रोम झंकृत हो रहे हैं, ये शिरायें बज रहीं जो हृदय में उठ रहा, उस ज्वार की बातें करो शेष सारे ही रसों को आज तो विश्राम दो मुक्त मन रसराज की श्रंगार की बातें करो। |
मुस्कराकर, आपने, देखा इधर, मैं देखता हूँ आपके दिल में जो उपजा, वो शजर मैं देखता हूँ भाव उपजा, उठ गयी, पर लाज से फिर झुक गयी, गिर के उठती, उठ के गिरती, हर नज़र मैं देखता हूँ। |
प्रेम डगरिया की पुलिया तो, गोरी अभी अधूरी है, बीच समय की बहती नदिया भी अपनी मजबूरी है, पल-पल, क्षण-क्षण, समय कट रहा है, सखियों से कह देना, देर नहीं पिय से मिलने में, बिछिया भर की दूरी है। |
इसी क्रम में आगे बढ़ें तो आता है एक गीत, जो इस प्रकार है:
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन,
सहमी सी बैठी, नवेली दुल्हन।
युगों युगों के बाद रात इक, यूँ ही नही लजाई है,
बाबुल के अंगना से गोरी, पिय के घर को आई है।
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन।
रूप की मादक मदिरा मुझपर, आज प्रिये तू छलका दे।
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन।
जीवन की बगिया में पगली, जब दो सुमन खिलेंगे।
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन।
वर लूँगी मैं बिना लजाये, ये हैं मेरे अपने।
पश्चिम में डूब गयी, सूरज किरन।