Friday, December 17, 2010

आज कुछ श्रंगार की बातें करें

यह पोस्‍ट पूरा एक सप्‍ताह विलंब से लगी है, 11 दिसम्‍बर की रात्रि में इसे पोस्‍ट करना था मगर अपनी मर्जी कब चलती है। बहरहाल, किसी तरह संपर्क हो पाता तो आदरणीय चंद्रसेन ‘विराट’ जी से उनका एक मुक्‍तक प्रस्‍तुत करने की अनुमति अवश्‍य लेता। यह मुक्‍तक अस्‍सी के दशक में पढ़ा था और पढ़ते ही कंठस्‍थ हो गया था। मुक्‍तक इस तरह है:
रोम झंकृत हो रहे हैं, ये शिरायें बज रहीं
जो हृदय में उठ रहा, उस ज्‍वार की बातें करो
शेष सारे ही रसों को आज तो विश्राम दो
मुक्‍त मन रसराज की श्रंगार की बातें करो।
श्रंगारिक प्रस्‍तुति के पूर्व इस मुक्‍तक का उल्‍लेख किये बिना मैं रह नहीं पाता, आज भी इसे प्रस्‍तुत करने का यही कारण है। आज श्रंगार रस पर अपनी कुछ पूर्व रचनायें प्रस्‍तुत कर रहा हूँ जो मैनें अस्‍सी के दशक में लिखी थीं।
सर्वप्रथम एक मुक्‍तक उस स्थिति पर जहॉं पहली बार नज़र मिलती है और पनपता है पहला-पहला प्‍यार:
मुस्‍कराकर, आपने, देखा इधर, मैं देखता हूँ
आपके दिल में जो उपजा, वो शजर मैं देखता हूँ
भाव उपजा, उठ गयी, पर लाज से फिर झुक गयी,
गिर के उठती, उठ के गिरती, हर नज़र मैं देखता हूँ।
शजर- पेड़
इसके बाद बात बढ़ती है दो दिलों के मिलने की ओर तो सांस्‍कृतिक, सामाजिक और धार्मिक नियम सामने आते हैं। यह मुक्‍तक वस्‍तुत: अपने छोटे साले की फ़र्माइश पर लिखा जब उसने चाहा कि एक ऐस छंद हो जो वह अपनी मँगेतर को भेजे जाने वाले प्रथम पत्र में लिख सके। मैं ठहरा कार्य विभाग से, पुल पुलियों के अलावा कुछ दिखता नहीं। छंद को रुचिकर बनाने के लिये कुछ आधार ज्ञान प्राप्‍त करना चाहा तो ज्ञात हुआ ‘बिछिया’ का महत्‍व, जो विवाहिता की पहचान होती है। बस सब कुछ जोड़कर जो मुक्‍तक तैयार हुआ वह इस प्रकार है:
प्रेम डगरिया की पुलिया तो, गोरी अभी अधूरी है,
बीच समय की बहती नदिया भी अपनी मजबूरी है,
पल-पल, क्षण-क्षण, समय कट रहा है, सखियों से कह देना,
देर नहीं पिय से मिलने में, बिछिया भर की दूरी है।
पल-पल के साथ क्षण-क्षण में आपत्ति हो तो ‘क्षण-क्षण’ के स्‍थान पर ‘करते’ पढ़ लें।
इसी क्रम में आगे बढ़ें तो आता है एक गीत, जो इस प्रकार है:
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन,
सहमी सी बैठी, नवेली दुल्‍हन।

युगों युगों के बाद रात इक, यूँ ही नही लजाई है,
बाबुल के अंगना से गोरी, पिय के घर को आई है।

घूँघट की ये ओट तुम्‍हारी, होगी नहीं सहन,
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन।
निशा का ऑंचल गहराया, अब तू भी पलकें ढलका दे,
रूप की मादक मदिरा मुझपर, आज प्रिये तू छलका दे।

आलिंगन में ले ले मेरा सारा पागलपन,
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन।
कितनी सुखद घड़ी वो होगी, जब दो हृदय मिलेंगे,
जीवन की बगिया में पगली, जब दो सुमन खिलेंगे।

वासंती मनुहारें होंगी, होगी कुछ सिहरन
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन।
प्रियतम, तेरा प्रणय निवेदन, कल के कोमल सपने,
वर लूँगी मैं बिना लजाये, ये हैं मेरे अपने।

बाहुपाश में कस लो मेरा उन्‍मादित यौवन,
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन।
और अंत में विशेष बात यह है कि प्रथम मुक्‍तक 'मुस्‍करा कर....' और यह गीत मैनें अविवाहित जीवन की श्रंगारिक कल्‍पना के रूप में लिखे थे। एक अन्‍य विशेष बात यह कि 12 दिसम्‍बर को हमने विवाह की पच्‍चीसवीं वर्षगॉंठ मनाई।
पच्‍चीस वर्ष के वैवाहिक अनुभव को समेटूँ तो ऐसा कुछ विशेष नहीं जो अन्‍य किसी के काम का हो; सिवाय इसके कि जब कभी रूठा-रूठी की स्थिति बनी मैनें एक दो घंटे रुककर सिर्फ एक प्रश्‍न पत्‍नी से किया कि क्‍या इस विवाद का अंत कभी नहीं होगा, अगर नहीं तो क्‍यूँ न हम अपने मार्ग निश्चित कर लें, और अगर इस विवाद को कभी न कभी सुलझना है तो क्‍यूँ न अभी इसका अन्‍त कर दें। यह हमेशा कारगर सिद्ध हुआ। इस प्रश्‍न में दबाव न होते हुए एक समझ का विकास आधार में है कि छोटे-मोटे मतभेद सामान्‍य हैं और अधिकॉंश विवाद कहने-सुनने, सोच, परिपक्‍वता, अनुभव के अंतर पर आधारित होते हैं और उन्‍हें आसानी से समाप्‍त किया जा सकता है।
र्इश्‍वर करे सभी के पारिवारिक जीवन में ऐसा ही हो। आनंद ही आनंद हो।
तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

Wednesday, November 3, 2010

दीपोत्‍सव की बहुत-बहुत बधाई

मन में एक विचार आया कि क्‍यूँ न इस बार ‘दीपक’ को ही अभिव्‍यक्ति का माध्‍यम चुना जाये। प्रस्‍तुत ग़ज़ल में ‘दीपक’ के माध्‍यम से संयोजन का वही प्रयास है। मुझे काव्‍य के तत्‍वों का केवल आधार ज्ञान ही है इसलिये कहीं कुछ त्रुटि हुई हो तो आपकी टिप्‍पणी के माध्‍यम से ज्ञानवर्धन की अपेक्षा है।
कहने की आवश्‍यकता नहीं कि ग़ज़ल गैर मुरद्दफ़ है और इसके अ’र्कान फ़़ायलातुन, फ़़ायलातुन, फ़़ायलातुन, फ़़ायलुन यानि 2122, 2122, 2122, 212 हैं जो मेरी प्रिय बह्र है।

एक ग़ज़ल


वायदा है मैं तिमिर से हर घड़ी टकराउँगा
स्‍नेह पाया है जगत से रौशनी दे जाउँगा।



कौन हूँ मैं बूझ पाओ तो मुझे तुम बूझ लो
लौ पुराना प्रश्‍न है जो मैं नहीं सुलझाउँगा।



बात जब मेरी हुई तो तेल बाती की हुई
मैं रहा जिस पात्र में गुणगान उसके गाउँगा।



एक बच्‍चा मित्रता करने पटाखों से चला
आग से मत खेलना उसको यही समझाउँगा।



खुद अगर कोई पतंगा आ गिरा आग़ोश में
हाथ मलने के सिवा कुछ भी नहीं कर पाउँगा।



एक अनबन सी रही बारूद की मुझसे मगर,
वो गले मेरे लगा तो किस तरह ठुकराउँगा।



साथ में तूफॉं लिये अब ऑंधियॉं चलने लगीं
बुझ गया तो मैं मिसालों में दिया कहलाउँगा।



कब्र, मंदिर, राह हो या फिर मज़ारे पीर हो
जिस जगह भी रख दिया, मैं रौशनी बिखराउँगा।



जो डगर मैनें चुनी वो आपको लगती कठिन
राह बारम्‍बार लेकिन मैं यही दुहराउँगा।



वक्‍त जाने का हुआ है भोर अब होने लगी
सूर्य से रिश्‍ता अजब है, वो गया तो आउँगा।



गर कभी मद्धम हवा निकली मुझे छूते हुए
नृत्‍य में खो जाउँगा, इतराउँगा, इठलाउँगा।



धर्म, जात औ, उम्र क्‍या औ कर्म का अंतर है क्‍या
जब मुझे ‘राही’ दिखेगा, रा‍ह मैं दिखलाउँगा।



तिलक राज कपूर ‘राही’ ग्‍वालियरी

Wednesday, October 27, 2010

करवा चौथ को समर्पित एक ग़ज़़ल

पंकज सुबीर जी के ब्‍लॉग पर इस बार तरही का जो मिसरा दिया गया है उसकी बह्र ग़ज़़ल साधना में लगे नये साधकों के लिये बड़े काम की है ऐसा मेरा मानना है। पहली बार ऐसा हुआ कि किसी तरही के लिये मुझे बहुत गंभीरता से प्रयास करना पड़ा, इस प्रयास में बहुत सा मसाला इकट्ठा हो गया और तरही की ग़ज़़ल भेजने के बाद ऐसा लगा कि इस बह्र पर कुछ और काम करना जरूरी है। इसी प्रयास में ‘अच्‍छा लगा’ रदीफ़ लेकर एक ग़ज़़ल पर काम कर रहा था कि ‘करवा चौथ’ की पूर्व रात्रि आ गयी और कुछ ऐसी अनुभूति हुई कि एक शेर ‘करवा चौथ’ पर बन गया। स्‍वाभाविक है कि इससे लोभ पैदा हो गया एक ग़ज़़ल ‘करवा चौथ’ को समर्पित करने का। मैं सामान्‍यतय: निजि जीवन से ग़ज़़ल के लिये अनुभूति नहीं ले पाता हूँ इसलिये कुछ समय लग गया और ग़ज़़ल आज ऐसा रूप ले सकी कि प्रस्‍तुत करने का साहस कर सकूँ। इस ग़ज़़ल के लिये प्रेरणा मिली ‘करवा चौथ’ से और साहस मिला प्राण शर्मा जी की ग़ज़़लों से जिनमें निजि पलों की खूबसूरती देखते ही बनती है।
यह ग़ज़़ल विशेष रूप से करवा चौथ को समर्पित है। इसका पूरा आनंद गुनगुना कर लेने के लिये ‘कल चौदवीं की रात थी, शब भर रहा चर्चा तेरा’ या ‘ये दिल, ये पागल दिल मेरा, क्यों बुझ गया, आवारगी’ की लय का स्‍मरण करें।

ग़ज़़ल

छूकर इसे, तुमने किया, खुश्‍बू भरा, अच्‍छा लगा,
बदला हुआ, स्‍वागत भरा, जब घर मिला, अच्‍छा लगा।


नादान थे, अनजान थे, परिचित न थे, लेकिन हमें,
जब दिल मिले, रिश्‍ता लगा, जाना हुआ, अच्‍छा लगा


जब सात फेरों के वचन से जन्‍म सातों बॉंधकर
तूने मुझे, मैनें तुझे, अपना लिया, अच्‍छा लगा।


तुमने कहा, मैनें सुना, मैनें कहा, तुमने सुना,
सुनते सुनाते वक्‍त ये, अपना कटा, अच्‍छा लगा।


वो फासला, जो था बना, ग़फ़्लत भरी, इक धुँध से,
कोशिश हमारी देखकर, जब मिट गया, अच्‍छा लगा।


तुम सामने बैठे रहो, श्रंगार मेरा हो गया,
इस बार करवा चौथ पर, तुमने कहा, अच्‍छा लगा।


‘राही’ कटेगी जिन्‍दगी, महकी हुई, खुशियों भरी,
इस बात का, जब आपने, वादा किया, अच्‍छा लगा।

तिलक राज कपूर 'राही ग्‍वालियरी'

Sunday, October 3, 2010

सांप्रदायिक सद्भाव पर एक ग़ज़ल


तमाम शंकाओं, कुशंकाओं के बीच आखिर, एक बहुप्रतीक्षित फ़ैसला आ ही गया और देश के जन-जन ने संपूर्ण विषय को न्‍यायपालिका का कार्यक्षेत्र मानकर; निर्णय को सहजता से स्‍वीकार कर साम्‍प्रदायिक सद्भाव का उदाहरण दिया। देश का जन-जन इस सांप्रदायिक सद्भाव के लिये हार्दिक बधाई का पात्र है और ऐसे हर सद्भावी को आज की ग़ज़ल समर्पित है। इस ग़ज़ल का कोई भी शेर मेरा नहीं, यह केवल और केवल जन-जन की भावनाओं की अभिव्‍यक्ति का प्रयास है।
सिर्फ़ एक शब्‍द 'इनायत' को समझने के लिये शब्‍दकोष खोला और सिर्फ़ 'इ' से आरंभ होने वाले इतने हमकाफि़या शब्‍द मिल गये कि स्‍वयं को रोकना कठिन हो गया। परिणाम सामने है कि सामान्‍य ग़ज़ल से कुछ अधिक ही शेर हो गये हैं। इससे एक स्थिति और पैदा हो गयी है कि हिन्‍दी बोलचाल में प्रयुक्‍त उर्दू शब्‍दों से बात आगे निकल गयी है। इसके निराकरण के लिये शब्‍दकोष में दिये गये अर्थ भी साथ में ही दे दिये हैं। इसमें कुछ हिन्‍दीभाषियों को आपत्ति तो हो सकती है पर आशा है कि हिन्‍दी में प्रचलित शब्‍दों से अधिक उर्दू के प्रयोग को क्षमा करेंगे और शेर में कही बात के दृष्टिकोण से देखेंगे कि इन शब्‍दों के प्रयोग से क्‍या बात निकल कर सामने आयी है।
उर्दू शब्‍दों का मेरा ज्ञान उतना ही है जितना हिन्‍दी फि़ल्‍मों में उर्दू का उपयोग, इसलिये हो सकता है कुछ त्रुटि रह गयी हो, मेरा विशेष अनुरोध है कि कोई उपयोग-त्रुटि हो तो मुझे अवगत अवश्‍य करायें जिससे अर्थ के अनर्थ की स्थिति न बन जाये।
इस ग़ज़ल में शहर को नगर के वज्‍़न में लिया गया है जिसपर स्‍वर्गीय दुष्‍यन्‍त कुमार की ग़ज़ल 'कहॉं चराग़ मयस्‍सर नहीं शहर के लिये' के साथ विवाद समाप्‍त हो चुका है फिर भी एतराज़ होने पर कृपया इसे नगर पढ़ लें।
इस पोस्‍ट पर मेरा विशेष अनुरोध है कि सांप्रदायिक सद्भाव पर अपने सुविचार ब्‍लॉग पर अथवा मेल के माध्‍यम से अवश्‍य रखें जिससे सद्भावियों को और अधिक मानसिक संबल मिले। आपके सुविचारों के प्रति मेरी ओर से सम्‍मान अग्रिम रूप से स्‍वीकार करें।
ग़ज़ल

कभी न हुक्‍म में उसके इदारत कीजिये साहब
सदाकत से सदा उसकी इताअत कीजिये साहब।
इदारत- संपादन, एडीटरी
इताअत- आज्ञा-पालन, फ़र्माबरदारी, सेवा, खिदमत


न उसकी राह चलने में इनाअत कीजिये साहब
उसी के नाम पर, लेकिन इनाबत कीजिये साहब
इनाअत- विलंब, देर ढील, सुस्‍ती
इनाबत- ईश्‍वर की ओर फि़रना, बुरे कामों से अलग हो जाना, तौबा करना

अगर कर पायें तो, इतनी इनायत कीजिये साहब
दिलों में फ़ूट की न अब, शरारत कीजिये साहब।
इनायत- कृपा

बड़ी मुश्किल से, अम्‍नो-चैन की तस्‍वीर पाई है
यही कायम रहे, ऐसी वकालत कीजिये साहब।

शहर के बंद रहने से कई चूल्‍हे नहीं जलते
न ऐसा हो कभी ऐसी इशाअत कीजिये साहब।
इशाअत- प्रचार, प्रसार

जुनूँ छाया है दिल में गर किसी को मारने का तो,
मेरी है इल्तिज़ा इसकी इताहत कीजिये साहब।
इताहत- मार डालना, हलाक करना

वो मेरा हो, या तेरा हो, या इसका हो, या उसका हो
सभी मज्‍़हब तो कहते हैं इआनत कीजिये साहब।
इआनत- सहायता, मदद, सहयोग

किसी मज्‍़हब में दुनिया के कहॉं नफ़्रत की बातें हैं
अगर वाईज़ ही भटकाये, खिलाफ़त कीजिये साहब।
वाईज़- धर्मोपदेशक

सियासत और मज्‍़हब जोड़ना फि़त्रत है शैतानी
इन्‍हें जोड़े अगर कोई, मलामत कीजिये साहब।
सियासत- राजनीति
मलामत- निंदा

जरूरी तो नहीं मंदिर औ गिरजा या हो गुरुद्वारा
सुकूँ मिलता जहॉं पर हो इबादत कीजिये साहब।
इबादत- उपासना, अर्चना, पूजा

अगर ये थम गया तो फिर तरक्‍की हो नहीं सकती
वतन चलता रहे ऐसी सियासत कीजिये साहब।
सियासत- राजनीति

सभी मज्‍़हब सिखाते हैं शरण में गर कोई आये
तो अपनी जान से ज्‍यादह हिफ़ाज़त कीजिये साहब।
हिफ़ाज़त- रक्षा, बचाव, देख-रेख

अगर हम दूरियों को दूर ही रक्‍खें तो बेहतर है
मिटाकर दूरियॉं सारी रफ़ाकत कीजिये सा‍हब।
रफ़ाकत- मैत्री, दोस्‍ती

कहॉं धरती सिवा जीवन वृहद् ब्रह्मांड में जाना
किसी भी जीव से फिर क्‍यूँ शिकायत कीजिये साहब?

वकालत को अगर 'राही' बनाया आपने पेशा
न इन फ़िर्क़:परस्‍तों की हिमायत कीजिये साहब।
फ़िर्क़:परस्‍तों - साम्‍प्रदायिकता रखने वाले, साम्‍प्रादायिक भेदभाव फैलाकर आपस में लड़ाने वाले

तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

Wednesday, September 29, 2010

सूर्य का विश्राम पल होता नहीं

बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी, मगर कौन ध्‍यान रखता है। सर्वत जमाल साहब ने साखी (sakhikabira.blogspot.com) ब्‍लॉग पर कहा कि इसके ब्‍लॉगस्‍वामी डाक्टर सुभाष राय रात को भी नहीं सोते। बस इसी बात से इस ग़ज़ल के मत्‍ले का शेर पैदा हुआ। देखना है अब ये बात कहॉं तक जाती है। यह मेरा प्रथम प्रयास है यथासंभव हिन्‍दी शब्‍दों के उपयोग का, कोई कारण नहीं, बस स्‍वयंपरीक्षण भर है अन्‍यथा मुझे तो मिलीजुली भाषा ही पसंद है जो मैं बचपन से सुनता और बोलता आया हूँ।

ग़ज़ल
रात हो या दिन, कभी सोता नहीं,
सूर्य का विश्राम पल होता नहीं।

चाहतें मुझ में भी तुमसे कम नहीं,
चाहिये पर, जो कभी खोता नहीं।

मोतियों की क्‍या कमी सागर में है,
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं।

देखकर, परिणाम श्रम का, देखिये
बीज कोई खेत में बोता नहीं।

व्‍यस्‍तताओं ने शिथिल इतना किया
अब कोई संबंध वो ढोता नहीं।

क्‍यूँ में दोहराऊँ सिखाये पाठ को
आदमी हूँ, मैं कोई तोता नहीं।

देख कर ये रूप निर्मल गंग का
पाप मैं संगम पे अब धोता नहीं।

जब से जानी है विवशता बाप की,
बात मनवाने को वो रोता नहीं।

हैं सभी तो व्‍यस्‍त 'राही' गॉंव में
मत शिकायत कर अगर श्रोता नहीं।

तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

Saturday, September 11, 2010

ईद मुबारक


दो तीन दिन से मन में विचार चल रहा था कि ईद के मुबारक मौके पर एक ग़ज़ल ब्‍लॉग पर लगाई जाये। बहुत कोशिश करने पर भी सफ़ल नहीं रहा तो एक बार फिर मदद मिली कभी पढ़ी हुई एक ग़ज़ल से जिसका बस यही एक मिसरा याद रहा है कि 'मिलें क्‍यूँ न गले फिर शंभु और सत्‍तार होली में' । किसकी ग़ज़ल है यह याद नहीं। बस इसी को आधार बना कर कुछ भावनायें व्‍यक्‍त करने की कोशिश की है।

बेटे को फोटोग्राफ़ी का शौक है, सुब्‍ह-सुब्‍ह निकल पड़ा भोपाल की शान 'ताज-उल-मसाजि़द' की ओर। उसी का लिया एक फ़ोटोग्राफ़ लगा रहा हूँ, और फ़ोटो देखना चाहें तो फ़ेसबुक पर निशांत कपूर को तलाश लें।

ग़ज़ल

नहीं कुछ और दिल को चाहिये इस बार ईदी में
खुदा तू जोड़ दे इंसानियत के तार ईदी में।

तेरी नज़्रे इनायत से न हो महरूम कोई भी
सभी के नेक सपने तू करे साकार ईदी में।

न कोई ग़म किसी को हो दुआ दिल से मेरे निकले
गले सबसे मिले खुशियों भरा संसार ईदी में।

रहे न फ़र्क कोई मंदिर-ओ-मस्जि़द औ गिरजा में
सभी मिलकर सजायें उस खुदा का द्वार ईदी में।

मुहब्‍बत ही मुहब्‍बत के नज़ारे हर तरफ़ देखूँ
खुदा निकले दिलों से इक मधुर झंकार ईदी में।

मिटाकर नफ़्रतों को भाईचारे की इबादत हो
करें इंसानियत का मिल के सब श्रंगार ईदी में।

खुदा से मॉंगता आया है पावन ईद पर ‘राही’
बढ़ा दिल में सभी के और थोड़ा प्‍यार ईदी में।

तिलक राज कपूर ‘राही’ ग्‍वालियरी

Sunday, August 15, 2010

आतंकवादी की फरमाईश पर ग़ज़ल-2


आतंकवादी तो बड़ा शरीफ़ निकला; मेरी व्‍यस्‍तता की स्थिति से समझौता कर सब्र से बैठा हुआ है। मेरा दिल नहीं माना। सोचा इस अवकाश का लाभ लेकर कुछ मुहब्‍बत भरी बात कही जाये। बस पेश है।

ग़ज़ल को सामान्‍यतय: कोई शीर्षक नहीं दिया जाता है लेकिन मुझे लगता है कि इस ग़ज़ल में यह गुँजाईश है। इसका हर शेर मुहब्‍बत की ही बात कहता है और हर शेर में मुहब्‍बत शब्‍दश: अलग रंग लिये हुए मौज़ूद है। इस ग़ज़ल का हर काफि़या उर्दू से है। जहाँ हिन्‍दी भाषियों को कठिनाई हो सकती है वहॉं सुविधा के लिये उर्दू शब्‍द का अर्थ सम्मिलित कर लिया है।
मुहब्‍बत

मुहब्‍बत के उसमें दिखे ये निशाँ से
खयालों में ग़ुम बेखुदी इस जहाँ से।
(निशाँ- निशान; जहाँ- दुनिया)

मुहब्‍बत में पाये हर इक आस्‍ताँ से,
गिले, शिकवे, ताने सभी की ज़बाँ से।
(आस्‍ताँ- दहलीज़, ड्यौढ़ी; ज़बाँ - जिव्‍हा, जीभ)

कोई मर मिटेगा, मुहब्‍बत में तेरी
अगर तीर छोड़ा नयन की कमाँ से।

बदलता ही रहता है ये रंग अपने
सम्‍हल कर मुहब्‍बत करो आस्‍माँ से।

भला किसकी खातिर हो दौलत के पीछे
मुहब्‍बत तो मिलती नहीं है दुकाँ से।

वतन की हिफ़ाजत में वर्दी पहन कर
मुहब्‍बत न हमने करी जिस्‍मो-जाँ से।

मुहब्‍बत तो मॉंगे है ज़ज्‍ब: दिलों का
सितारे न चाहे कभी कहकशाँ से।
(कहकशाँ- आकाश गंगा)

समाया हुआ है मज़ा इसमें लेकिन
मुहब्‍बत न करना ज़मीन-ओ मकाँ से।

मुहब्‍बत को पर्वाज़ देने चला हूँ
इज़ाज़त तो ले लूँ मैं उस मेह्रबाँ से।
(पर्वाज़- उड़ान)

बने फ़स्‍ले-गुल से मुहब्‍बत के नग्‍़मे
नयी रंगो-बू फिर उठी गुलिस्‍ताँ से।
(फ़स्‍ले-गुल-बसंत ऋतु; रंगो-बू- रंग और सुगंध; गुलिस्‍ताँ-उद्यान, वाटिका)

डराने से पीछे हटी न मुहब्‍बत,
लड़ी है हमेशा ये दौरे-ज़माँ से।
(दौरे-ज़माँ- ज़माने का समय या काल)

अगर तल्‍ख़ लगती है तुमको मुहब्‍बत
कला इसकी सीखो किसी कारदाँ से।
(तल्‍ख़- कड़वी, अरुचिकर; कारदाँ- अनुभवी)

इबादत मुहब्‍बत की करने चला तो,
मिले मुझको 'राही' सभी यकज़बाँ से।
(इबादत- आराधना, पूजा; यकज़बाँ- सहमत, एकराय)

तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

Sunday, June 20, 2010

एक आतंकवादी की फरमाईश पर ग़ज़ल


अभी हाल ही में मैं एक आतंकवादी गतिविधि का शिकार हुआ हूँ जिसका विवरण आपसे बॉंटना जरूरी है। हमला चैट पर हुआ जिसकी पूरी प्रति इस प्रकार है।

शुक्रवार दिनांक 19 जून 2010
आतंकवादी: आपको सूचित किया जाता है कि 24 घंटे के अन्‍दर 'रास्‍ते की धूल' पर एक ग़ज़ल लगाना है आपको, अगर ऐसा न किया तो आप पर देर तक तरसाने का आरोप लगाते हुए एक हफ़्ते में एक ग़ज़ल लगाने का जुर्माना लगाया जा सकता है; और आपको यह मानना होगा।
मैं: यह तो आतंकवादी हमला है।
आतंकवादी: बतादूँ कि आपको हर हफ़्ते एक ग़ज़ल दो महीने तक लगानी पड़ेगी।
शनिवार दिनांक 20 जून 2010
आतंकवादी: आपको सूचित किया जाता है कि नोटिस जारी होने के बावजूद आपने रास्ते कि धुल पर नई पोस्ट नहीं लगाई, अब आपको हर हफ्ते एक गजल पोस्ट करनी है, और ऐसा २ महीने तक करना है, ऐसा ना होने पर आवश्यक कार्यवाही की जायेगी
मैं: हम सच्‍चे हिन्‍दुस्‍तानी, आतंकवादी धमकियों से नहीं डरते। हॉं फिरौती में एकाध ग़ज़ल में सौदा पटता हो तो बोलो।
आतंकवादी: फिरौती का समय निकल चुका है
मैं: तो ले जाओ हमें ही, हम तो बंधक बनने को तैयार हैं।
आतंकवादी: हा हा हा, आपको बंधक बनाना हमें भारी पड़ जाएगा, हमें तो आपकी गजल चाहिए
मैं: कल संभव है। आज तो अभी रात के 2-3 बज जायेंगे आफिस के काम में ही।
आतंकवादी: तो ठीक है इस हफ्ते की गजल कल, फिर अगले हफ्ते १ गजल, फिर उसके अगले हफ्ते १, फिर अगले में १, ठीक है न।
मैं: ग़ज़ल के शेर ऐ लोगो निकाले कब निकलते हैं, कभी चुटकी में बन जायें कभी इक याम लग जाये।
आतंकवादी: ये सब नहीं चलेगा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा
मैं: वस्‍तुत: इस समय मुझे एक अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण दायित्‍व सौंपा गया है जिसमें दो तीन महीने व्‍यवस्‍था बनाने में लग जायेंगे, फिर संभव है कुछ समय के लिये आराम रहे।
आतंकवादी: ओह ऐसा, बहुत बढ़िया
मैं: लोक सेवक होने के नाते पहले पब्लिक की बजानी जरूरी है, जनता जो तनख्‍वाह देती है उसका कर्जा उतारने के मौके कम मिलते हैं।
आतंकवादी: ये भी सही है। ठीक है कल गजल का इंतज़ार करते हैं
मैं: ये हुई न अच्‍छे बच्‍चों वाली बात। ठीक है। अलविदा।
आतंकवादी: नमस्ते

मैं इस आतंकवादी से भयभीत नहीं हूँ और दुआ करता हूँ कि हर आतंकवादी ऐसा ही हो जाये। मेरी दुआ दिल से है यह सिद्ध करने के लिये उसकी दिली फरमाईश पूरी कर रहा हूँ। अब अल्‍प समय में एक नयी ग़ज़ल तैयार हो जाये ये हमेशा संभव तो नहीं होता लेकिन जो कुछ कच्‍चा-पक्‍का बन सका परोस रहा हूँ, इस आशा के साथ कि इस आतंकवादी के विचार मात्र दो महीने का समय मुझे दे दें फि़र पूरे जोशोखरोश के साथ लौटता हूँ।

ग़ज़ल
कल तक जो लड़ रहे थे किसी दक्ष की तरह
निस्‍तेज हो गये हैं वही सक्ष की तरह। सक्ष: पराजित

कपड़ों के, रोटियों के, मकानों के वास्‍ते
कुछ प्रश्‍न पूछते हैं सभी, यक्ष की तरह।

ढूँढी तमाम उम्र, जगह मिल सकी न मॉं,
सुख दे सके मुझे जो तेरे वक्ष की तरह।

सर रख के फाईलों पे कई सो रहे यहॉं,
दफ़्तर समझ रखा है शयन-कक्ष की तरह।

वो वक्‍त और था, वो ज़माना ही और था,
हम भी थे सल्‍तनत में कभी अक्ष की तरह।

संसद सा हो गया है मेरा घर ही आजकल,
गुट बन गये हैं पक्ष और विपक्ष की तरह।

क्‍यूँकर ये चॉंद भी है अजब हरकतों में ग़ुम
लगता है पक्ष शुक्‍ल, कृष्‍ण-पक्ष की तरह।

है आपको खबर कि ज़हर से बनी हैं ये
क्‍यूँ बेचते हैं आप इन्‍हें भक्ष की तरह। भक्ष: खाने का पदार्थ

क्‍यूँ कर न आपकी ही शरण में बसे रहें
हमको तुम्‍हारा एक करम, लक्ष की तरह। लक्ष: एक लाख; सौ हजार

जज्‍़बा यही है, अपनी इबादत यही रही
हम देश से जुड़े हैं किसी रक्ष की तरह। रक्ष: रक्षक, रखवाला

अच्‍छी भली ग़ज़ल है, सुनाते नहीं हैं क्‍यूँ
'राही' छिपाईये न इसे मक्ष की तरह। मक्ष: अपने दोष को छिपाना

तिलकराज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

Tuesday, May 4, 2010

बह्र-ए-हज़ज़ मुसम्मन् सालिम पर एक ग़ज़ल


इस ब्‍लॉग पर मैं एक से ज्‍यादह पोस्‍ट एक माह में लगाने का इच्‍छुक नहीं पर परिस्थिति कुछ ऐसी बनी है कि इस बार बहुत कम अंतराल से एक नयी ग़ज़ल लगानी पड़ गयी। हुआ यूँ कि मेरे ही एक अन्‍य ब्‍लॉग 'कदम-दर-कदम' पर चर्चा के लिये जो ग़ज़ल प्राप्‍त हुई उसका हल निकालना एवरेस्‍ट पर चढ़ाई जैसा काम हो गया और एक उदाहरण ग़ज़ल लगाने की विवशता हो गयी जिससे उसपर काम करना व्‍यवहारिक हो सके। यह ग़ज़ल विशेष रूप से इसी के लिये कही गयी है। इसकी बह्र मफाईलुन् (1222 x 4) की आवृत्ति से बनी बह्र-ए-हज़ज़ मुसम्मन् सालिम है

ग़ज़ल

हमारे नाम लग जाये, तुम्‍हारे नाम लग जाये
मुहब्‍बत में न जाने कब कोई इल्‍ज़ाम लग जाये।

तुम्‍हारी याद ने मिटना है गर इक जाम पीने से
कभी पी तो नहीं लेकिन लबों से जाम लग जाये।

मेरी हर सॉंस पर लिक्‍खा तेरा ही नाम है दिलबर
दुपहरी थी तुम्‍हारे नाम पर अब शाम लग जाये।

न भाषा की, न मज्‍़हब की कोई दीवार हो बाकी
गले रहमान के तेरे, जो मेरा राम लग जाये।

करिश्‍मा ही कहेंगे लोग, कुदरत का अगर देखें
बबूलों में पले इक नीम में गर आम लग जाये।

जवॉं बहनें, रिटायर बाप, कबसे आस रखते हैं
खुदाया घर के बेटे का कहीं तो काम लग जाये।

ग़ज़ल के शेर ऐ लोगों निकाले कब निकलते हैं
कभी चुटकी में ये निकलें, कभी इक याम लग जाये।

किसानों की इबादत तो यही ऐ दोस्‍त होती है
फसल की चौकसी करना भले ही घाम लग जाये।

अगर दुश्‍मन हुआ जीवन तो चल इक काम हम करलें
इबादत में इसी की ये दिले बदनाम लग जाये।

सुना है ख़ौफ़ सा लगने लगा है आज संसद में
वहॉं की लाज रखने में कोई बन श्‍याम लग जाये।

कई फाके बिताकर दिल मेरा कहने लगा 'राही'
चलें बाज़ार में शायद हमारा दाम लग जाये।

Friday, April 30, 2010

ये न पूछो कि कैसे कटी जि़न्‍दगी

मध्‍यप्रदेश राज्‍य के मालवॉंचल में स्थित है आगर-मालवा, एक छोटा सा कस्‍बा। सरल जनजीवन और अपने-अपने काम में लगे रहने वाले सरल लोगों का सान्निध्‍य प्राप्‍त हुआ मुझे वर्ष 1983 से 1985 की अवधि में। वहीं मेरे एक सहकर्मी थे मनहर 'परदेसी', गीत और काव्‍य लिखते थे। कुछ स्‍थानीय सहयोग और कुछ उनके प्रयास आधार रहे 'प्रतिभा काव्‍य मंच' के गठन के। यह मंच परदेसी जी की गीत पुस्तिका के साथ ही निष्‍प्राण हो गया लेकिन लगभग डेढ़ दो वर्ष के जीवनकाल में मुझे अच्‍छे अवसर प्रदान कर गया। इसी मंच में जनाब मोहसिन अली रतलामी का स्‍नेह मुझे मिला और उन्‍होंने मेरी पहली ग़ज़ल पर इस्‍स्‍लाह दी। जो उन्‍हें ज्ञात था उसपर मेरा पूराहक़ था जानने का। सुना है उनका इंतकाल हो चुका है, परवरदिगार ने उनकी रूह को निश्चित ही ज़न्‍नत बख्‍शी होगी। शायद 1984 की सर्दियॉं थीं, इसी मंच ने एक कवि सम्‍मेलन आयोजित किया था जिसमें सोम ठाकुर जी, जनाब अज़हर हाशमी, जनाब अख्‍़तर ग्‍वालियरी और कई अन्‍य ने भाग लिया।
अज़हर हाशमी साहब जब पढ़ने को खड़े हुए तो आवजें आने लगीं 'चाय की चुस्कियॉं'-'चाय की चुस्कियॉं'। मुझे समझने में दो मिनट लगे होंगे कि ये उनकी कोई मशहूर ग़ज़ल है। ग़ज़ल थी:
चाय की चुस्कियों में कटी जि़न्‍दगी,
प्‍यालियों, प्‍यालियों में बँटी जि़न्‍दगी।
अज़हर हाशमी साहब की आवाज़ का जादू ही कहूँगा कि चाय की चुस्कियॉं दिमाग़ छोड़ने को तैयार ही नहीं, सुब्‍ह चार बजे तक कवि सम्‍मेलन चला, फिर सोम ठाकुर जी को विदा कर करीब 8 बजे जब फुर्सत मिली तो रुका नहीं गया और मेरे अंदर का शाइर जाग गया। शाम तक ग़ज़ल पूरी हो चुकी थी। आज वही ग़ज़ल प्रस्‍तुत है, बहुत कुछ भूल चंका हूँ, लगभग आधे शेर दुबारा कहे हैं। यह ग़ज़ल हमेशा चाय की चुस्कियों को समर्पित रही है, आज भी है। तक्‍तीअ करने पर कुछ पंक्तियॉं बह्र से बाहर लगती हैं, लेकिन स्‍वरों का खेल है ये, गेयता में बाहर कुछ भी नहीं।

इसकी बह्र है फायलुन, फायलुन, फायलुन, फायलुन यानि 212, 212, 212, 212

ग़ज़ल
ये न पूछो कि कैसे कटी जि़न्‍दगी,
कितने धागों से हमने बटी जि़न्‍दगी।

कुछ सपन लेके आगे सरकती रही
उड़ न पाई कभी परकटी जि़न्‍दगी।

कोई सुख जो मिला तो हृदय ने कहा
लग रही है मुझे अटपटी जि़न्‍दगी।

कल की यादें कभी, कल के सपने कभी,
आज को भूलकर क्‍यूँ कटी जि़न्‍दगी।

हैं क्षितिज हमने कितने ही देखे यहॉं
है शिखर, है कभी तलहटी जि़न्‍दगी।

करवटें, करवटें ही बदलती रही
जि़न्‍दगी भर मिरी करवटी जि़न्‍दगी।

धूप में खेलती, मेह में खेलती,
याद आती है वो नटखटी जि़न्‍दगी।

धूल राहों पे खाई तो समझा है ये,
रोग है जि़न्‍दगी, है वटी जि़न्‍दगी।

सत्‍य अन्तिम है क्‍या जान पाई नहीं,
देह से ही हमेशा सटी जि़न्‍दगी।

मौत आई तो इक शब्‍द लिख न सके
उम्र के हाशिये से फटी जि़न्‍दगी।

हम भी 'राही' बने साथ चलते रहे,
राह अपनी न इक पल हटी जि़न्‍दगी।

Wednesday, April 21, 2010

एक नज्‍़म- मॉं की याद में

मॉं, एक शब्‍द है, एक तसव्‍वुर है, एक एहसास है, जिससे शायद ही कोई रचनाधर्मी अछूता रहा हो। बहुत कुछ लिखा गया है 'मॉं' को केन्‍द्रीय पात्र मानकर। फिर भी कुछ न कुछ नया कहने की संभावना बनी रहती है।
आज प्रस्‍तुत नज्‍़म जब कही थी तब मेरी 'मॉं' का भौतिक अस्‍तित्‍व था, अब नहीं। इसे 27 मार्च को उनकी चौथी पुण्‍यतिथि पर पोस्ट करने का इरादा था लेकिन परिस्थितियॉं कुछ ऐसी रहीं कि ऐसा करना संभव न हो सका। आज 22 अप्रैल को उनके जन्‍मदिवस के स्‍मरण के रूप में अवसर बना है इसे पोस्‍ट करने का।
वज़ीर आग़ा साहब की एक ग़ज़ल पढ़ी थी करीब 30 वर्ष पहले जिसके दो शेर दिल में बस गये थे कि:
मैला बदन पहन के न इतना उदास हो
लाजि़म कहॉं कि सारा जहां खुशलिबास हो।
और
इतना न पास आ कि तुझे ढूँढते फिरें
इतना न दूर जा कि हम:वक्‍त पास हो।
इस दूसरे शेर से आभार सहित एक भाव लिया है प्रस्‍तुत नज्‍़म में।
मैं; यूँ तो नज्‍़म नहीं कहता, मुझसे हो नहीं पाता, बहुत कठिन काम है; लेकिन न जाने कब किस हाल में कुछ शब्‍द ऐसा रूप ले सके जिन्‍हें एक नज्‍़म के रूप में प्रस्‍तुत कर रहा हूँ। प्रबुद्ध पाठक ही बता पायेंगे कि ये नज्‍़म है या नहीं।
बहुत धीरे से देकर थपकियॉं मुझको सुलाती थी,
कभी मैं रूठ जाता था तो अनथक वह मनाती थी।
नज़र से दूर जो जितना, वो दिल के पास है उतना,
ये रिश्‍ता दूरियों का वो मुझे अक्‍सर बताती थी।
अभी कुछ देर पहले ही
जो उसकी याद का झोंका
ज़ेह्न के पास से गुजरा
मुझे ऐसा लगा जैसे
कहीं वो मुस्‍कुराई है,
मगर वो दूर है इतनी
कि मुझ तक आ नहीं सकती।
मगर वो दूर है इतनी कि मुझ तक आ नहीं सकती,
बस उसकी याद आई है, बस उसकी याद आई है।

Friday, April 2, 2010

उसके मेरे दरम्‍यॉं यूँ फ़ासला कुछ भी नहीं

एक दिन गौतम राजऋषि के ब्‍लॉग पर गया तो कुमार विनोद की एक ग़ज़ल पढ़ने को मिली, अच्‍छी लगी। दिल ने कहा कि इसी तरह की ग़ज़ल कहनी है। दिल ने कहा तो दिमाग़ ने भी पूरा सहयोग देने का वादा किया और एहसासों को निमंत्रण भेज दिया कि भाई आओ तो कुछ कहें। एहसास ग़ज़ल की ओर बढ़ते दिखे तो शब्‍द कहॉं रुकते, उनके बिना तो एहसास व्‍यक्‍त हो नहीं सकते, सो वो भी चले आये और लीजिये ग़ज़ल हो गई तैयार।
नीरज भाई से चर्चा हुई तो उन्‍होंने बताया कि इसी रदीफ़ काफि़ये और बह्र पर राजेश रेड्डी जी ने भी एक ग़ज़ल कही थी जिसे जगजीत सिंह जी ने आवाज़ दी। जगजीत सिंह जी जिस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ देने को तैयार हो जायें उसके एहसासात के बारे में कहने कुछ नहीं रह जाता है।
मेरा प्रयास प्रस्‍तुत है:

उसके मेरे दरम्‍यॉं यूँ फ़ासला कुछ भी नहीं
सामने बैठा था पर उसने कहा कुछ भी नहीं।

उसका ये अंदाज़ मेरे दिल पे दस्‍तक दे गया
लब तो खुलते हैं मगर वो बोलता कुछ भी नहीं।

न तो मेरे ख़त का उत्‍तर, न शिकायत, न गिला,
क्‍या हमारे बीच में रिश्‍ता बचा कुछ भी नहीं।

देर तक सुनता रहा वो दास्‍ताने ग़म मिरी,
और फिर बोला कि इसमें तो नया कुछ भी नहीं।

बिजलियॉं कौंधी शहर में, बारिशें होने लगीं,
जिसने थे गेसू बिखेरे जानता कुछ भी नहीं।

लोग दब कर मर गये, सोते हुए फुटपाथ पर,
और तेरे वास्‍ते, ये हादसा कुछ भी नहीं।

देश में गणतंत्र को कायम भला कैसे करें,
रोज मंथन हो रहे हैं, हो रहा कुछ भी नहीं।

उसकी हालत में हो कुछ बदलाव, ये कहते हुए
बह गयीं नदियॉं कई, हासिल हुआ कुछ भी नहीं।

सुब्‍ह से विद्वान कुछ, सर जोड़ कर बैठे हैं पर,
मैनें पूछा तो वो बोले मस्‍अला कुछ भी नहीं ।

कौनसे मज़हब का सड़को पर लहू बिखरा है ये
जिससे पूछो, वो कहे, मुझको पता कुछ भी नहीं।

तुम जो ऑंखें भी घुमाओ, ये शहर घूमा करे,
मैं अगर चीखूँ भी तो मेरी सदा कुछ भी नहीं।

उसको ईक कॉंटा चुभा तो कट गये जंगल कई
और वो कहता है कि उसकी ख़ता कुछ भी नहीं।

इतने रिश्‍ते खो चुका 'राही' कि अब उसके लिये
दर्द की गलियों की ये तीखी हवा कुछ भी नहीं।

बह्र: फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फायलुन (2122, 2122, 2122, 212)
तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

Sunday, March 14, 2010

अशआर की महफि़ल में ....


आज जो ग़ज़ल प्रस्‍तुत है उसमें नया कुछ नहीं है। ये ग़ज़ल सिर्फ एक माध्‍यम है उन दृश्‍यों को प्रस्‍तुत करने का जो हमारे आस-पास हैं, हम देख रहे हैं, सुन रहे हैं, और कुछ हद तक जी रहे हैं। मैं स्‍वयं निपट अज्ञानी, किसी भटके हुए को राह दिखाने का प्रयास नहीं कर रहा लेकिन अगर किसी को यह एहसास हो कि इन अशआर के किसी भी दृश्‍य को सुधारने के लिये वो कुछ कर सकता है तो शायद यही एक नयी शुरुआत हो उसके कर्मक्षेत्र की। इस ग़ज़ल के अशआर अगर किसी को सोचने पर मजबूर कर सके और कुछ सकारात्‍मक करने के लिये प्रेरित कर सके तो इसे कहने का मेरा उद्देश्‍य पूरा हो जाता है।



अशआर की महफि़ल में आई ये ज़मीनें देखिये
दृश्‍य जो चारों तरफ़ हैं, आज इनमें देखिये।

देह के बाज़ार में सदियों से बिकती आ रहीं
वक्‍त की मारी हुई, सहमी ये चीज़ें देखिये।

सिर्फ़ आधे पेट में, दिन रात खट लेती हैं ये,
आदमी के रूप में जि़दा मशीनें देखिये।

एक कपड़ा मिल गया तो खुश ये बच्‍चे हो गये,
इनके कद से भी बड़ी इनकी कमीज़ें देखिये।

आपको दिखता नहीं क्‍यूँ, खून से मक्‍तूल के
तरबतर हैं कातिलों की आस्‍तीनें देखिये।

पास में थाना है पर, उनका इलाका ये नहीं,
देखकर लुटती हुई अस्‍मत ना आयें देखिये।

पद की गरिमा छोड़कर ईमान भी बिकने लगा
दफ़्तरों में सज गयीं इसकी दुकानें देखिये।

भर लिया सामान सातों पीढि़यों की भूख का,
पर भटकती फिर रहीं इनकी निगाहें देखिये।

उसने आज़ादी हमें, लौटाई इस अंदाज़ से,
भाइयों में पड़ गयीं गहरी दरारें देखिये।

छॉंटकर मासूम दिल, ये ज़ह्र ज़ेह्नों में भरें,
मज्‍़हबी रंगत की ज़हरीली हवायें देखिये।

कुछ ग़रीबों के लिये 'राही' मदद ये आयी थी
खा गये जो लोग, बिल्‍कुल ना लजायें देखिये।



पिछली ग़ज़ल पर बह्र को लेकर जिज्ञासा प्रस्‍तुत की गयी थी अत: मात्र उस जिज्ञासा के संदर्भ में इसकी बह्र का विवरण प्रस्‍तुत है:


(फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलुन)x2 या (2122, 2122, 2122, 212) x2

Saturday, February 27, 2010

होली की शुभकामनायें

एक विशेष आग्रह आया बिटिया की ओर से कि सूखी होली की बात हो ऐसा कम से कम एक शेर भेज दें। गंभीर समस्‍या। मुझे याद आ गयी भक्‍त कुंभनदास की।
बताते हैं कि भक्‍त कुंभनदास सदैव गिरधर भक्ति में लीन रहते थे और इसमें व्‍यवधान उन्‍हें पसंद नहीं था। 

बादशाह अकबर ने जब इनके भक्तिगान की प्रशंसा सुनी तो बेताब हो गये सुनने को। राजाज्ञा जारी हो गयी कि भक्‍त कुंभनदास दरबार में उपस्थित होकर गायन प्रस्‍तुत करें। भक्‍त कुंभनदास ने मना कर दिया। अंतत: राजहठ की स्थिति पैदा हो गयी तो लोकहित में स्‍वीकार कर लिया दरबार में आने को लेकिन यह शर्त रखी कि राजा की भेजी सवारी में न आकर पैदल ही आयेंगे।
पैदल ही पहुँचे और जब गायन का निर्देश हुआ तो कहा कि भजन तो मन से होता है किसी के कहने से नहीं। अंतत: बीरबल की चतुराई ने मना तो लिया लेकिन बात मन की ही निकली:
भगत को सीकरी सौं का काम।
आवत जात पनहिया टूटी बिसरि गयो हरि नाम।
जाको मुख देखे दुख उपजत ताको करनो परत सलाम।
कुम्भनदास लाला गिरिधर बिन यह सब झूठो धाम।
(कहा जाता है कि बादशाह अकबर का चेहरा सुंदर नहीं था।)
मेरे साथ ऐसा स्थिति साम्‍य तो नहीं। मैं तो भक्‍त कुंभनदास के चरणरज भी पा लूँ तो स्‍वयं को धन्‍य समझूँ। अशआर तो खुद-ब-खुद निकलते हैं, निकालो तो कुछ बन जरूर जाता है लेकिन वो ग़ज़ल के पैमाने पर खरे उतरें ये जरूरी नहीं। यहॉं बात राजहठ की ना होकर पुत्री के निवेदन की थी और वो भी व्‍यापक संदर्भ में, सो कोशिश की और जो परिणाम रहा वह प्रस्‍तुत है। अर्सा पहले पढ़ा एक मिसरा याद आ गया जो इसमें मददगार रहा है। मिसरा था 'मिले क्‍यूँ ना गले फिर शम्‍भू औ सत्‍तार होली में।'
किसका कहा हुआ मिसरा है, मुझे याद नहीं, हॉं मददगार रहा सो हृदय से आभारी हूँ यह संकटमोचक मिसरा कहने वाले का। यही स्थिति उपयोग किये गये चित्र की है जो मेल में प्राप्‍त हुआ था। इसके भी मूल रचयिता का हृदय से आभारी हूँ।
दिलों के बीच ना बाकी बचे दीवार, होली में
उठे सबके दिलों से एक ही झंकार, होली में।
जरा तो सोचिये पानी की किल्‍लत हो गयी कितनी
ना गीले रंग की अब कीजिये बौछार, होली में।
गुलालों से भरी थाली लिये हम राह तकते हैं
निकलता ही नहीं दिखता कोई इस बार होली में।
अजब ये शार्ट मैसेज का लगा है रोग दुनिया को
कोई खत ही नहीं आता है अब त्‍यौहार होली में।
चलो बस एक दिन को भूल जायें दर्द के नग़्मे
खुशी के गीत गायें और बॉंटें प्‍यार होली में।
समझ में कुछ नहीं आता कि इसका क्‍या करे कोई
बजट लेकर नया ईक आ गयी सरकार होली में।
बहुत बेचैन है राही कोई खुशबू नहीं आती
बहुत बेरंग लगता है भरा गुलज़ार होली में।
तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

Monday, February 22, 2010

गॉंव ग़ुम शहर की ज़मीनों में

यह ग़ज़ल मूलत: करीब 25 वर्ष पहले कही थी। वक्‍त के साथ भूल ही चुका था। ब्‍लॉग जगत की वज़ह से फिर याद ताज़ा हुई और मत्‍ले का शेर और उसके बाद के दो शेर ही याद के ज़खीरे से निकल पाये। बाकी अशआर नये सिरे से कहने की कोशिश की है। लगता है जो अशआर याद ना रहे वो प्रस्‍तुति लायक ना रहे होंगे इसलिये उपर वाले ने ही खारिज कर दिये और उनकी जगह नये अशआर दे दिये।

एक करिश्‍मा है जो मैं आप सबसे निश्चित तौर पर बॉंटना चाहता हूँ।
'आज पत्‍थर... ' वाला शेर जब मैनें सोचा तो मैनें 'तराशता' कहा था जो टाईप करते समय 'तलाशता' टाईप हो गया। बाद में एक मित्र के ध्‍यान दिलाने पर मैं सोचता रह गया कि ऐसा क्‍यूँ हुआ। तराशता ही मैं कहना चाहता था मगर इस टंकण त्रुटि ने एक जादू कर दिया है। फिर सोचा तो लगा कि अब मैं तलाशता को ईश्‍वर का करिश्‍मा मानने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। एक अच्‍छा नगीना तराशने के लिये एक अच्‍छा पत्‍थर होना जरूरी है। तो अब बात एक कदम और पीछे की हो गयी कि मैं कुछ पत्‍थर तलाश रहा हूँ जो कल नग़ीनों के रूप में पहचान बनायेंगे। तराशना तो दोनों ही हालत में है। तलाश वाले मामले में अच्‍छे पत्‍थर तलाश कर तराशने में औरों की मदद भी ली जा सकती है। इसको अगर ऐसे लें कि मेरी कोशिश अच्‍छे पत्‍थरों को अच्‍छे नगीनों में बदलने की प्रक्रिया में अपनी भूमिका निबाहने की है तो तलाशना ही ठीक है। मुझे लगता है कि यह टंकण-त्रुटि मुझसे करवाई गयी है तो इसका सम्‍मान करना चाहिये। लेकिन यह बात भी तय है कि तराशना सीधे-सीधे समझ में आने वाली बात है।

गॉंव ग़ुम शहर की ज़मीनों में,
आदमी खो गये मशीनों में।

हर तरफ़ आग़ सी लगी क्‍यूँ है,
देश के सावनी महीनों में।

आपका ये सफर ना तै होगा,
बैठ कर कागज़ी सफीनों में।

आज पत्‍थर तलाशता हूँ, कल
ये गिने जायेंगे नग़ीनों में।

चंद लफ़्ज़ों में बात कहने की,
हमको आदत मिली ज़हीनो में।

होश आने प ये समझ आया,
नाग पाले थे आस्‍तीनों में।

दर्द 'राही' ने जी लिये तन्‍हा,
कब ये चर्चा हुआ मकीनों में।

तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

Sunday, February 14, 2010

एक रुक्‍न के मिसरे में ग़ज़ल

एक रुक्‍न के मिसरे में ग़ज़ल कहने का प्रयास मैं शायद कभी नहीं करता यदि गौतम राज ऋषि के ब्‍लॉग पर छोटी बह्र के रूप में वीनस ‘केसरी’ की एक रुक्‍न के मिसरे वाली ग़ज़ल का संदर्भ न मिलता।


जब मैने ग़ज़ल कहना आरंभ किया था तब विद्वजनों ने बताया था कि पूर्ण ग़ज़ल में कम से कम सात शेर, (मतला और मक्‍ता सहित) आवश्‍यक होता है। कोशिश रहती है कि इस नियम का पालन कर सकूँ।
रचनाकार का धर्म तो अभिव्‍यक्ति के साथ पूरा हो जाता है। गुणीजन तो वो हैं जो मर्म तक पहुँच जाते हैं।
इस ग़ज़ल के मक्‍ते और उससे पहले के शेर पर हो सकता है आपत्ति आये लेकिन प्रयोगवादी ग़ज़लों विशेषकर मुज़ाहिफ शक्‍लों पर आमतौर से इतनी बारीकी से विवेचना नहीं होती है, इसलिये प्रयोग का साहस किया है।

छोटी बह्र की ग़ज़ल

चहरे देखे
पहरे देखे।


घाव, बहुत ही
गहरे देखे।


कानों वाले
बहरे देखे।


सारे वादे
ठहरे देखे।


हर सू झंडे
फहरे देखे।


मानक अक्‍सर
दुहरे देखे।


’राही’ ख्‍वाब
सुनहरे देखे।
 
तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

Sunday, January 31, 2010

गणतंत्र दिवस विशेष

एक और माह बीत गया। जनवरी माह संपूर्ण भारतवर्ष में मकर संक्रॉंति और गणतंत्र दिवस से जोड़कर जाना जाता है लेकिन इस माह में दो और महत्‍वपूर्ण दिवस होते हैं जो धीरे-धीरे जनमानस (विशेषकर नई पीढ़ी) के मानस-पटल पर धुँधले पड़ते जा रहे हैं। यह शायद अब याद दिलाने का विषय होता जा रहा है कि इसी माह में स्‍वर्गीय लाल बहादुर शास्‍त्री का निर्वाण दिवस (11 जनवरी) और महात्‍मा गॉंधी का निर्वाण दिवस (30 जनवरी) भी पड़ते हैं। दोनों विभूतियों में एक महत्‍वपूर्ण सम्‍बन्‍ध जन्‍मदिवस (2 अक्‍टूबर) का भी है। यह अविवादित है कि महात्‍मा गॉंधी सामान्‍य मनुष्‍य नहीं थे और यह उनका ही दिव्‍य-प्रकाश था कि 11 वर्ष की उम्र में उनका एक भाषण सुनकर शास्‍त्री जी कुछ ऐसे प्रभावित हुए कि ताउम्र देश-सेवा को समर्पित रहे। 11 वर्ष की उम्र में लिया हुआ निर्णय बाल-मन का न होकर एक परिपक्‍व सोच थी जिसे 51वर्ष तक जीवनपर्यन्‍त निबाहना स्‍वर्गीय शास्‍त्री जी की प्रतिबद्धता का  उदाहरण है।

यह सोचने का विषय है कि आज जब हम गणतंत्र दिवस मनाते हैं तो इस गणतंत्र में इन विभूतियों के चरित्र को कहॉं पाते हैं। गणतंत्र का प्रश्‍न स्‍वतंत्रता से जुड़ा हुआ है। गॉंधी का स्‍वतंत्रता संग्राम और उसकी परिणति हमारे गणतंत्र का स्‍वरूप आज की इस पोस्‍ट का विषय हैं।

पिछली पोस्‍ट पर प्राप्‍त हुई टिप्‍पणियों पर व्‍यक्गित उत्‍तर तो नहीं दे सका लेकिन इस पोस्‍ट के माध्‍यम से टिप्‍पणियों को सादर शिरोधार्य करते हुए व्‍यक्तिगत आभार व्‍यक्‍त कर रहा हूँ, कृपया स्‍वीकार करें।

मध्‍यप्रदेश के रतलाम जिले की बॉछड़ा जनजाति को एक प्रतीकस्‍वरूप लेकर लगभग 25 वर्ष पहले एक गीत लिखा था जिसके मात्र दो ही छन्‍द स्‍मरण में बचे हैं और प्रथम प्रस्‍तुति है इस पोस्‍ट की। विवादित विषय होने के कारण अधिक न कहते हुए गीत प्रस्‍तुत है:

बॉंछड़ा जाति,
तन का सौदा,
और ये उँचे बोल,
नेता पीट रहे है ढोल, आजादी आ गयी।
आजादी आ गयी, आजादी आ गयी।

नग्‍न नाच वो देख रहे हैं, कस्‍में वादे बेच रहे हैं।
आज द्रौपदी का ऑंचल खुद, कृष्‍ण कन्‍हैया खेंच रहे हैं।।
रक्षक, भक्षक बन बैठे हैं, रात ये कैसी छा गयी।
आजादी आ गयी, आजादी आ गयी।

जहॉं दिखी कोई अक्षत बाला, इनके हृदय में भड़के ज्‍वाला।
मीठी बातों में फुसलाकर, ये करते अपना मुँह काला।।
खिल भी न पायी कली कई और उन्‍हें उदासी खा गयी।
आजादी आ गयी, आजादी आ गयी।

वर्ष 1983 से 1985 की अवधि में कही एक ग़ज़ल प्रस्‍तुत कर रहा हूँ जो गणतंत्र के आधार नागरिक की न्‍यूनतम अपेक्षाओं से जुड़े हैं:

आप अपने हक़ पे दस्‍तक दीजिये,
और ये दस्‍तक अचानक दीजिये।


दो समय रोटी हमें मिल जाये तो,
उनको छप्‍पन भोग बेशक दीजिये।


रेशमी कपड़े मुबारक हों उन्‍हें,
पर हमारा भी बदन ढक दीजिये।


छत हो सबके सर पे तो बेशक उन्‍हें
खुशनुमा महलों की रौनक दीजिये।



नाव ये भटकी सी है मझधार में,
एक नाविक इसको पावक दीजिये।


तंत्र में गण की जगह समझा करें
राष्‍ट्र को ऐसे भी नायक दीजिये।


राह पर गॉंधी की जो 'राही' बनें
ऐ खुदा कुछ ऐसे पाठक दीजिये।

सुधिजनों की टिप्‍पणियों की प्रतीक्षा रहेगी।