पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर इस बार तरही का जो मिसरा दिया गया है उसकी बह्र ग़ज़़ल साधना में लगे नये साधकों के लिये बड़े काम की है ऐसा मेरा मानना है। पहली बार ऐसा हुआ कि किसी तरही के लिये मुझे बहुत गंभीरता से प्रयास करना पड़ा, इस प्रयास में बहुत सा मसाला इकट्ठा हो गया और तरही की ग़ज़़ल भेजने के बाद ऐसा लगा कि इस बह्र पर कुछ और काम करना जरूरी है। इसी प्रयास में ‘अच्छा लगा’ रदीफ़ लेकर एक ग़ज़़ल पर काम कर रहा था कि ‘करवा चौथ’ की पूर्व रात्रि आ गयी और कुछ ऐसी अनुभूति हुई कि एक शेर ‘करवा चौथ’ पर बन गया। स्वाभाविक है कि इससे लोभ पैदा हो गया एक ग़ज़़ल ‘करवा चौथ’ को समर्पित करने का। मैं सामान्यतय: निजि जीवन से ग़ज़़ल के लिये अनुभूति नहीं ले पाता हूँ इसलिये कुछ समय लग गया और ग़ज़़ल आज ऐसा रूप ले सकी कि प्रस्तुत करने का साहस कर सकूँ। इस ग़ज़़ल के लिये प्रेरणा मिली ‘करवा चौथ’ से और साहस मिला प्राण शर्मा जी की ग़ज़़लों से जिनमें निजि पलों की खूबसूरती देखते ही बनती है।
यह ग़ज़़ल विशेष रूप से करवा चौथ को समर्पित है। इसका पूरा आनंद गुनगुना कर लेने के लिये ‘कल चौदवीं की रात थी, शब भर रहा चर्चा तेरा’ या ‘ये दिल, ये पागल दिल मेरा, क्यों बुझ गया, आवारगी’ की लय का स्मरण करें।
ग़ज़़ल
छूकर इसे, तुमने किया, खुश्बू भरा, अच्छा लगा,
बदला हुआ, स्वागत भरा, जब घर मिला, अच्छा लगा।
नादान थे, अनजान थे, परिचित न थे, लेकिन हमें,
जब दिल मिले, रिश्ता लगा, जाना हुआ, अच्छा लगा
जब सात फेरों के वचन से जन्म सातों बॉंधकर
तूने मुझे, मैनें तुझे, अपना लिया, अच्छा लगा।
तुमने कहा, मैनें सुना, मैनें कहा, तुमने सुना,
सुनते सुनाते वक्त ये, अपना कटा, अच्छा लगा।
वो फासला, जो था बना, ग़फ़्लत भरी, इक धुँध से,
कोशिश हमारी देखकर, जब मिट गया, अच्छा लगा।
तुम सामने बैठे रहो, श्रंगार मेरा हो गया,
इस बार करवा चौथ पर, तुमने कहा, अच्छा लगा।
‘राही’ कटेगी जिन्दगी, महकी हुई, खुशियों भरी,
इस बात का, जब आपने, वादा किया, अच्छा लगा।
तिलक राज कपूर 'राही ग्वालियरी'
Wednesday, October 27, 2010
Sunday, October 3, 2010
सांप्रदायिक सद्भाव पर एक ग़ज़ल
तमाम शंकाओं, कुशंकाओं के बीच आखिर, एक बहुप्रतीक्षित फ़ैसला आ ही गया और देश के जन-जन ने संपूर्ण विषय को न्यायपालिका का कार्यक्षेत्र मानकर; निर्णय को सहजता से स्वीकार कर साम्प्रदायिक सद्भाव का उदाहरण दिया। देश का जन-जन इस सांप्रदायिक सद्भाव के लिये हार्दिक बधाई का पात्र है और ऐसे हर सद्भावी को आज की ग़ज़ल समर्पित है। इस ग़ज़ल का कोई भी शेर मेरा नहीं, यह केवल और केवल जन-जन की भावनाओं की अभिव्यक्ति का प्रयास है।
सिर्फ़ एक शब्द 'इनायत' को समझने के लिये शब्दकोष खोला और सिर्फ़ 'इ' से आरंभ होने वाले इतने हमकाफि़या शब्द मिल गये कि स्वयं को रोकना कठिन हो गया। परिणाम सामने है कि सामान्य ग़ज़ल से कुछ अधिक ही शेर हो गये हैं। इससे एक स्थिति और पैदा हो गयी है कि हिन्दी बोलचाल में प्रयुक्त उर्दू शब्दों से बात आगे निकल गयी है। इसके निराकरण के लिये शब्दकोष में दिये गये अर्थ भी साथ में ही दे दिये हैं। इसमें कुछ हिन्दीभाषियों को आपत्ति तो हो सकती है पर आशा है कि हिन्दी में प्रचलित शब्दों से अधिक उर्दू के प्रयोग को क्षमा करेंगे और शेर में कही बात के दृष्टिकोण से देखेंगे कि इन शब्दों के प्रयोग से क्या बात निकल कर सामने आयी है।
उर्दू शब्दों का मेरा ज्ञान उतना ही है जितना हिन्दी फि़ल्मों में उर्दू का उपयोग, इसलिये हो सकता है कुछ त्रुटि रह गयी हो, मेरा विशेष अनुरोध है कि कोई उपयोग-त्रुटि हो तो मुझे अवगत अवश्य करायें जिससे अर्थ के अनर्थ की स्थिति न बन जाये।
इस ग़ज़ल में शहर को नगर के वज़्न में लिया गया है जिसपर स्वर्गीय दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल 'कहॉं चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये' के साथ विवाद समाप्त हो चुका है फिर भी एतराज़ होने पर कृपया इसे नगर पढ़ लें।
इस पोस्ट पर मेरा विशेष अनुरोध है कि सांप्रदायिक सद्भाव पर अपने सुविचार ब्लॉग पर अथवा मेल के माध्यम से अवश्य रखें जिससे सद्भावियों को और अधिक मानसिक संबल मिले। आपके सुविचारों के प्रति मेरी ओर से सम्मान अग्रिम रूप से स्वीकार करें। ग़ज़ल
कभी न हुक्म में उसके इदारत कीजिये साहब
सदाकत से सदा उसकी इताअत कीजिये साहब।
इदारत- संपादन, एडीटरी
इताअत- आज्ञा-पालन, फ़र्माबरदारी, सेवा, खिदमत
न उसकी राह चलने में इनाअत कीजिये साहब
उसी के नाम पर, लेकिन इनाबत कीजिये साहब
इनाअत- विलंब, देर ढील, सुस्ती
इनाबत- ईश्वर की ओर फि़रना, बुरे कामों से अलग हो जाना, तौबा करना
अगर कर पायें तो, इतनी इनायत कीजिये साहब
दिलों में फ़ूट की न अब, शरारत कीजिये साहब।
इनायत- कृपा
बड़ी मुश्किल से, अम्नो-चैन की तस्वीर पाई है
यही कायम रहे, ऐसी वकालत कीजिये साहब।
शहर के बंद रहने से कई चूल्हे नहीं जलते
न ऐसा हो कभी ऐसी इशाअत कीजिये साहब।
इशाअत- प्रचार, प्रसार
जुनूँ छाया है दिल में गर किसी को मारने का तो,
मेरी है इल्तिज़ा इसकी इताहत कीजिये साहब।
इताहत- मार डालना, हलाक करना
इताहत- मार डालना, हलाक करना
वो मेरा हो, या तेरा हो, या इसका हो, या उसका हो
सभी मज़्हब तो कहते हैं इआनत कीजिये साहब।
इआनत- सहायता, मदद, सहयोग
किसी मज़्हब में दुनिया के कहॉं नफ़्रत की बातें हैं
अगर वाईज़ ही भटकाये, खिलाफ़त कीजिये साहब।
वाईज़- धर्मोपदेशक
सियासत और मज़्हब जोड़ना फि़त्रत है शैतानी
इन्हें जोड़े अगर कोई, मलामत कीजिये साहब।
सियासत- राजनीति
मलामत- निंदा
जरूरी तो नहीं मंदिर औ गिरजा या हो गुरुद्वारा
सुकूँ मिलता जहॉं पर हो इबादत कीजिये साहब।
इबादत- उपासना, अर्चना, पूजा
अगर ये थम गया तो फिर तरक्की हो नहीं सकती
वतन चलता रहे ऐसी सियासत कीजिये साहब।
सियासत- राजनीति
सभी मज़्हब सिखाते हैं शरण में गर कोई आये
तो अपनी जान से ज्यादह हिफ़ाज़त कीजिये साहब।
हिफ़ाज़त- रक्षा, बचाव, देख-रेख
अगर हम दूरियों को दूर ही रक्खें तो बेहतर है
मिटाकर दूरियॉं सारी रफ़ाकत कीजिये साहब।
रफ़ाकत- मैत्री, दोस्ती
कहॉं धरती सिवा जीवन वृहद् ब्रह्मांड में जाना
किसी भी जीव से फिर क्यूँ शिकायत कीजिये साहब?
वकालत को अगर 'राही' बनाया आपने पेशा
न इन फ़िर्क़:परस्तों की हिमायत कीजिये साहब।
फ़िर्क़:परस्तों - साम्प्रदायिकता रखने वाले, साम्प्रादायिक भेदभाव फैलाकर आपस में लड़ाने वाले
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी
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