दफ़ है और इसके अ’र्कान फ़़ायलातुन, फ़़ायलातुन, फ़़ायलातुन, फ़़ायलुन यानि 2122, 2122, 2122, 212 हैं जो मेरी प्रिय बह्र है।

एक ग़ज़ल


वायदा है मैं तिमिर से हर घड़ी टकराउँगा
स्‍नेह पाया है जगत से रौशनी दे जाउँगा।



कौन हूँ मैं बूझ पाओ तो मुझे तुम बूझ लो
लौ पुराना प्रश्‍न है जो मैं नहीं सुलझाउँगा।



बात जब मेरी हुई तो तेल बाती की हुई
मैं रहा जिस पात्र में गुणगान उसके गाउँगा।



एक बच्‍चा मित्रता करने पटाखों से चला
आग से मत खेलना उसको यही समझाउँगा।



खुद अगर कोई पतंगा आ गिरा आग़ोश में
हाथ मलने के सिवा कुछ भी नहीं कर पाउँगा।



एक अनबन सी रही बारूद की मुझसे मगर,
वो गले मेरे लगा तो किस तरह ठुकराउँगा।



साथ में तूफॉं लिये अब ऑंधियॉं चलने लगीं
बुझ गया तो मैं मिसालों में दिया कहलाउँगा।



कब्र, मंदिर, राह हो या फिर मज़ारे पीर हो
जिस जगह भी रख दिया, मैं रौशनी बिखराउँगा।



जो डगर मैनें चुनी वो आपको लगती कठिन
राह बारम्‍बार लेकिन मैं यही दुहराउँगा।



वक्‍त जाने का हुआ है भोर अब होने लगी
सूर्य से रिश्‍ता अजब है, वो गया तो आउँगा।



गर कभी मद्धम हवा निकली मुझे छूते हुए
नृत्‍य में खो जाउँगा, इतराउँगा, इठलाउँगा।



धर्म, जात औ, उम्र क्‍या औ कर्म का अंतर है क्‍या
जब मुझे ‘राही’ दिखेगा, रा‍ह मैं दिखलाउँगा।



तिलक राज कपूर ‘राही’ ग्‍वालियरी