Sunday, October 3, 2010

सांप्रदायिक सद्भाव पर एक ग़ज़ल


तमाम शंकाओं, कुशंकाओं के बीच आखिर, एक बहुप्रतीक्षित फ़ैसला आ ही गया और देश के जन-जन ने संपूर्ण विषय को न्‍यायपालिका का कार्यक्षेत्र मानकर; निर्णय को सहजता से स्‍वीकार कर साम्‍प्रदायिक सद्भाव का उदाहरण दिया। देश का जन-जन इस सांप्रदायिक सद्भाव के लिये हार्दिक बधाई का पात्र है और ऐसे हर सद्भावी को आज की ग़ज़ल समर्पित है। इस ग़ज़ल का कोई भी शेर मेरा नहीं, यह केवल और केवल जन-जन की भावनाओं की अभिव्‍यक्ति का प्रयास है।
सिर्फ़ एक शब्‍द 'इनायत' को समझने के लिये शब्‍दकोष खोला और सिर्फ़ 'इ' से आरंभ होने वाले इतने हमकाफि़या शब्‍द मिल गये कि स्‍वयं को रोकना कठिन हो गया। परिणाम सामने है कि सामान्‍य ग़ज़ल से कुछ अधिक ही शेर हो गये हैं। इससे एक स्थिति और पैदा हो गयी है कि हिन्‍दी बोलचाल में प्रयुक्‍त उर्दू शब्‍दों से बात आगे निकल गयी है। इसके निराकरण के लिये शब्‍दकोष में दिये गये अर्थ भी साथ में ही दे दिये हैं। इसमें कुछ हिन्‍दीभाषियों को आपत्ति तो हो सकती है पर आशा है कि हिन्‍दी में प्रचलित शब्‍दों से अधिक उर्दू के प्रयोग को क्षमा करेंगे और शेर में कही बात के दृष्टिकोण से देखेंगे कि इन शब्‍दों के प्रयोग से क्‍या बात निकल कर सामने आयी है।
उर्दू शब्‍दों का मेरा ज्ञान उतना ही है जितना हिन्‍दी फि़ल्‍मों में उर्दू का उपयोग, इसलिये हो सकता है कुछ त्रुटि रह गयी हो, मेरा विशेष अनुरोध है कि कोई उपयोग-त्रुटि हो तो मुझे अवगत अवश्‍य करायें जिससे अर्थ के अनर्थ की स्थिति न बन जाये।
इस ग़ज़ल में शहर को नगर के वज्‍़न में लिया गया है जिसपर स्‍वर्गीय दुष्‍यन्‍त कुमार की ग़ज़ल 'कहॉं चराग़ मयस्‍सर नहीं शहर के लिये' के साथ विवाद समाप्‍त हो चुका है फिर भी एतराज़ होने पर कृपया इसे नगर पढ़ लें।
इस पोस्‍ट पर मेरा विशेष अनुरोध है कि सांप्रदायिक सद्भाव पर अपने सुविचार ब्‍लॉग पर अथवा मेल के माध्‍यम से अवश्‍य रखें जिससे सद्भावियों को और अधिक मानसिक संबल मिले। आपके सुविचारों के प्रति मेरी ओर से सम्‍मान अग्रिम रूप से स्‍वीकार करें।
ग़ज़ल

कभी न हुक्‍म में उसके इदारत कीजिये साहब
सदाकत से सदा उसकी इताअत कीजिये साहब।
इदारत- संपादन, एडीटरी
इताअत- आज्ञा-पालन, फ़र्माबरदारी, सेवा, खिदमत


न उसकी राह चलने में इनाअत कीजिये साहब
उसी के नाम पर, लेकिन इनाबत कीजिये साहब
इनाअत- विलंब, देर ढील, सुस्‍ती
इनाबत- ईश्‍वर की ओर फि़रना, बुरे कामों से अलग हो जाना, तौबा करना

अगर कर पायें तो, इतनी इनायत कीजिये साहब
दिलों में फ़ूट की न अब, शरारत कीजिये साहब।
इनायत- कृपा

बड़ी मुश्किल से, अम्‍नो-चैन की तस्‍वीर पाई है
यही कायम रहे, ऐसी वकालत कीजिये साहब।

शहर के बंद रहने से कई चूल्‍हे नहीं जलते
न ऐसा हो कभी ऐसी इशाअत कीजिये साहब।
इशाअत- प्रचार, प्रसार

जुनूँ छाया है दिल में गर किसी को मारने का तो,
मेरी है इल्तिज़ा इसकी इताहत कीजिये साहब।
इताहत- मार डालना, हलाक करना

वो मेरा हो, या तेरा हो, या इसका हो, या उसका हो
सभी मज्‍़हब तो कहते हैं इआनत कीजिये साहब।
इआनत- सहायता, मदद, सहयोग

किसी मज्‍़हब में दुनिया के कहॉं नफ़्रत की बातें हैं
अगर वाईज़ ही भटकाये, खिलाफ़त कीजिये साहब।
वाईज़- धर्मोपदेशक

सियासत और मज्‍़हब जोड़ना फि़त्रत है शैतानी
इन्‍हें जोड़े अगर कोई, मलामत कीजिये साहब।
सियासत- राजनीति
मलामत- निंदा

जरूरी तो नहीं मंदिर औ गिरजा या हो गुरुद्वारा
सुकूँ मिलता जहॉं पर हो इबादत कीजिये साहब।
इबादत- उपासना, अर्चना, पूजा

अगर ये थम गया तो फिर तरक्‍की हो नहीं सकती
वतन चलता रहे ऐसी सियासत कीजिये साहब।
सियासत- राजनीति

सभी मज्‍़हब सिखाते हैं शरण में गर कोई आये
तो अपनी जान से ज्‍यादह हिफ़ाज़त कीजिये साहब।
हिफ़ाज़त- रक्षा, बचाव, देख-रेख

अगर हम दूरियों को दूर ही रक्‍खें तो बेहतर है
मिटाकर दूरियॉं सारी रफ़ाकत कीजिये सा‍हब।
रफ़ाकत- मैत्री, दोस्‍ती

कहॉं धरती सिवा जीवन वृहद् ब्रह्मांड में जाना
किसी भी जीव से फिर क्‍यूँ शिकायत कीजिये साहब?

वकालत को अगर 'राही' बनाया आपने पेशा
न इन फ़िर्क़:परस्‍तों की हिमायत कीजिये साहब।
फ़िर्क़:परस्‍तों - साम्‍प्रदायिकता रखने वाले, साम्‍प्रादायिक भेदभाव फैलाकर आपस में लड़ाने वाले

तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

50 comments:

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

बेहतरीन तजुर्बा है राही साहब. हमरी भी बधाई संग संग ले लीजिए साहब. अभी चंद रोज़ क़बल, हम कुछ लोग आपस में इसी बारे में बातें कर रहे थे. हमारे एक दोस्त ने कहा कि उन्होंने एक बड़ी ख़ूबसूरत कविता लिखी और एक गुणी जन को दिखाया. वो बोले, कविता अच्छी है, मगर ऐसा लग रहा है कि किसी ने डिक्शनरी से शब्द निकालकर बिखेर दिए हैं. भाव कहाँ है! ग़ज़ल कहना और सुनने वाला तुरत उसके मानी तक पहुँच जाए तो हो गया मुशायरा. लफ्ज़ हिंदी के हों या उर्दू के, जिनसे पढने वाला ख़ुद को जोड़ लेता है वो अपने हो जाते हैं और अपने से लगते हैं.
आपने अच्छा तजुर्बा किया है. लफ्ज़ भी हल्के चुने हैं. लेकिन आप ख़ुद महसूस करेंगे कि जिनमें आपने नए लफ्ज़ पिरोए हैं उनसे बाक़ी के शेर बेहतर लग रहे हैं. वैसे इस तरह का तजुर्बा एक बार तो करके देखना ही चाहिए. बधाई मेरी और शुभकमनाएँ.

निर्मला कपिला said...

भाई साहिब सब से पहले तो इस नायाब गज़ल के लिये बधाई लीजिये। दूसरी जो आपने उर्दू की बात कही है ये तो अपने आप मे भाईचारे का सन्देश है। जब हम सद्भाव से रहते हैं तो हम सब की हर चीज़ मे साँझ हो जाती हैऔर भाषा भी उसका अपवाद नही है। उर्दू ज़ुबान की नज़ाकते तो गज़ल मे चार चाँद लगा देती है। मेरा मानना है कि अगर इसे विशुद्ध हिन्दी मे कहा जाता तो शायद इतनी खूबसूरत न बनती। ये खूबसूरती ही हमारी एकता और सद्भाव की निशानी है। किसी एक शेर की बात करने की गुंजाईश ही आपने कहाँ छोडी है। हर एक शेर लाजवाब है। आज बहुत कुछ सीखने को मिला आपकी इस गज़ल से। फिर्काप्र्स्तों की बात छोडिये हमे सिर्फ अपनी बात करनी है कि हम सब मिल जुल कर प्रेम से रहें एक दूसरे को दिल से अपनायें। जितनी उर्दू हमारी है उतनी हिन्दी उनकी। फिर भाषायें तो जोडने का काम करती है। इस गज़ल के माध्यम से आपने बहुत अच्छा सन्देश दिया है । बधाई आपको। शुभकामनायें।

अरुण चन्द्र रॉय said...

आदरणीय कपूर साहब
तलवार की धार पर देश की साँसे अटकी थी .. दुआओं में हाथ ऊपर थे और मन में मंत्रोच्चार हो रहा था.. यह ग़ज़ल वहीँ से निकली हुई लगती है.... उर्दू के शब्द हमारी समझ में नहीं आते हैं लेकिन आपने जो उनका अर्थ साथ साथ रख दिया है इस से ग़ज़ल पढने का आनंद और भी बढ़ गया और निजी शब्दकोष भी थोडा समृद्ध हुआ.. शुभकामना सहित !

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढ़िया गजल है हर शेर जोरदार है। धर्म पर सियासत करने वालों और देश के प्रति समर्पित भावॊ को बहुत बढ़िया ढंग से प्रस्तुत किया है।बधाई स्वीकारें।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सभी मज्‍़हब सिखाते हैं शरण में गर कोई आये
तो अपनी जान से ज्‍यादह हिफ़ाज़त कीजिये साहब।
हिफ़ाज़त- रक्षा, बचाव, देख-रेख

अगर हम दूरियों को दूर ही रक्‍खें तो बेहतर है
मिटाकर दूरियॉं सारी रफ़ाकत कीजिये सा‍हब।
रफ़ाकत- मैत्री, दोस्‍ती

पूरी गज़ल सौहार्द का सन्देश देती हुई ....हर शेर दिल की गहराईयों में उतरता हुआ ...आभार

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 5-10 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

http://charchamanch.blogspot.com/


आपका इंतज़ार रहेगा

दिगम्बर नासवा said...

बड़ी मुश्किल से, अम्‍नो-चैन की तस्‍वीर पाई है
यही कायम रहे, ऐसी वकालत कीजिये साहब ..


सुभान अल्ला .... इस नायाब ग़ज़ल पर बहुत बहुत बधाई ..... हर शक्स को इस ग़ज़ल के ज़ज़्बे को समझना चाहिए .... ये तो दुनिया ज़रूर बदल जाएगी ... अपनी किस्मत हम खुद ही लिखते हैं .. और अमन और प्यार का वातावरण बने तो भारत सच में स्वर्ग हो जाएगा ...

pran sharma said...

BAHUT HEE BADHIYA GAZAL . IS SE
BADH KAR SADBHAVNAA KAA KOEE DOOSRA
SANDESH HO HEE NAHIN SAKTAA HAI.

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

अगर कर पायें तो, इतनी इनायत कीजिये साहब
दिलों में फ़ूट की न अब, शरारत कीजिये साहब।
बहुत खूब कहा है तिलक राज जी...
आज इसी पैगाम की ज़रुरत है.
अगर ये थम गया तो फिर तरक्‍की हो नहीं सकती
वतन चलता रहे ऐसी सियासत कीजिये साहब।
बहुत सही मशवरा जिस पर सभी को चलना चाहिए.

देवमणि पांडेय Devmani Pandey said...

बड़े ख़ूबसूरत ख़याल हैं, बधाई !

प्रदीप कांत said...

शहर के बंद रहने से कई चूल्‍हे नहीं जलते
न ऐसा हो कभी ऐसी इशाअत कीजिये साहब।

बढिया है

वन्दना अवस्थी दुबे said...

जरूरी तो नहीं मंदिर औ गिरजा या हो गुरुद्वारा
सुकूँ मिलता जहॉं पर हो इबादत कीजिये साहब।
बहुत सुन्दर गज़ल है तिलक जी. हर शेर बहुत खूबसूरत.

Udan Tashtari said...

आपको पढ़कर सदा ही आनन्द आ जाता है, बहुत उम्दा!!

RAVINDRA said...

सर जी, को हमारा प्रणाम
हम हैं एक बगिया के फूल
मानवता उपवन है हमारा,
वृक्ष हमारे भले अलग हो,
किन्तु एक है मूल

जय हिंद जय भारत

रवीन्द्र प्रभात said...

कभी न हुक्‍म में उसके इदारत कीजिये साहब
सदाकत से सदा उसकी इताअत कीजिये साहब।

बहुत खूबसूरत.बहुत उम्दा!

Subhash Rai said...

तिलकराज जी, आप जो बातें कहना चाहते हैं, वे बेहतरीन हैं, वक्त के अनुकूल हैं, सबके फरायज में शामिल हैं. पर आप ने खुद ही इतनी बाते कह दी हैं कि मैं क्या कहूं. जिस कविता या गजल को समझने के लिये शब्दकोश की मदद लेनी पड़े या शायर को खुद ही शब्दों के अर्थ देने पड़ें, वह अकादमिक महत्व की चीज तो हो सकती है, पर आम पाठक के मतलब की नहीं. फिर भी आप के मोह का मैं आदर करता हूं, दिल में कोई बात आ गयी तो उसे कर डालने में कोई हर्ज नहीं, आप ने दिल की सुनी और दिमाग से काम लिया, इसलिये हम इसे अर्थ कर -कर समझ ही लेंगे.

सदा said...

अगर हम दूरियों को दूर ही रक्‍खें तो बेहतर है
मिटाकर दूरियॉं सारी रफ़ाकत कीजिये सा‍हब।

बहुत ही सुन्‍दर पंक्तियां, बेहतरीन पंक्तियां,


आभारी हूं चर्चा मचं की जिसके माध्‍यम से आपके ब्‍लाग तक आना हुआ ।

मुकेश कुमार सिन्हा said...

बड़ी मुश्किल से, अम्‍नो-चैन की तस्‍वीर पाई है
यही कायम रहे, ऐसी वकालत कीजिये साहब।


sir itni pyari rachna.......sayad main khud ko yahan comment dene layak hoon bhi ya nahi.....samajh nahi pa raha......:)

स्वप्निल तिवारी said...

adbhut hai yah rachna ... hindi urdu isme usi tarah ghul hain jis tarah se is desh kee viraat saskriti me sare dharm ....sach much aapne yahaan ki aawam ke ehsas ko shabd de diye ...aisi hee aman o chain baantne wali rachnaon ki zaroorat hai ...

Dr Xitija Singh said...

जरूरी तो नहीं मंदिर औ गिरजा या हो गुरुद्वारा
सुकूँ मिलता जहॉं पर हो इबादत कीजिये साहब।


अगर ये थम गया तो फिर तरक्‍की हो नहीं सकती
वतन चलता रहे ऐसी सियासत कीजिये साहब।


सभी मज्‍़हब सिखाते हैं शरण में गर कोई आये
तो अपनी जान से ज्‍यादह हिफ़ाज़त कीजिये साहब।
bahut khoob ....


bahut hi sunder rachna tilak ji .... badhai aur shubhkaamnaein..

मेरे भाव said...

अगर कर पायें तो, इतनी इनायत कीजिये साहब
दिलों में फ़ूट की न अब, शरारत कीजिये साहब।
aaj waqt ki yahi maang hai aur aman ka takaja bhi... behtar sandesh

कुमार संतोष said...

बहुत ही सुंदर !

अच्छी ग़ज़ल, हर शेर एक से बढ़ कर एक !
हार्दिक शुभकामनाएं !

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

ये ग़ज़ल खुद एक सद्भाव का प्रतीक है ... हिंदी और उर्दू को घोलकर ऐसे मिलाये हैं जैसे की हिन्दू-मुस्लिम एक दुसरे का हाथ पकड़कर साथ साथ चल रहा हो ... नहीं मैं ये नहीं कहता हूँ की कोई भाषा किसी एक धर्म का ही होकर रह जाये पर बृहद प्रयोग के हिसाब से देखें तो यही है ...

rashmi ravija said...

जरूरी तो नहीं मंदिर औ गिरजा या हो गुरुद्वारा
सुकूँ मिलता जहॉं पर हो इबादत कीजिये साहब।

बहुत ही शानदार ग़ज़ल है हर-एक शेर बहुत ही बेहतरीन

Rajiv said...
This comment has been removed by the author.
Rajiv said...

अगर हम दूरियों को दूर ही रक्‍खें तो बेहतर है
मिटाकर दूरियॉं सारी रफ़ाकत कीजिये सा‍हब।
रफ़ाकत- मैत्री, दोस्‍ती

कपूर साहब,
साम्‍प्रादायिक सद्भाव पर आधारित आपकी सारी गजलें सम्सम्यीक हैं और मन को छूती हैं.हमारी समझ इतनी नहीं है मगर आपके अल्फाजों ने स्तब्ध कर दिया है.
सादर

नीरज गोस्वामी said...

जरूरी तो नहीं मंदिर औ गिरजा या हो गुरुद्वारा
सुकूँ मिलता जहॉं पर हो इबादत कीजिये साहब।

एक लफ्ज़ में कहूँ तो कमाल...बेमिसाल...लाजवाब...वाह..वाह...वाह.
कपूर साहब ये हुस्न बिखेरना आपके ही बस की बात है...हमारे जैसे नौसिखिए तो इस तरह का तजुर्बा सोच भी नहीं सकते.
वैसे आपने एक तीर से दो निशाने साधे हैं...आपने अपने उर्दू ज्ञान का परिचय हमें करवाया है और देश प्रेम का सन्देश भी लगे हाथ दे दिया है...गज़ब.

नीरज

Sanjay Grover said...

बहुत ख़ूब, कपूर साहब ! अपना तो मानना है कि बात/कंटेट में वज़न ज़्यादा ज़रुरी है। अगर वह है तो शहर और नगर का फ़र्क़ ज़्यादा मायने नहीं रखता। शायर तो वैसे भी आवारगी का हमसफ़र है, उसे इतना कट्टर और तंगनज़र नहीं होना चाहिए। पुराने उस्ताद भी अपनी सहूलियत के हिसाब से छूटें लेते रहे हैं। बहरहाल आपके कुछेक शेरों को खास तौर पर दोहराना चाहूंगा:

जुनूँ छाया है दिल में गर किसी को मारने का तो,
मेरी है इल्तिज़ा इसकी इताहत कीजिये साहब।

सियासत और मज्‍़हब जोड़ना फि़त्रत है शैतानी
इन्‍हें जोड़े अगर कोई, मलामत कीजिये साहब।

अगर हम दूरियों को दूर ही रक्‍खें तो बेहतर है
मिटाकर दूरियॉं सारी रफ़ाकत कीजिये सा‍हब।

रेखा श्रीवास्तव said...

किस किस पंक्ति को उतार कर रखों, बहुत सुन्दर बात कही है, अर्थ लिख दिए हैं तो समझाने में बहुत सुविधा रही. इस समय सबसे अनुकूल बात कही है अपने . ऐसे ही शायरों के प्रभावित होकर लोग अपने रास्ते छोड़ कर अमन और चैन कि बात करने लगे हैं. इस समय देश में अदालत के फैसले का जो सम्मान किया हैवह
वास्तव में भारतीय संस्कृति के अनुकूल है.

संजय भास्‍कर said...

बड़े ख़ूबसूरत ख़याल हैं, बधाई !

योगेन्द्र मौदगिल said...

behtreen kaha aapne...badhai bhai ji....

शारदा अरोरा said...

कभी न हुक्‍म में उसके इदारत कीजिये साहब
सदाकत से सदा उसकी इताअत कीजिये साहब।

इस शेर का भाव बहुत पसंद आया कि ईश्वर के हुक्म में कुछ एडिट भी न करो , जैसा है वैसा ही स्वीकार करो और उसकी मर्जी से चलो .

विनोद कुमार पांडेय said...

संवेदनाओं के साथ साथ बहुत बढ़िया शब्द संयोजन ...सुंदर ग़ज़ल के लिए धन्यवाद

Anonymous said...

क्या खूब कही..बहुत सुन्दर गज़ल ..सभी शेर उम्दा है..बहुत-बहुत बधाई कपूर साहब!!

Anonymous said...

क्या खूब कही..बहुत सुन्दर गज़ल ..सभी शेर उम्दा है..बहुत-बहुत बधाई कपूर साहब!!

अनामिका की सदायें ...... said...

बेहतरीन गज़ल. सुंदर भाव.

gyaneshwaari singh said...

किसी मज्‍़हब में दुनिया के कहॉं नफ़्रत की बातें हैं
अगर वाईज़ ही भटकाये, खिलाफ़त कीजिये साहब।

बहुत अच्छी गज़ल कही अपने...

monali said...

Nice lines.. cudnt understand them widout da help of ur levels... m sure dat following u 'll definitely gonna help me in imroving my language..

Narendra Vyas said...

आदरणीय तिलक जी की ग़ज़लें तो हमेशा ही सौष्ठव और आशारों से सजी-धजी होती हैं..और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि आपकी ग़ज़लों में एक समष्टि सन्देश निहित होता है..जो आपके रचनाधर्म को बखूबी एक स्तर पर ले जाता है ..
जरूरी तो नहीं मंदिर औ गिरजा या हो गुरुद्वारा
सुकूँ मिलता जहॉं पर हो इबादत कीजिये साहब।

इस शेर में जो भाव व्यक्त हुवे हैं...खासकर मुझे बहुत ही यथार्थ और अच्छे लगे..इसलिए मैंने इसे याद भी कर लिया...!
एक बार फिर अपनी चिर-परिचित अंदाज़ में आप द्वारा एक मुकम्मल ग़ज़ल से रूबरू करवाने के लिए आपका तहेदिल से शुक्रिया ! आभार, नमन !!

राजेश उत्‍साही said...

अगर कर पायें तो, इतनी इनायत कीजिये साहब
दिलों में फ़ूट की न अब, शरारत कीजिये साहब।

बड़ी मुश्किल से, अम्नोइ-चैन की तस्वी र पाई है
यही कायम रहे, ऐसी वकालत कीजिये साहब।

शहर के बंद रहने से कई चूल्हेव नहीं जलते
न ऐसा हो कभी ऐसी इशाअत कीजिये साहब।

किसी मज्हब में दुनिया के कहॉं नफ़्रत की बातें हैं
अगर वाईज़ ही भटकाये, खिलाफ़त कीजिये साहब।

अगर ये थम गया तो फिर तरक्की हो नहीं सकती
वतन चलता रहे ऐसी सियासत कीजिये साहब।

कहॉं धरती सिवा जीवन वृहद् ब्रह्मांड में जाना
किसी भी जीव से फिर क्यूँ शिकायत कीजिये साहब?

वकालत को अगर 'राही' बनाया आपने पेशा
न इन फ़िर्क़:परस्तों की हिमायत कीजिये साहब।
राही जी आदर के साथ मेरी प्रतिक्रिया है कि आपकी ग़ज़ल में केवल इतने ही शेर भी होते तो भी बात वही निकलती जो अब निकल रही है। दूसरे अर्थ में कहूं तो एक आम आदमी या आम पाठक के लिए इतना ही पर्याप्‍त है।
शुभकामनाएं।

अनुपमा पाठक said...

bahut sundar abhivyakti....
dhanyavad sangeeta ji ka,charchamanch ka...., aapke is blog tak aane ka awsar mila!
shubhkamnayen!

देवेन्द्र पाण्डेय said...

इताअत,इनाअत,इनाबत,इशाअत,इताहत,इआनत,रफाकत जैसे लफ्जों से रूबरू कराने के लिए शुक्रिया। अर्थ लिखे न होते गज़ल समझ ही न पाता। लिख कर प्रयास किया कि याद हो जाए।
गज़ल के बारे में क्या लिखूं..लाजवाब है हर एक शेर।

किसी मज्‍़हब में दुनिया के कहॉं नफ़्रत की बातें हैं
अगर वाईज़ ही भटकाये, खिलाफ़त कीजिये साहब।
..वाह!

Pawan Kumar said...

कपूर साहब
मैं इस लायक नहीं कि आपकी ग़ज़ल पर कमेन्ट कर सकूं.........सिर्फ सीख सकता हूँ आपसे ! फिर भी......!
कभी न हुक्‍म में उसके इदारत कीजिये साहब
सदाकत से सदा उसकी इताअत कीजिये साहब।
जानलेवा मतला............
अगर कर पायें तो, इतनी इनायत कीजिये साहब
दिलों में फ़ूट की न अब, शरारत कीजिये साहब।
और
बड़ी मुश्किल से, अम्‍नो-चैन की तस्‍वीर पाई है
यही कायम रहे, ऐसी वकालत कीजिये साहब।
आज का सच यही है....आपकी इस इल्तिजा में हमारा स्वर भी शामिल समझिये......!
किसी मज्‍़हब में दुनिया के कहॉं नफ़्रत की बातें हैं
अगर वाईज़ ही भटकाये, खिलाफ़त कीजिये साहब।
********
शहर के बंद रहने से कई चूल्‍हे नहीं जलते
न ऐसा हो कभी ऐसी इशाअत कीजिये साहब।
काश ये सब समझ पते...तल्ख़ बयानी का शुक्रिया कपूर साहब........दाद देने का सलीका भी नहीं आता हमें तो.
जरूरी तो नहीं मंदिर औ गिरजा या हो गुरुद्वारा
सुकूँ मिलता जहॉं पर हो इबादत कीजिये साहब।
सबसे सच्चा शेर.........कुर्बान हो लिए सर जी हम तो......!

अगर ये थम गया तो फिर तरक्‍की हो नहीं सकती
वतन चलता रहे ऐसी सियासत कीजिये साहब।
काश कुछ रहनुमा भी समझ ले इस बात को......

इस्मत ज़ैदी said...

अगर कर पायें तो, इतनी इनायत कीजिये साहब
दिलों में फ़ूट की न अब, शरारत कीजिये साहब।
वाह!इस समझ की बेहद ज़रूरत है


वो मेरा हो, या तेरा हो, या इसका हो, या उसका हो
सभी मज्‍़हब तो कहते हैं इआनत कीजिये साहब।
बिल्कुल सही कहा आपने


अगर ये थम गया तो फिर तरक्‍की हो नहीं सकती
वतन चलता रहे ऐसी सियासत कीजिये साहब।
सियासत वाले लोग वतन के बारे में सोचते तो
इस गुज़ारिश की ज़रूरत नहीं होती


सभी मज्‍़हब सिखाते हैं शरण में गर कोई आये
तो अपनी जान से ज्‍यादह हिफ़ाज़त कीजिये साहब।
बहुत ख़ूब!ये तो हमारे देश की संस्कृति का हिस्सा भी है

देर से आने के लिये क्षमा चाहती हूं

इस्मत ज़ैदी said...
This comment has been removed by the author.
dheer said...

Tilak saHeb!
namaskaar!
deree ke liye muafi chaahtaa huN. pehli fursat meN aapke shaahkaar par nazar paDee to dil baagh baagh ho gayaa. is khoobsoorat ghazal par meree hazaar_haa daad qabool kiijiye.
saadar
Dheer

शरद कोकास said...

बहुत बढ़िया राही साहब ।

jogeshwar garg said...

अच्छा प्रयोग है राही साहब ! बधाई !

Devi Nangrani said...

AB main kya kahoon. Nishabta mein hi sab shamil hai..WwwwwwwwwwwwwwwwwOOOWWWWWWW!!

Rajeysha said...

जरूरी तो नहीं मंदिर औ गिरजा या हो गुरुद्वारा
सुकूँ मिलता जहॉं पर हो इबादत कीजिये साहब।

Par sahiab, un shaitano ki kya kahiye jinhe darindgi dikhane me hi sukoon mileta hai. Inko ignore karke jeena bhi mushkil hai,kyonki ye amanparaston ko ignore nahi kar sakte..