Sunday, August 21, 2011

एक ग़ज़ल- इस देश के जन जन को समर्पित

Untitled Documentइस बार वर्तमान-विषय प्रासंगिक एक ग़ज़ल आपके विचारार्थ प्रस्‍तुत है। हो सकता है कुछ मित्रों को यह ग़ज़ल नागवार गुज़रे, उनसे क्षमाप्रार्थना करने में मुझे कोई संकोच नहीं है। प्रश्‍न सोच के ध्रुवीकरण का है। जो मुझसे असहमत हों उनसे तो मैं निरर्थक अनुरोध भी नहीं करना चाहूँगा लेकिन जो सहमत हैं उनसे अवश्‍य मेरा अनुरोध है कि इस ग़ज़ल को आपके संपर्क क्षेत्र में पहुँचाने में मेरी सहायता अवश्‍य करें। इस ग़ज़ल पर उठाये गये प्रश्‍नों के उत्‍तर देने के लिये मैं दिन में एक बार अवश्‍य उपस्थित रहूँगा।


देखकर लोकतंत्र तालों में
लोग तब्‍दील हैं मशालों में।

अब तो उत्‍तर बहुत कठिन होंगे
इस दफ़्अ: आग है सवालों में।

कोंपलों के भी देखिये तेवर
वो बदलने लगी हैं भालों में।

एकता क्‍या है अब वो देखेंगे
बॉंटते आये हैं जो पालों में।

वायदे तो बहुत हुए लेकिन
क्‍या मिला है स्‍वतंत्र सालों में।

जो हमारे लहू में होनी थी
वो ही लाली है उनके गालों में।

आदमीयत कभी तो समझेंगे
भेडि़ये आदमी की खालों में।

इस लड़ाई में मिट गये हम तो
फिर मिलेंगे तुम्‍हें मिसालों में।

मंजि़लें ठानकर ये निकले हैं
अब न 'राही' फ़ँसेंगे चालों में।

बह्र: फ़ायलुन्, फ़ायलुन्, मफ़ाईलुन्