मॉं, एक शब्द है, एक तसव्वुर है, एक एहसास है, जिससे शायद ही कोई रचनाधर्मी अछूता रहा हो। बहुत कुछ लिखा गया है 'मॉं' को केन्द्रीय पात्र मानकर। फिर भी कुछ न कुछ नया कहने की संभावना बनी रहती है।
आज प्रस्तुत नज़्म जब कही थी तब मेरी 'मॉं' का भौतिक अस्तित्व था, अब नहीं। इसे 27 मार्च को उनकी चौथी पुण्यतिथि पर पोस्ट करने का इरादा था लेकिन परिस्थितियॉं कुछ ऐसी रहीं कि ऐसा करना संभव न हो सका। आज 22 अप्रैल को उनके जन्मदिवस के स्मरण के रूप में अवसर बना है इसे पोस्ट करने का।
वज़ीर आग़ा साहब की एक ग़ज़ल पढ़ी थी करीब 30 वर्ष पहले जिसके दो शेर दिल में बस गये थे कि:
मैला बदन पहन के न इतना उदास हो
लाजि़म कहॉं कि सारा जहां खुशलिबास हो।
और
इतना न पास आ कि तुझे ढूँढते फिरें
इतना न दूर जा कि हम:वक्त पास हो।
इस दूसरे शेर से आभार सहित एक भाव लिया है प्रस्तुत नज़्म में।
मैं; यूँ तो नज़्म नहीं कहता, मुझसे हो नहीं पाता, बहुत कठिन काम है; लेकिन न जाने कब किस हाल में कुछ शब्द ऐसा रूप ले सके जिन्हें एक नज़्म के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्रबुद्ध पाठक ही बता पायेंगे कि ये नज़्म है या नहीं।
बहुत धीरे से देकर थपकियॉं मुझको सुलाती थी,
कभी मैं रूठ जाता था तो अनथक वह मनाती थी।
नज़र से दूर जो जितना, वो दिल के पास है उतना,
ये रिश्ता दूरियों का वो मुझे अक्सर बताती थी।
अभी कुछ देर पहले ही
जो उसकी याद का झोंका
ज़ेह्न के पास से गुजरा
मुझे ऐसा लगा जैसे
कहीं वो मुस्कुराई है,
मगर वो दूर है इतनी
कि मुझ तक आ नहीं सकती।
मगर वो दूर है इतनी कि मुझ तक आ नहीं सकती,
बस उसकी याद आई है, बस उसकी याद आई है।
18 comments:
नज़र से दूर जो जितना, वो दिल के पास है उतना,
ये रिश्ता दूरियों का वो मुझे अक्सर बताती थी।
बहुत ही प्रभावी पंक्तियाँ हैं ये.
दिल को छू गयी आप की नज़्म .
बहुत ही अच्छी भावपूर्ण रचना है ।
आदरणीय तिलक जी ,
बहुत भावपूर्ण रचना है ,
मां शब्द ही ऐसा है जो ठंडी हवा के झोंके का एह्सास कराता है ,
ममता के सागर को ही मां कहते हैं,
उसके सामीप्य का एहसास ही मन मस्तिष्क को शान्ति प्रद्दान करता है
जिसे आप की नज़्म परिभाषित कर रही है
बहुत ख़ूब!
wow !!!!!!!!
bahut khub
shkehar kumawat
माँ को प्रणाम ! आपको भी ............आपने माँ से जो भावपूर्ण मुलाकात कराई
नज़र से दूर जो जितना, वो दिल के पास है उतना,
ये रिश्ता दूरियों का वो मुझे अक्सर बताती थी।
मां क्या है, ये उससे , या उसके दूर चले जाने पर ही महसूस होता है. बहुत सुन्दर नज़्म.
Bahut gahare tatha komal bhav!Khushnaseeb hoti hain wo maayen jinhen unki aulad is tarah yaad kare..
भाव पूर्ण पंक्तियाँ हैं नज़्म की.
सचमुच अहसास होता है जैसे माँ तो है यहीं...मेरे पीछे खड़ी मुझको आदेश देती हुई. तू ऐसा कर, तू भर पेट खाया कर. हमेशा साथ चलने वाला रिश्ता है "माँ"
तिलक साहब. नमस्कार ,
बहुत धीरे से देकर थपकियॉं मुझको सुलाती थी,
कभी मैं रूठ जाता था तो अनथक वह मनाती थी।
माँ के ऊपर जितना लिखा जाता है सुन्दर ही होता है, आपकी इन पंक्तियों में तो माँ की ममता कूट कूट कर भरी है!
नमस्कार तिलक जी,
"माँ" के बारे में जितना कहा जाये उतना कम है क्योंकि कई बार तो लफ्ज़ भी हार मान जाते हैं..................
आपकी नज़्म माँ के उस असीम प्यार को आगे बढ़ा रही है.
भाव अच्छे हैं और दिल को छु रहे हैं.
माँ की स्मृति में बहुत भावपूर्ण रचना ।
माँ तो होती ही है ऐसी।
कमाल की पंक्तियाँ तिलक राज जी .... दिल में उतार जाती हैं सीधे ... वैसे भी माँ से जुड़ा हर शब्द ... हर चीज़ नर्म की शाल की तरह सुकून देती है ......
अभी कुछ देर पहले ही
जो उसकी याद का झोंका
ज़ेह्न के पास से गुजरा
मुझे ऐसा लगा जैसे
कहीं वो मुस्कुराई है,
हाँ तिलकराज जी मुझे भी ये अहसास आज हुआ है क्योंकि आज मेरी "माँ" कि पहली बरसी है।
आपकी नज़म बिल्कुल सही है जो आज के दिन मुझे पढना नसीब हुई। भगवान आपकी माताजी और मेरी माता की रुह को शांति दे।
maa.....is ek lafz ke aage samast srishti bachpan ke raste tay karti hai, her kaha yaad karti hai ...
bahut hi achha likha hai
अभी कुछ देर पहले ही
जो उसकी याद का झोंका
ज़ेह्न के पास से गुजरा
मुझे ऐसा लगा जैसे
कहीं वो मुस्कुराई है....
तिलकराज जी, आपकी नज़्म ने भावुक भी किया, और ज़ेहन को सुकून भी दिया है....
मां हमेशा दुआ बनकर हमारे साथ रहती है.
माँ के लिए तो कुछ भी लिखा जाये तिलक जी वह नमन योग्य होता है .....
आपने तो ग़ज़ल के तेवर में ही नज़्म लिखी है .....
बहुत धीरे से देकर थपकियॉं मुझको सुलाती थी,
कभी मैं रूठ जाता था तो अनथक वह मनाती थी।
वाह ...माँ की गोद में बीता .बचपन कभी भूलता है भला .....!!
आदरणीय तिलकराजजी ,
प्रणाम है आपको और आपकी नज़्म को !
सलाम है मां को और मां से मुतअल्लिक जज़्बे को !
गत वर्ष,एक अखिल भारतीय मुशायरे में फतेहपुर में नज़ीर फतेहपुरी साहब मां को याद करते हुए कलाम पढ़ने के दौरान मंच पर फूट फूट कर रोने लगे थे । मंच पर मुझ सहित तमाम शुअरा की भी आंखें भर आई , गला रुंध गया ……।
रूह को छुआ है आपने भी…
"अभी कुछ देर पहले ही
जो उसकी याद का झोंका
ज़ेह्न के पास से गुजरा
मुझे ऐसा लगा जैसे
कहीं वो मुस्कुराई है…"
मर्मस्पर्शी पंक्तियां हैं ।
परमात्मा की कृपा से मैं अपनी मां की छत्र-छाया में हूं !
BAHUT DINO BAAD PADHAA MAGAR AANKHEN NAM HO GAYEE. AAPAKE MAATAA JEE KO VINMAR SHRADHANJALI
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