इस ब्लॉग पर मैं एक से ज्यादह पोस्ट एक माह में लगाने का इच्छुक नहीं पर परिस्थिति कुछ ऐसी बनी है कि इस बार बहुत कम अंतराल से एक नयी ग़ज़ल लगानी पड़ गयी। हुआ यूँ कि मेरे ही एक अन्य ब्लॉग 'कदम-दर-कदम' पर चर्चा के लिये जो ग़ज़ल प्राप्त हुई उसका हल निकालना एवरेस्ट पर चढ़ाई जैसा काम हो गया और एक उदाहरण ग़ज़ल लगाने की विवशता हो गयी जिससे उसपर काम करना व्यवहारिक हो सके। यह ग़ज़ल विशेष रूप से इसी के लिये कही गयी है। इसकी बह्र मफाईलुन् (1222 x 4) की आवृत्ति से बनी बह्र-ए-हज़ज़ मुसम्मन् सालिम है
ग़ज़ल
हमारे नाम लग जाये, तुम्हारे नाम लग जाये
मुहब्बत में न जाने कब कोई इल्ज़ाम लग जाये।
तुम्हारी याद ने मिटना है गर इक जाम पीने से
कभी पी तो नहीं लेकिन लबों से जाम लग जाये।
मेरी हर सॉंस पर लिक्खा तेरा ही नाम है दिलबर
दुपहरी थी तुम्हारे नाम पर अब शाम लग जाये।
न भाषा की, न मज़्हब की कोई दीवार हो बाकी
गले रहमान के तेरे, जो मेरा राम लग जाये।
करिश्मा ही कहेंगे लोग, कुदरत का अगर देखें
बबूलों में पले इक नीम में गर आम लग जाये।
जवॉं बहनें, रिटायर बाप, कबसे आस रखते हैं
खुदाया घर के बेटे का कहीं तो काम लग जाये।
ग़ज़ल के शेर ऐ लोगों निकाले कब निकलते हैं
कभी चुटकी में ये निकलें, कभी इक याम लग जाये।
किसानों की इबादत तो यही ऐ दोस्त होती है
फसल की चौकसी करना भले ही घाम लग जाये।
अगर दुश्मन हुआ जीवन तो चल इक काम हम करलें
इबादत में इसी की ये दिले बदनाम लग जाये।
सुना है ख़ौफ़ सा लगने लगा है आज संसद में
वहॉं की लाज रखने में कोई बन श्याम लग जाये।
कई फाके बिताकर दिल मेरा कहने लगा 'राही'
चलें बाज़ार में शायद हमारा दाम लग जाये।