Friday, April 2, 2010

उसके मेरे दरम्‍यॉं यूँ फ़ासला कुछ भी नहीं

एक दिन गौतम राजऋषि के ब्‍लॉग पर गया तो कुमार विनोद की एक ग़ज़ल पढ़ने को मिली, अच्‍छी लगी। दिल ने कहा कि इसी तरह की ग़ज़ल कहनी है। दिल ने कहा तो दिमाग़ ने भी पूरा सहयोग देने का वादा किया और एहसासों को निमंत्रण भेज दिया कि भाई आओ तो कुछ कहें। एहसास ग़ज़ल की ओर बढ़ते दिखे तो शब्‍द कहॉं रुकते, उनके बिना तो एहसास व्‍यक्‍त हो नहीं सकते, सो वो भी चले आये और लीजिये ग़ज़ल हो गई तैयार।
नीरज भाई से चर्चा हुई तो उन्‍होंने बताया कि इसी रदीफ़ काफि़ये और बह्र पर राजेश रेड्डी जी ने भी एक ग़ज़ल कही थी जिसे जगजीत सिंह जी ने आवाज़ दी। जगजीत सिंह जी जिस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ देने को तैयार हो जायें उसके एहसासात के बारे में कहने कुछ नहीं रह जाता है।
मेरा प्रयास प्रस्‍तुत है:

उसके मेरे दरम्‍यॉं यूँ फ़ासला कुछ भी नहीं
सामने बैठा था पर उसने कहा कुछ भी नहीं।

उसका ये अंदाज़ मेरे दिल पे दस्‍तक दे गया
लब तो खुलते हैं मगर वो बोलता कुछ भी नहीं।

न तो मेरे ख़त का उत्‍तर, न शिकायत, न गिला,
क्‍या हमारे बीच में रिश्‍ता बचा कुछ भी नहीं।

देर तक सुनता रहा वो दास्‍ताने ग़म मिरी,
और फिर बोला कि इसमें तो नया कुछ भी नहीं।

बिजलियॉं कौंधी शहर में, बारिशें होने लगीं,
जिसने थे गेसू बिखेरे जानता कुछ भी नहीं।

लोग दब कर मर गये, सोते हुए फुटपाथ पर,
और तेरे वास्‍ते, ये हादसा कुछ भी नहीं।

देश में गणतंत्र को कायम भला कैसे करें,
रोज मंथन हो रहे हैं, हो रहा कुछ भी नहीं।

उसकी हालत में हो कुछ बदलाव, ये कहते हुए
बह गयीं नदियॉं कई, हासिल हुआ कुछ भी नहीं।

सुब्‍ह से विद्वान कुछ, सर जोड़ कर बैठे हैं पर,
मैनें पूछा तो वो बोले मस्‍अला कुछ भी नहीं ।

कौनसे मज़हब का सड़को पर लहू बिखरा है ये
जिससे पूछो, वो कहे, मुझको पता कुछ भी नहीं।

तुम जो ऑंखें भी घुमाओ, ये शहर घूमा करे,
मैं अगर चीखूँ भी तो मेरी सदा कुछ भी नहीं।

उसको ईक कॉंटा चुभा तो कट गये जंगल कई
और वो कहता है कि उसकी ख़ता कुछ भी नहीं।

इतने रिश्‍ते खो चुका 'राही' कि अब उसके लिये
दर्द की गलियों की ये तीखी हवा कुछ भी नहीं।

बह्र: फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फायलुन (2122, 2122, 2122, 212)
तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी