एक दिन गौतम राजऋषि के ब्लॉग पर गया तो कुमार विनोद की एक ग़ज़ल पढ़ने को मिली, अच्छी लगी। दिल ने कहा कि इसी तरह की ग़ज़ल कहनी है। दिल ने कहा तो दिमाग़ ने भी पूरा सहयोग देने का वादा किया और एहसासों को निमंत्रण भेज दिया कि भाई आओ तो कुछ कहें। एहसास ग़ज़ल की ओर बढ़ते दिखे तो शब्द कहॉं रुकते, उनके बिना तो एहसास व्यक्त हो नहीं सकते, सो वो भी चले आये और लीजिये ग़ज़ल हो गई तैयार।
नीरज भाई से चर्चा हुई तो उन्होंने बताया कि इसी रदीफ़ काफि़ये और बह्र पर राजेश रेड्डी जी ने भी एक ग़ज़ल कही थी जिसे जगजीत सिंह जी ने आवाज़ दी। जगजीत सिंह जी जिस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ देने को तैयार हो जायें उसके एहसासात के बारे में कहने कुछ नहीं रह जाता है।
मेरा प्रयास प्रस्तुत है:
उसके मेरे दरम्यॉं यूँ फ़ासला कुछ भी नहीं
सामने बैठा था पर उसने कहा कुछ भी नहीं।
उसका ये अंदाज़ मेरे दिल पे दस्तक दे गया
लब तो खुलते हैं मगर वो बोलता कुछ भी नहीं।
न तो मेरे ख़त का उत्तर, न शिकायत, न गिला,
क्या हमारे बीच में रिश्ता बचा कुछ भी नहीं।
देर तक सुनता रहा वो दास्ताने ग़म मिरी,
और फिर बोला कि इसमें तो नया कुछ भी नहीं।
बिजलियॉं कौंधी शहर में, बारिशें होने लगीं,
जिसने थे गेसू बिखेरे जानता कुछ भी नहीं।
लोग दब कर मर गये, सोते हुए फुटपाथ पर,
और तेरे वास्ते, ये हादसा कुछ भी नहीं।
देश में गणतंत्र को कायम भला कैसे करें,
रोज मंथन हो रहे हैं, हो रहा कुछ भी नहीं।
उसकी हालत में हो कुछ बदलाव, ये कहते हुए
बह गयीं नदियॉं कई, हासिल हुआ कुछ भी नहीं।
सुब्ह से विद्वान कुछ, सर जोड़ कर बैठे हैं पर,
मैनें पूछा तो वो बोले मस्अला कुछ भी नहीं ।
कौनसे मज़हब का सड़को पर लहू बिखरा है ये
जिससे पूछो, वो कहे, मुझको पता कुछ भी नहीं।
तुम जो ऑंखें भी घुमाओ, ये शहर घूमा करे,
मैं अगर चीखूँ भी तो मेरी सदा कुछ भी नहीं।
उसको ईक कॉंटा चुभा तो कट गये जंगल कई
और वो कहता है कि उसकी ख़ता कुछ भी नहीं।
इतने रिश्ते खो चुका 'राही' कि अब उसके लिये
दर्द की गलियों की ये तीखी हवा कुछ भी नहीं।
बह्र: फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फायलुन (2122, 2122, 2122, 212)
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी
33 comments:
देश में गणतंत्र को कायम भला कैसे करें,
रोज मंथन हो रहे हैं, हो रहा कुछ भी नहीं।
आपका प्रयास अच्छा लगा...
मैं उनकी ये पंक्तियाँ अक्सर गुनगुना हूँ.
इक अनजाना सा डर और उम्मीद की हलकी किरण
कुल मिलाकर जिंदगी से क्या मिला कुछ भी नहीं
उसका ये अंदाज़ मेरे दिल पे दस्तक दे गया
लब तो खुलते हैं मगर वो बोलता कुछ भी नहीं।
न तो मेरे ख़त का उत्तर, न शिकायत, न गिला,
क्या हमारे बीच में रिश्ता बचा कुछ भी नहीं।
तिलक राज जी .. ये प्रयास नही आपका बढ़प्पन है जो इतनी मुकामल ग़ज़ल को प्रयास कह रहे हैं ... इतनी सादगी से आपने शेर कह दिए हैं की कुछ बोलने की हालत में नही रह गये हम अब ... बस वाह वाह के ...
वह कपूर साहब.हर शेर दाद के काबिल. पढते हुए अपने आप वाह निकल रहा है मुंह से. इस शेर ने तो कितनी ही घटनायें याद दिला दीं-
लोग दब कर मर गये, सोते हुए फुटपाथ पर,
और तेरे वास्ते, ये हादसा कुछ भी नहीं।
और ये-
कौनसे मज़हब का सड़को पर लहू बिखरा है ये
जिससे पूछो, वो कहे, मुझको पता कुछ भी नहीं।
वाह-वाह. सचमुच बहुत शानदार अशआर. बधाई.आपका दिल, दिमाग और लफ़्ज़ ऐसी ही शानदार महफ़िल सजाते रहें. बधाई.
नमस्कार तिलक जी,
एक बहुत ही अच्छी ग़ज़ल कही है आपने, हर शेर बेहतरीन है
इन शेरों के क्या कहने,
लोग दब कर मर गये, सोते हुए फुटपाथ पर,
और तेरे वास्ते, ये हादसा कुछ भी नहीं।
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देश में गणतंत्र को कायम भला कैसे करें,
रोज मंथन हो रहे हैं, हो रहा कुछ भी नहीं।
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आपका, ये इशारों में बात कहने का हुनर है....जो लाजवाब है
उसकी हालत में हो कुछ बदलाव, ये कहते हुए
बह गयीं नदियॉं कई, हासिल हुआ कुछ भी नहीं।
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल है,
वीनस ने आपको ब्लॉग की दुनिया में लाकर आपके बेहतरीन नगीनों से सभी को रूबरू करवाके एक बहुत अच्छा काम किया .
bahut acchi gazal hai.
हिन्दीकुंज
लोग दब कर मर गये, सोते हुए फुटपाथ पर,
और तेरे वास्ते, ये हादसा कुछ भी नहीं।
कौनसे मज़हब का सड़को पर लहू बिखरा है ये
जिससे पूछो, वो कहे, मुझको पता कुछ भी नहीं।
उसको ईक कॉंटा चुभा तो कट गये जंगल कई
और वो कहता है कि उसकी ख़ता कुछ भी नहीं।
वाह कपूर साहब, इससे बेहतर और कुछ नहीं।
बहुत आनंद आया ग़ज़ल पढ़कर।
देर तक सुनता रहा वो दास्ताने ग़म मिरी,
और फिर बोला कि इसमें तो नया कुछ भी नहीं.....
बहुत ही अच्छी रचना तिलकराज जी...बधाई..!!
हर शेर सोचने को मजबूर करता है भाई जी ! हर शेर दो दो बार पढ़ा और दिल से सिर्फ वाह....... क्या बात है..... क़ुबूल करें !
शुभकामनायें !
लोग दब कर मर गये, सोते हुए फुटपाथ पर,
और तेरे वास्ते, ये हादसा कुछ भी नहीं।
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हर शेर लाजवाब हैं
वाह वाह के सिवा और क्या कहूँ
लोग दब कर मर गये, सोते हुए फुटपाथ पर,
और तेरे वास्ते, ये हादसा कुछ भी नहीं।
देश में गणतंत्र को कायम भला कैसे करें,
रोज मंथन हो रहे हैं, हो रहा कुछ भी नहीं
कौनसे मज़हब का सड़को पर लहू बिखरा है ये
जिससे पूछो, वो कहे, मुझको पता कुछ भी नहीं।
ये तीन शेर ऐसे हैं जिन पर मेरा अब तक का सारा लिखा कुर्बान...खुश कर दिया भाई...तबियत हरी हो गयी...वाह...जिंदाबाद जिंदाबाद...
बहुत ही सुन्दर और शानदार ग़ज़ल लिखा है आपने! हर एक शेर एक से बढ़कर एक है! उम्दा प्रस्तुती!
उसका ये अंदाज़ मेरे दिल पे दस्तक दे गया
लब तो खुलते हैं मगर वो बोलता कुछ भी नहीं।
waah
उसका ये अंदाज़ मेरे दिल पे दस्तक दे गया
लब तो खुलते हैं मगर वो बोलता कुछ भी नहीं।
देर तक सुनता रहा वो दास्ताने ग़म मिरी,
और फिर बोला कि इसमें तो नया कुछ भी नहीं।
लोग दब कर मर गये, सोते हुए फुटपाथ पर,
और तेरे वास्ते, ये हादसा कुछ भी नहीं।-dil ko chhu lene wale sher hain tilak sahab.badhai.
उसके मेरे दरम्यॉं यूँ फ़ासला कुछ भी नहीं
सामने बैठा था पर उसने कहा कुछ भी नहीं।
बड़ा बद्कर्दार निकला .....!!
उसका ये अंदाज़ मेरे दिल पे दस्तक दे गया
लब तो खुलते हैं मगर वो बोलता कुछ भी नहीं।
बहुत खूब ...!! कहीं ....गूँगा तो ....???
देर तक सुनता रहा वो दास्ताने ग़म मिरी,
और फिर बोला कि इसमें तो नया कुछ भी नहीं।
सौ फी सदी बजा फ़रमाया तिलक जी ...
संवेदनाएं ही मर गयी हैं तो नया क्या खाक मिलेगा ......
बिजलियॉं कौंधी शहर में, बारिशें होने लगीं,
किसने ये गेसू बिखेरे जानता कोई नहीं।
ओये होए ....!!
नायाब .....!!
लोग दब कर मर गये, सोते हुए फुटपाथ पर,
और तेरे वास्ते, ये हादसा कुछ भी नहीं।
गज़ब का है हर शे'र ......
सुब्ह से विद्वान कुछ, सर जोड़ कर बैठे हैं पर,
मैनें पूछा तो वो बोले मस्अला कुछ भी नहीं ।
हा...हा....हा....इन विद्वानों की खोपड़ी ऐसी ही होती है ......!!
कौनसे मज़हब का सड़को पर लहू बिखरा है ये
जिससे पूछो, वो कहे, मुझको पता कुछ भी नहीं।
वाह......!!
तुम जो ऑंखें भी घुमाओ, ये शहर घूमा करे,
मैं अगर चीखूँ भी तो मेरी सदा कुछ भी नहीं।
ये शे'र तो भाभी जी के लिए कहा है लगता है ......
इतने रिश्ते खो चुका 'राही' कि अब उसके लिये
दर्द की गलियों की ये तीखी हवा कुछ भी नहीं।
ग़ज़ल कहना तो कोई आपसे सीखे ......अद्भुत....बेमिसाल .....लाजवाब......!!
अभी तो निशब्द हो कर जा रही हूँ तबीयत ठीक नही। बुक मार्क कर ली है फिर आऊँगी। शुभकामनायें
तिलकराज जी,
वन्दे!
वाकई आप क्या खूब ग़ज़ल लिखते हैँ!एक एक शेर वज़नदार हैँ।
बड़े सुन्दर प्रयोग व स्वचित्रित प्रतीक हैँ।बधाई हो!
omkagad.blogspot.com
@वीनस- मैं तो भाई अपनी कहन खुद से ही कह लेता था, कहते कहते मॉंजता रहता, सुधारता रहता था। ब्लॉग शुरू करने के लिये आपने ही उकसाया। अंकित का आपको इस बात का श्रेय देना 100 प्रतिशत सही है।
रही बात महीने में एक से अधिक ग़ज़ल पोस्ट करना, ऐसा करना थोड़ा कठिन काम लगता है। अन्य व्यस्ततायें भी रहती हैं और पोस्ट से अन्याय न हो ये भी जरूरी है। पिछले तीन माह से सोच रहा हूँ अन्य दो ब्लॉग पर एक भी पोस्ट नहीं लगा पाया।
कोशिश करूँगा।
वाह तिलक जी, आनन्द आ गया. देखिये कब कहाँ से प्रेरणा मिल जाये!
प्रिय तिलक भाई ,
देरी के लिए माफी .
वैसे तो आप हमेशा ही कमाल करते हैं पर इस बार ...............जब प्रिय नीरज जी ने अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया तो मेरी क्या औकात .मैं तो बच्चा हूँ ( इस विधा का ) .और कितने दिग्गजों ने जो कुछ कह दिया उसके बाद मेरे लिए क्या बच रहा ?
हाँ आपकी शान में बस कुछ थोडा सा .......
छा गया है यार मेरा इस कदर महफ़िल में आज
और कुछ दिखता भी है तो उसके सिवा कुछ भी नहीं !
तो बस ऐसे ही छाये रहो हर रंग हर खुशबू समेटे .
आमीन !
तिलक जी ,इतनी उम्दा ग़ज़ल के लिए आप सब से पहले बहुत बहुत मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएं ,
उसका ये अंदाज़ मेरे दिल पे दस्तक दे गया
लब तो खुलते हैं मगर वो बोलता कुछ भी नहीं।
एक एह्सास की तर्जुमानी का बेहद अच्छा तरीक़ा,
लोग दब कर मर गये, सोते हुए फुटपाथ पर,
और तेरे वास्ते, ये हादसा कुछ भी नहीं।
देश में गणतंत्र को कायम भला कैसे करें,
रोज मंथन हो रहे हैं, हो रहा कुछ भी नहीं।
उसकी हालत में हो कुछ बदलाव, ये कहते हुए
बह गयीं नदियॉं कई, हासिल हुआ कुछ भी नहीं।
सुब्ह से विद्वान कुछ, सर जोड़ कर बैठे हैं पर,
मैनें पूछा तो वो बोले मस्अला कुछ भी नहीं ।
कौनसे मज़हब का सड़को पर लहू बिखरा है ये
जिससे पूछो, वो कहे, मुझको पता कुछ भी नहीं।
ये सारे अश’आर एक शायर की संवेदनाओं को व्यक्त करते हैं
बहुत ख़ूब!
सारे ही शेर प्यारे हैं।
कौनसे मज़हब का सड़को पर लहू बिखरा है ये
जिससे पूछो, वो कहे, मुझको पता कुछ भी नहीं
.... एक से बढकर एक शेर .... लाजबाव गजल, बधाई!!!!
कौनसे मज़हब का सड़को पर लहू बिखरा है ये
जिससे पूछो, वो कहे, मुझको पता कुछ भी नहीं।
In sab diggajon ke baad mai kuchh kahun, is qabil nahee!
ये "तिलक" की है ग़ज़ल इस पर भला क्या बोलिए
खूबसूरत लफ्ज-ओ-मानी बेमजा कुछ भी नहीं
vaah! bahut kuchh hai aapki is naayab gazal men.
ACHCHHEE GAZAL HO TO PADHKAR MUN
JHOOM UTHTA HAI.AAPKEE GAZAL PAD
KAR MERA HAAL BHEE VAESA HUA HAI.
EK-EK SHER MEIN UMDAPAN HAI.ANAND
AA GAYAA HAI.
बेहतरीन ! और लफ़्ज़ों में इसे क्या कहूं ? मज़ा आ गया !
tilak ji
namaskar
aapki gazal padhkar bahut khushi hui , pahla hi sher jabardasht hai ...zindagi ke itne shades aapne pratuth kiye hai ki kuch kaha nahi jaa raha hai .. bas aapki lekhni ko salaam ...
aabhar aapka
vijay
--sir mai bhopal aate rahta hoon , aapka number dijiyenga to , agli baar aapse mulaaat kar ke aashirwaad loonga ..
तुम जो ऑंखें भी घुमाओ, ये शहर घूमा करे,
मैं अगर चीखूँ भी तो मेरी सदा कुछ भी नहीं।
Kapoor Saab, prabhavit hua main!
Kuchh yaad aaya aapki nazm padhke:
Hum dua likhte rahe,
Aur wo daga padhte rahe....
Khamosh laut rahi hun..apni qabiliyat kuchh bhi nahi...
न तो मेरे ख़त का उत्तर, न शिकायत, न गिला,
क्या हमारे बीच में रिश्ता बचा कुछ भी नहीं।
waah kamaal
देर तक सुनता रहा वो दास्ताने ग़म मिरी,
और फिर बोला कि इसमें तो नया कुछ भी नहीं।
kya baat hai
बिजलियॉं कौंधी शहर में, बारिशें होने लगीं,
जिसने थे गेसू बिखेरे जानता कुछ भी नहीं।
ahaaaaaaa
लोग दब कर मर गये, सोते हुए फुटपाथ पर,
और तेरे वास्ते, ये हादसा कुछ भी नहीं।
waah
उसकी हालत में हो कुछ बदलाव, ये कहते हुए
बह गयीं नदियॉं कई, हासिल हुआ कुछ भी नहीं।
सुब्ह से विद्वान कुछ, सर जोड़ कर बैठे हैं पर,
मैनें पूछा तो वो बोले मस्अला कुछ भी नहीं ।
hehe badiya hai
कौनसे मज़हब का सड़को पर लहू बिखरा है ये
जिससे पूछो, वो कहे, मुझको पता कुछ भी नहीं।
hm bahut gahra sher
तुम जो ऑंखें भी घुमाओ, ये शहर घूमा करे,
मैं अगर चीखूँ भी तो मेरी सदा कुछ भी नहीं।
उसको ईक कॉंटा चुभा तो कट गये जंगल कई
और वो कहता है कि उसकी ख़ता कुछ भी नहीं।
इतने रिश्ते खो चुका 'राही' कि अब उसके लिये
दर्द की गलियों की ये तीखी हवा कुछ भी नहीं।
kis sher ko kam kahun
har sher sawa sher
aaj ka din ban gaya
उसका ये अंदाज़ मेरे दिल पे दस्तक दे गया
लब तो खुलते हैं मगर वो बोलता कुछ भी नहीं।
वाह वाह बहुत ख़ूब कपूर साहब
इतने रिश्ते खो चुका 'राही' कि अब उसके लिये
दर्द की गलियों की ये तीखी हवा कुछ भी नहीं।
बहुत खूब
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