अविवादित है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। सामाजिक होने के कारण स्वाभाविक है कि सामाजिक और सांस्कृतिक उत्सव भी होते हैं। हम सभी अपने-अपने तरह से उत्सव मनाते हैं, उत्सव का आनंद लेते हैं। आर्थिक विसंगतियों के चलते उत्सव के आनंद की परिभाषा में स्तरीय अंतर स्वाभाविक है।
विचार का प्रश्न मात्र इतना है कि हमारी उत्सव की परिभाषा में क्या हम किसी ऐसे को शामिल कर सकते हैं जो आर्थिक रूप से हमसे कमज़ोर है। इन्हीं विचारों से जन्मी है यह ग़ज़ल जिसे एक आईना बनाकर प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसमें हम देखें कि उत्सव के हमारे आनंद में हम क्या वृद्धि कर सकते हैं। यही कामना है।
नगर ने गॉंव के हिस्से की बिजली फूँक डाली है
यहॉं पर रात काली है, वहॉं रौशन दीवाली है।
बड़ी तरकीब से तरकीब ये तुमने निकाली है
वतन खुशहाल दिखलाती हुई झॉंकी निराली है।
बहुत छोटा सा इक अरमॉं लिये मायूस है बचपन
मगर मजबूर हैं मॉं-बाप, उनकी जेब खाली है।
खटा दिन रात, वो ये सोचकर, उत्सव मनायेगा
उसे बाज़ार ने बोला कि तेरा नोट जाली है।
कई घर मॉंजकर बर्तन, बचाई जो रकम मॉं ने
चुरा कर एक बेटे ने, जुए की फ़ड़ जमा ली है।
फ़सल अच्छी हुई सोचा सयानी का करें गौना
रकम फ़र्जी हिसाबों में महाजन ने दबा ली है।
कभी था राम ने मारा, उसी मारीचि के मृग ने
बिखर कर हर किसी दिल में जगह अपनी बना ली है।
सदा ही ईदो-दीवाली मनाई साथ में हम ने
सियासत ने मगर दो भाइयों में फ़ूट डाली है।
सियासत वायदे करती है पर पूरे नहीं करती
यहॉं का वायदा तो सिर्फ़ शब्दों की जुगाली है।
तुम्हें अहसास भी इसका कभी होता नहीं शायद
तुम्हारी हरकतों ने देश की पगड़ी उछाली है।
नहीं मॉंगा कभी तुझसे खुदा खुद के लिये लेकिन
दुआ सबके लिये लेकर खड़ा दर पर सवाली है।
चलो संकल्प लें स्वागत में इक दीपक सजाने का
धुँए औ शोर से जो मुक्त हो, सच्ची दीवाली है।
सभी उत्सव, सभी के हैं, चलो 'राही' यही ठानें
दिये दो हम जलायेंगे जहॉं भी रात काली है।
सादर
तिलक राज कपूर 'राही'