Wednesday, September 29, 2010

सूर्य का विश्राम पल होता नहीं

बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी, मगर कौन ध्‍यान रखता है। सर्वत जमाल साहब ने साखी (sakhikabira.blogspot.com) ब्‍लॉग पर कहा कि इसके ब्‍लॉगस्‍वामी डाक्टर सुभाष राय रात को भी नहीं सोते। बस इसी बात से इस ग़ज़ल के मत्‍ले का शेर पैदा हुआ। देखना है अब ये बात कहॉं तक जाती है। यह मेरा प्रथम प्रयास है यथासंभव हिन्‍दी शब्‍दों के उपयोग का, कोई कारण नहीं, बस स्‍वयंपरीक्षण भर है अन्‍यथा मुझे तो मिलीजुली भाषा ही पसंद है जो मैं बचपन से सुनता और बोलता आया हूँ।

ग़ज़ल
रात हो या दिन, कभी सोता नहीं,
सूर्य का विश्राम पल होता नहीं।

चाहतें मुझ में भी तुमसे कम नहीं,
चाहिये पर, जो कभी खोता नहीं।

मोतियों की क्‍या कमी सागर में है,
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं।

देखकर, परिणाम श्रम का, देखिये
बीज कोई खेत में बोता नहीं।

व्‍यस्‍तताओं ने शिथिल इतना किया
अब कोई संबंध वो ढोता नहीं।

क्‍यूँ में दोहराऊँ सिखाये पाठ को
आदमी हूँ, मैं कोई तोता नहीं।

देख कर ये रूप निर्मल गंग का
पाप मैं संगम पे अब धोता नहीं।

जब से जानी है विवशता बाप की,
बात मनवाने को वो रोता नहीं।

हैं सभी तो व्‍यस्‍त 'राही' गॉंव में
मत शिकायत कर अगर श्रोता नहीं।

तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

53 comments:

kshama said...

Harek sher gazab kaa hai!

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

सोचे थे पहिला टिप्पणी हमरा होगा, लेकिन क्षमा जी बाजी मार ले गईं...जईसे हम सोचे कि चलिए इसी बात पर एगो गजल लिखते हैं अऊर आप तब तक छप दिए.. मगर कोई मलाल नहीं मजा आ गया... हमरे तरफ से गुलदस्ता है (bouquets) बाकि पत्थरबाजी (brickbats) त ई गजल पर कोई करिए नहीं सकता है… छा गए आप!!

डॉ टी एस दराल said...

तिलक जी , सरल हिंदी में भी ग़ज़ल संवर कर सामने आती है । यह आपकी सुन्दर ग़ज़ल पढ़कर विदित है ।
बढ़िया प्रयास ।

Subhash Rai said...

भाई तिलकराज जी, आप ने तो कमाल ही कर दिया. अब तो अगर मैं जो थोड़ी बहुत जम्भाई लेकर काम चला रहा था, वो भी गयी. इतनी अच्छी गजल साखी पर हुए विमर्श से निकली, मैं प्रसन्न भी हूं और मुग्ध भी. आप को बहुत सारी बधाइयां. सलिल जी की तरह बोलूं तो हमका ई गजलवा बड़ा चोख बुझाता. धनबाद, ऊ झार्खंड वाला न बुझियेगा.

नीरज गोस्वामी said...

जिंदाबाद तिलक साहब...जिंदाबाद...सीधे सरल दिल पर असर करने वाले अशआर...आप की कलम का स्पर्श पा कर निखर जाते हैं...आपके इसी हुनर के तो हम कायल हैं जनाब.
किस शेर का जिक्र करें और किसे छोड़ें? सब ही एक से बढ़ कर एक हैं...लाजवाब गज़ल कही है आपने...वाह...शब्द और भाव चयन हमेशा की तरह...बेमिसाल...
दाद कबूल करें

नीरज

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

तिलक जी...शानदार मतला...
मोतियों की क्‍या कमी सागर में है,
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं।
बहुत खूब...
क्‍यूँ में दोहराऊँ सिखाये पाठ को
आदमी हूँ, मैं कोई तोता नहीं।
सच कहा...और दर्स भी दिया है.
बहुत उम्दा ग़ज़ल है.

निर्मल गुप्त said...

जब से जानी है विवशता बाप की,
बात मनवाने को वो रोता नहीं।
बहुत खूब !

pran sharma said...

Bhai , khoob sher kahe hain aapne .
Do baar padh gayaa hoon . pahlee
baar barfee ke saath aur doojee
baar rasgulle ke saath.Anand aa
gayaa hai .

RAMKRISH said...

ik nahi sabke sab ghazal bahut he n=behtareen aur dilkash andaaz rakhte hai
chali hai aapki Kalam , Zazbaat ki samunder se jaise Seep Nikle ho,
Ghazal kehna ka lehza jaise har she ko Motiyan k ghena paine diya ho.Waah
with warm rgds RK

दीपक 'मशाल' said...

आपकी नई ग़ज़ल की सूचना मेल से मिली तो ख़ुशी हुई सर कि आपने मुझे इस लायक समझा कि ग़ज़ल पढ़ाई जाए..
ग़ज़ल क्या है.. कड़वी सच्चाइयों का पिटारा है.. बहुत ही उम्दा. स्नेह बनाये रखें.

डॉ० डंडा लखनवी said...

अति सुन्दर......

मोतियों की क्‍या कमी सागर में है,
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं।
=======++++==========
जब से जानी है विवशता बाप की,
बात मनवाने को वो रोता नहीं।

शानदार विषय, वस्तु ईमानदार
प्रस्तुति.....बधाई।
सद्भावी--डॉ० डंडा लखनवी

Udan Tashtari said...

वाह जी, बहुत सुन्दर..आनन्द आ जाता है आपकी कलम पढ़कर.

Devi Nangrani said...

Waah
Kya nagenedari hai. shabdon ki kasawat aur bunawat apna parichay de rahi hai
मोतियों की क्‍या कमी सागर में है,
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं।
Bahut khoob!!

निर्मला कपिला said...

मोतियों की क्‍या कमी सागर में है,
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं।
बिलकुल सही कहा आपने मगर आप जैसा मोती तो हमने ढूँढ ही लिया है। आपकी गज़लों की तो पहले ही मुरीद हूँ और उससे भी अधिक आपकी इन्सानियत और सहयोग की भावना की। बहुत ही अच्छे शेर निकाले हैं-- ये तो सभी गुनिजनों ने बाता ही दिया। मै तो आपको शुभकामनायें देती हूँ-- आपकी कलम मे मा शार्दे का वास रहे और आप हमारा मार्ग दर्शन करते रहें। धन्यवाद।

संजीव गौतम said...

रात हो या दिन, कभी सोता नहीं,
सूर्य का विश्राम पल होता नहीं।
वाह! वाह!

इसका मतला ही इतना लाजवाब हो गया है कि क्या कहने। और ये शेर भी कम नहीं।

चाहतें मुझ में भी तुमसे कम नहीं,
चाहिये पर, जो कभी खोता नहीं।

वाह!

इस्मत ज़ैदी said...

मोतियों की क्‍या कमी सागर में है,
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं।

बहुत उम्दा तिलक जी,सच है समंदर खंगालने की हिम्मत ,हौसला और लगन चाहिये

जब से जानी है विवशता बाप की,
बात मनवाने को वो रोता नहीं।

वाह ,क्या बात है,

girish pankaj said...

pahal sher lazavaab hai...bakee sher bhi theek hi hai. badhaai...

हरकीरत ' हीर' said...

चाहतें मुझ में भी तुमसे कम नहीं,
चाहिये पर, जो कभी खोता नहीं।

वाह...वाह....वाह...... ......!

मोतियों की क्‍या कमी सागर में है,
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं।

साधारण शब्दों में बात कहने का हुनर कोई आपसे सीखे .....बहुत खूब ....!!

देख कर ये रूप निर्मल गंग का
पाप मैं संगम पे अब धोता नहीं।

अद्भुत .....क्या बात है .....!!
बहुत दिनों बाद आप नियमित होने लगे हैं ....
अगली ग़ज़ल का भी इन्तजार रहेगा .......!!

निर्झर'नीर said...

मोतियों की क्‍या कमी सागर में है,
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं।

देखकर, परिणाम श्रम का, देखिये
बीज कोई खेत में बोता नहीं।

ye sher khaskar bahut pasand aaye

मुकेश कुमार सिन्हा said...

Sir!! aapke gajalo me ham jaise blogger comment karne.......itna to layak nahi hue hain.......lekin haan inko padh kar hame bhi kuchh seekhne ko mila..........itna hi kah sakte hain.......:)

dhanyawad!!

chandrabhan bhardwaj said...

Bhai Tilakraj ji
Ghazal ka matala hi apne ap men bahut sunder hai
Rat ho ya din kabhi sota nahin
Surya ka vishram pal hota nahin
puri ghazal ko apne khoobsoorat dhang se nibhaya hai badhai.
shubh kamnaon sahit
chandrabhan bhardwaj

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मोतियों की क्‍या कमी सागर में है,
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं।

देखकर, परिणाम श्रम का, देखिये
बीज कोई खेत में बोता नहीं।

व्‍यस्‍तताओं ने शिथिल इतना किया
अब कोई संबंध वो ढोता नहीं।

देख कर ये रूप निर्मल गंग का
पाप मैं संगम पे अब धोता नहीं।

बहुत खूबसूरत गज़ल ....हर शेर बहुत गहन अर्थ रखे हुए ...आभार

रचना प्रवेश said...

बहुत खूबसूरत गजल, शब्दों के मोती ..........पद कर बहुत अच्छा लगा

vandana gupta said...

वाह जी वाह्…………………क्या खूब गज़ल लिखी है ………………कौन सा शेर पकडूँ और कौन सा छोडूँ ……………हर शेर सोचने को मजबूर करता है ………………ज़िन्दगी का खाका ही खींच कर रख दिया। बेहतरीन्।

सुज्ञ said...

विचारों की हलचल!! जबर्दस्त!!

चाहतें मुझ में भी तुमसे कम नहीं,
चाहिये पर, जो कभी खोता नहीं।

अक्षय सुख!!

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

मोतियों की क्‍या कमी सागर में है,
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं।
बहुत खूबसूरत गजल !

दिगम्बर नासवा said...

देखकर, परिणाम श्रम का, देखिये
बीज कोई खेत में बोता नहीं ...

सच में छा गये आप ... इतनी कमाल की ग़ज़ल ... आम भाषा के शब्द .. सीधे दिल में उतरते हैं .... बहुत खूब तिलक राज जी ....

Ankit said...

नमस्कार तिलक जी,
हिंदी के शब्दों का प्रयोग इतना अच्छे से हुआ है कि अशआरों का असर बढ़ गया है.
मतला बहुत खूबसूरत है, काफिया बहुत अच्छे से निखर के आया है.

"व्‍यस्‍तताओं ने शिथिल इतना किया
अब कोई संबंध वो ढोता नहीं।"
लाजवाब शेर ............... आज-कल मेरी भी व्यवस्त्ताएं कुछ ज्यादा हो गयी हैं.

एक उम्दा ग़ज़ल.

Prem Farukhabadi said...

मैं आपकी गजल से खुश हूँ मगर संतुष्ट नहीं हूँ। मेरे विचार से अगर आप ऐसे करते तो गजल का रुतबा कुछ और होता। जैसे -
कभी सोता नहीं।
कभी होता नहीं।
कभी खोता नहीं।
कभी गोता नहीं।
कभी बोता नहीं।
कभी ढोता नहीं।
कभी तोता नहीं।
कभी धोता नहीं।
कभी रोता नहीं।
कभी श्रोता नहीं।
अन्यथा न लें। मात्र यह मेरा सुझाव है।

डॉ. जितेन्द्र कुमार सोनी said...

nice gazal....... each sher is fine and appreciable.
keep it up

तिलक राज कपूर said...

@प्रेम फर्रुखाबादी जी
खूब कहा आपने भी। यह भी एक मान्‍य तरीका तो है ही काफि़या के दोनों तरफ़ रदीफ़ रखने का, कभी इसपर भी मूड बना तो कोशिश करूँगा। अभी तो कठिन लग रहा है, लगता है शब्‍द-प्रवाह बाधित रहेगा ऐसा करने से।
पढ़ने/सुनने वाला कहने वाले के स्‍तर पर डुबकी लगाले तो कहने का आनंद ही कुछ और होता है।

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर लिखा है .. बधाई !!

daanish said...

आदरणीय तिलक राज जी
आपको पढ़ना, हमेशा ही एक नया अनुभव रहता है
आपकी काव्य क्षमता और कुशलता
आपके हर पाठक को प्रभावित करने में हमेशा
सफल रहती है ,,,
आपकी हर ग़ज़ल अपने आप में
अनूठी और असरदार होती है
आप ज़िन्दगी और उसके आस पास की घटनाओं को बड़ी महारत से
लफ़्ज़ों में पिरोने के हुनर से वाक़िफ हैं
आपकी ये ग़ज़ल भी एक मुरस्सा कलाम की ही
तर्जुमानी करती है ...
"व्‍यस्‍तताओं ने शिथिल इतना किया
अब कोई संबंध वो ढोता नहीं।"
ये शेर तो ग़ज़ल की जान है... सच
और
"जब से जानी है विवशता बाप की,
बात मनवाने को वो रोता नहीं।"
बहुत ही सच्चा और क़ीमती शेर है ......
मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं .

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

आपकी ग़ज़ल की जुड़वाँ बहन यहाँ है… आकर आशीर्वाद दें!!
दर्द क्यों इंसाँ को अब होता नहीं

jogeshwar garg said...

वाह तिलक राज जी !
आनंद आ गया !

"रुष्ट वे इस बात पर कि मैं कभी
पेट के बल लेट कर रोता नहीं"

gyaneshwaari singh said...

behad sateek sheron se sazi gazal

Renu goel said...

ग़ज़ल पढना शुरू ही किया था की नज़रें वही रूक गयीं .. वाकई सूरज कभी रुकता नहीं ... जाने कब सोता है ... कब जागता है ....

Rohit Singh said...

अच्छा लिखा है आपने। अगर गुनगुनाता रहा तो गजल गायक बनते देर नहीं लगेगी।

dheer said...

namaste Tilak saHeb,
sar_ta_paa ek khoob_soorat ghazal banee hai. kuchh sher saadgee se labrez haiN, magar nishtar haiN. meree DheroN daad qabool kiijiye.

देख कर ये रूप निर्मल गंग का
पाप मैं संगम पे अब धोता नहीं।

is sher par apnaa ek puraanaa sher yaad aa gayaa,
kyaa khel hai fehrist gunaahoN kee miTaanaa ?
jan'nat ke talab_gaar kaa gangaa meN nahaanaa!

saadar
Dheeraj Ameta "Dheer"

रेखा श्रीवास्तव said...

तिलक राज जी,

अगर इसको आप प्रथम प्रयास कह रहे हैं तो फिर हम भविष्य में बहुत सुन्दर ग़ज़लों के रूबरू होने वाले हैं.
रात हो या दिन, कभी सोता नहीं,
सूर्य का विश्राम पल होता नहीं।
***********************
जब से जानी है विवशता बाप की,
बात मनवाने को वो रोता नहीं।
ये दोनों ही कह रहे हैं कहानी एक गरीब की, जिसे जीवन भर संघर्ष करना होता है सिर्फ अपने परिवार का पेट पालने के लिए. अगर काम है तो उसको विश्राम कहाँ?
वही कहानी कह रही है दूसरी पंक्तियाँ. आपने किस भाव में लिखा नहीं जानती लेकिन मुझे ये भाव दिखा और मैंने लिख दिया.
बहुत सुन्दर लिखा.

मेरे भाव said...

मोतियों की क्‍या कमी सागर में है,
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं।

par aap moti khoj laaye hain is gajal ke roop mein. gahre bhav liye sunder gajal....shubhkamna....

Narendra Vyas said...

परिस्कृत हिंदी में एक मुकम्मल ग़ज़ल पढ़कर जो सुकून मिला, मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता..! निःशब्द हूँ. ! आदरणीय तिलक राज जी तो सही मायनों में गज़लभाल के तिलक ही हैं..! हमेशा सोचता हूँ कि आपको कहूँ कोई नई ग़ज़ल पोस्ट कीजियेना...! पर आपके व्यक्तित्व और कृतित्व के आगे हिम्मत नहीं कर पाता..इसीलिये अपनी सीमायें ध्यान में रखते हुवे बहुत विलम्ब से यहाँ उपस्थित होने की हिम्मत कर पाया, हालाँकि रोज़ पढता रहा इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल को. जब पढ़ा, बार-बार पढ़ा तो जो बारीकी मुझे नज़र आई..मैं जरूर कहूँगा कि आपकी इस ग़ज़ल को पढ़कर कबीरदास जी का आध्यात्म याद आ गया..बहुत ही करीब सी लगी..ये मेरे निजी विचार हैं...मैं नहीं जानता ग़ज़लों का शिल्प, पर इतना जरूर कहूँगा कि जो भाव सहज दिल की गहराइयों में उतर कर..अपने से लगे,,आस-पास के लगें, नीतिगत लगें और सजीव लगें, उससे बड़ा शिल्प, विधान और भाव और कोई हो ही नहीं सकता. अपनी मर्यादाएँ ध्यान में रखते हुवे बस इतना ही कह पाऊंगा. आदरणीय तिलक जी का दिल से आभारइतनी प्यारी, ख़ूबसूरत और मुकम्मल ग़ज़ल के लिए. आशा है भविष्य में ऐसी ही बेहतरीन ग़ज़लें पढ़ने को सौभाग्य बहुत जल्दी मिलेगा..प्रणाम !

Rajiv said...

"रात हो या दिन, कभी सोता नहीं,
सूर्य का विश्राम पल होता नहीं।
मोतियों की क्‍या कमी सागर में है,
पर लगाता, अब कोई गोता नहीं।
व्‍यस्‍तताओं ने शिथिल इतना किया
अब कोई संबंध वो ढोता नहीं।"
आदरणीय कपूर साहब,
शब्द नहीं हैं मेरे पास. नहीं है कोई ऐसा पैमाना कि टिप्पणी कर पाऊं किसी भी शेर पर.बस पढ़कर निःशब्द हो गया हूँ. बार-बार पढता हूँ और खुद को जीवन से दो-चार पाता हूँ.
अपनी अनुकम्पा बनाये रखें.

Rajeev Bharol said...

बहुत ही बढ़िया गज़ल तिलक जी.
यह शेर बहुत पसंद आया:
"जब से जानी है विवशता बाप की,
बात मनवाने को वो रोता नहीं। "

धन्यवाद.

शारदा अरोरा said...

जब से जानी है विवशता बाप की,
बात मनवाने को वो रोता नहीं।
बहुत खूब , धन्यवाद.

संजय भास्‍कर said...

बहुत उम्दा ग़ज़ल है.

संजय भास्‍कर said...

आदरणीय रेखा श्रीवास्तव जी
नमस्कार !
बहुत ही बढ़िया गज़ल

सुरेश यादव said...

तिलक राज जी,आप की ग़ज़ल इस कदर खूबसूरत है कि बधाई देने की होड़ लग गई मेरी भी हार्दिक बधाई .

राजेश उत्‍साही said...

हुजूरे आला हमारा भी सलाम कबूल फरमाएं। वैसे दो चार बधाईयां हमें भी मिल जाएं तो आपका भला होगा। न हम यह कहते कि हम सबने सुभाष जी का काम बढ़ा दिया न आपको यह शेर सूझता।
चलिए जिस तरह सुभाष भाई ने कहा कि वे खुश हैं कि साखी से एक ग़ज़ल निकलकर यहां आ गई,मैं भी खुश हूं कि मेरी बात से बात निकलकर यहां आ पहुंची।
बहुत संभव है कि अब तक आप मेरी प्रोफाइल खंगाल ही चुके होंगे। न खंगाली हो तो मैं बताता हूं कि बंदा भोपाल से ही है। हां फिलहाल बंगलौर में हूं।
ग़ज़ल पर तो क्‍या कहूं। इतने विद्वानों ने अपनी बात कह ही दी है।

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर गजल है।बधाई।

Sanjay Grover said...

क्‍यूँ में दोहराऊँ सिखाये पाठ को
आदमी हूँ, मैं कोई तोता नहीं।

देख कर ये रूप निर्मल गंग का
पाप मैं संगम पे अब धोता नहीं।

DonoN sher achchhe lage. DonoN hi khokhle, arth-hin karmkaaNdoN par prahaar haiN.

अरुण चन्द्र रॉय said...

आदरणीय कपूर साहब
मैं बस कवितायें लिख लेता हूँ लेकिन ना तो कविता या ग़ज़ल के व्याकरण का पता है मुझे.. लेकिन जो बात मन को छू जाए.. वह बात अच्छी लगती है.. वह रचना भी अच्छी लगती है.. आपके इस ग़ज़ल का हर शेर उम्दा है और लगता है मेरे लिए लिखी गई है.. इतना कनेक्ट कर रहा हूँ इस से.. खास तौर पर इन शेरो में...
"क्‍यूँ में दोहराऊँ सिखाये पाठ को
आदमी हूँ, मैं कोई तोता नहीं।"

"देख कर ये रूप निर्मल गंग का
पाप मैं संगम पे अब धोता नहीं।"

सुनील गज्जाणी said...

saadar pranam !
sidhe sidhe man me utarne wali hai gazal . sunder
sadhuwad!