Sunday, March 14, 2010

अशआर की महफि़ल में ....


आज जो ग़ज़ल प्रस्‍तुत है उसमें नया कुछ नहीं है। ये ग़ज़ल सिर्फ एक माध्‍यम है उन दृश्‍यों को प्रस्‍तुत करने का जो हमारे आस-पास हैं, हम देख रहे हैं, सुन रहे हैं, और कुछ हद तक जी रहे हैं। मैं स्‍वयं निपट अज्ञानी, किसी भटके हुए को राह दिखाने का प्रयास नहीं कर रहा लेकिन अगर किसी को यह एहसास हो कि इन अशआर के किसी भी दृश्‍य को सुधारने के लिये वो कुछ कर सकता है तो शायद यही एक नयी शुरुआत हो उसके कर्मक्षेत्र की। इस ग़ज़ल के अशआर अगर किसी को सोचने पर मजबूर कर सके और कुछ सकारात्‍मक करने के लिये प्रेरित कर सके तो इसे कहने का मेरा उद्देश्‍य पूरा हो जाता है।



अशआर की महफि़ल में आई ये ज़मीनें देखिये
दृश्‍य जो चारों तरफ़ हैं, आज इनमें देखिये।

देह के बाज़ार में सदियों से बिकती आ रहीं
वक्‍त की मारी हुई, सहमी ये चीज़ें देखिये।

सिर्फ़ आधे पेट में, दिन रात खट लेती हैं ये,
आदमी के रूप में जि़दा मशीनें देखिये।

एक कपड़ा मिल गया तो खुश ये बच्‍चे हो गये,
इनके कद से भी बड़ी इनकी कमीज़ें देखिये।

आपको दिखता नहीं क्‍यूँ, खून से मक्‍तूल के
तरबतर हैं कातिलों की आस्‍तीनें देखिये।

पास में थाना है पर, उनका इलाका ये नहीं,
देखकर लुटती हुई अस्‍मत ना आयें देखिये।

पद की गरिमा छोड़कर ईमान भी बिकने लगा
दफ़्तरों में सज गयीं इसकी दुकानें देखिये।

भर लिया सामान सातों पीढि़यों की भूख का,
पर भटकती फिर रहीं इनकी निगाहें देखिये।

उसने आज़ादी हमें, लौटाई इस अंदाज़ से,
भाइयों में पड़ गयीं गहरी दरारें देखिये।

छॉंटकर मासूम दिल, ये ज़ह्र ज़ेह्नों में भरें,
मज्‍़हबी रंगत की ज़हरीली हवायें देखिये।

कुछ ग़रीबों के लिये 'राही' मदद ये आयी थी
खा गये जो लोग, बिल्‍कुल ना लजायें देखिये।



पिछली ग़ज़ल पर बह्र को लेकर जिज्ञासा प्रस्‍तुत की गयी थी अत: मात्र उस जिज्ञासा के संदर्भ में इसकी बह्र का विवरण प्रस्‍तुत है:


(फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलुन)x2 या (2122, 2122, 2122, 212) x2

32 comments:

विनोद कुमार पांडेय said...

सुंदर प्रस्तुतिकरण भाव तो है ही लाज़वाब.....

Urmi said...

बहुत बढ़िया लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
मेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है!

दिनेशराय द्विवेदी said...

ग़ज़ल अच्छी है लेकिन इस शेर में....

देह के बाज़ार में सदियों से बिकती आ रहीं
वक्‍त की मारी हुई, सहमी ये चीज़ें देखिये।

किसी इंसान को चीज कहना उसी मानसिकता का द्योतक नहीं है जिस ने इंसान को बाजार में बिकने वाली वस्तु बना दिया है?

मेरी आवाज सुनो said...

भर लिया सामान सातों पीढि़यों की भूख का,
पर भटकती फिर रहीं इनकी निगाहें देखिये।

उसने आज़ादी हमें, लौटाई इस अंदाज़ से,
भाइयों में पड़ गयीं गहरी दरारें देखिये।

छॉंटकर मासूम दिल, ये ज़ह्र ज़ेह्नों में भरें,
मज्‍़हबी रंगत की ज़हरीली हवायें देखिये।

कुछ ग़रीबों के लिये 'राही' मदद ये आयी थी
खा गये जो लोग, बिल्‍कुल ना लजायें देखिये।
bahut sundar or yatharth panktiyan hain...!!

वन्दना अवस्थी दुबे said...

सिर्फ़ आधे पेट में, दिन रात खट लेती हैं ये,
आदमी के रूप में जि़दा मशीनें देखिये।
और-
एक कपड़ा मिल गया तो खुश ये बच्‍चे हो गये,
इनके कद से भी बड़ी इनकी कमीज़ें देखिये।

क्या कहूं कपूर साहब. मेरे सामने तो वो बच्चे आकर खडे हो गये, जिनकी खुशी इसे ही किसी वक्त में देखते ही बनती है. बहुत सुन्दर गज़ल.बधाई.

रश्मि प्रभा... said...

bahut badhiyaa

अविनाश वाचस्पति said...

कपूर की वैचारिक सुगंध से गमकती गजल।

तिलक राज कपूर said...

दिनेश राय द्विवेदी जी सौ प्रतिशत सही हैं। देह को चीज़ कहना एक विकृत मानसिकता है। चीज़ कहने में मेरा कटाक्ष यही है कि देह बाज़ार में देह एक चीज़ की तरह ही बेची-खरीदी जाती है, उसे इंसानी देह का स्‍थान भी नहीं दिया जाता है। देह को खरीदने से पहले उसे टटोलती ऑंखों की कल्‍पना करें तो ऐसा ही लगेगा।

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

पूरी गज़ल आईना है...
कोई भी शेर दूसरे से कमज़ोर नहीं...

सिर्फ़ आधे पेट ही, दिन रात खट लेती हैं ये,
आदमी के रूप में जि़दा मशीनें देखिये।
******************************
उसने आज़ादी हमें, लौटाई इस अंदाज़ से,
भाइयों में पड़ गयीं गहरी दरारें देखिये।

ये दो शेर.....तो सीधे दिल में उतर गये
तिलकराज जी....बहुत बहुत बधाई..

गौतम राजऋषि said...

तिलक साब को प्रणाम...देर रात गये एक बेमिसाल ग़ज़ल पढ़ने को मिली। अहा! एक-से-एक अशआर सब-के-सब..जगह-जगह सुनाने लायक...नोट करके ले जा रहा हूं। खास कर "तर्बतर हैं कातिलों की..." वाला तो उफ़्फ़्फ़!

Udan Tashtari said...

वाह!! आनन्द आ गया इस जबरदस्त गज़ल को पढ़कर.

रानीविशाल said...

Har ek sher bahut napa tula bahut sundar hai puri ki puri gazal lajawab hai aapki ...ise padhane ke liye bahut bahut dhanywaad.

''अपनी माटी'' वेबपत्रिका सम्पादन मंडल said...

kharaa kharaa likhate hai. regards manik

निर्मला कपिला said...

भाई साहिब नमस्कार अभी तो औपचारिक रूप मे पढ कर जा रही हूँ । बाकी फिर से आराम से आ कर पढती हूँ मुझे तो केवल पढना ही नही है सीखना भी है न। अभी तो ये दो शेर मन मे गूँज रहे हैं
भर लिया सामान सातों पीढि़यों की भूख का,
पर भटकती फिर रहीं इनकी निगाहें देखिये।

उसने आज़ादी हमें, लौटाई इस अंदाज़ से,
भाइयों में पड़ गयीं गहरी दरारें देखिये।
क्या शेर घडे हैं बधाई आपको फिर आती हूँ।

इस्मत ज़ैदी said...

तिलक जी ,नमस्कार,
सिर्फ़ आधे पेट में, दिन रात खट लेती हैं ये,
आदमी के रूप में जि़दा मशीनें देखिये।

उसने आज़ादी हमें, लौटाई इस अंदाज़ से,
भाइयों में पड़ गयीं गहरी दरारें देखिये।

देह के बाज़ार में सदियों से बिकती आ रहीं
वक्‍त की मारी हुई, सहमी ये चीज़ें देखिये।

ये अश’आर बहुत मुतास्सिर करते हैं
तीसरे शेर में (देह के ...........)सह्मे हुए वजूद को चीज़ कह कर आपने समाज के दोहरे मान्दण्डों पर जो तंज़ किया है उस का जवाब नहीं

मुबारक हो

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

kapoor saab,
bahut acha laga padh kar....
mazaa aa gaya...

aashirwaad dene aate rahiyega!

Ankit said...

नमस्कार तिलक जी,
पूरी ग़ज़ल एक आइना सी है, जो हमारे आस पास के समाज का चेहरा दिखा रही है, हर शेर बहुत खूबसूरती से पिरोया हुआ है, हर शेर लाजवाब है और इनके बारे में तो क्या कहना...............

सिर्फ़ आधे पेट में, दिन रात खट लेती हैं ये,
आदमी के रूप में जि़दा मशीनें देखिये।

एक कपड़ा मिल गया तो खुश ये बच्‍चे हो गये,
इनके कद से भी बड़ी इनकी कमीज़ें देखिये।

आपको दिखता नहीं क्‍यूँ, खून से मक्‍तूल के
तरबतर हैं कातिलों की आस्‍तीनें देखिये।

नीरज गोस्वामी said...

सिर्फ़ आधे पेट में, दिन रात खट लेती हैं ये,
आदमी के रूप में जि़दा मशीनें देखिये।

एक कपड़ा मिल गया तो खुश ये बच्‍चे हो गये,
इनके कद से भी बड़ी इनकी कमीज़ें देखिये।

वाह...वा...तिलक साहब वाह...आपको और आपकी शायरी को बन्दे का फर्शी सलाम कबूल हो....शायरी क्या होती है कोई आपसे सीखे...आज के हालात को हर शेर में जिस अंदाज़ से आपने पेश किया है वो पढने वालों को झिंझोड़ देते हैं...मैं आपकी शायरी का मुरीद तो था ही अब आपका भी हो गया हूँ...इस कमाल की ग़ज़ल के लिए दिली दाद कबूल हो...

नीरज

Anonymous said...

वाह वाह कपूर साहब - हमको, हमारी सोच और कर्मों को आयना दिखाती - शानदार ग़ज़ल - धन्यवाद्

अर्चना तिवारी said...

बहुत सुंदर भाव...ख़ास तौर पर ये शेर दिल को छू गए....

एक कपड़ा मिल गया तो खुश ये बच्‍चे हो गये,
इनके कद से भी बड़ी इनकी कमीज़ें देखिये।

पास में थाना है पर, उनका इलाका ये नहीं,
देखकर लुटती हुई अस्‍मत ना आयें देखिये।

सिर्फ़ आधे पेट में, दिन रात खट लेती हैं ये,
आदमी के रूप में जि़दा मशीनें देखिये।

डॉ टी एस दराल said...

कटु सच्चाई को प्रदर्शित करती बेहतरीन ग़ज़ल।
बहुत बढ़िया लगा ।

श्रद्धा जैन said...

सिर्फ़ आधे पेट ही, दिन रात खट लेती हैं ये,
आदमी के रूप में जि़दा मशीनें देखिये।

ek ek sher sach ka aaina .......
puri gazal ki jhakjhor ke rakh dene wali .......

RAJ SINH said...

bhaiyyajee ,late aaya .sabto kaha hee ja chuka hai.

haan aapse sahmat hoon.bazar me to deh cheez hee ban jatee hai. ya jo bhee bikta hai cheez hee hotee hai.

aur aapto kamal par kamal kiye ja rahe ho !

bas ye jaree rahe.

M VERMA said...

आपको दिखता नहीं क्‍यूँ, खून से मक्‍तूल के
तरबतर हैं कातिलों की आस्‍तीनें देखिये।
क्या नहीं कह दिया ये कहकर
हालात ठीक नहीं हैं हालत भी ठीक नहीं है आजकल
बेहतरीन

वीनस केसरी said...

समाज को आईना दिखाती गजल है

लो देखो तुम क्या हो और क्या कर रहे हो और अब भी सुधर जाओ तो गनीमत है

मगर जैसे चाय पिलाने से रिश्वत खतम नहीं होती उसी तरह गलत काम करने वाले को जब तक अंजाम से गुजरना नहीं पड़ता वो उसी में लिप्त रहता है

वास्तव में काफी कुछ सोचना पड़ा इस गजल को पढ़ने के बाद

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

सभी अशआर गहरी वेदना लिए हुए...
--
अभी कुछ दिनों से बाहर हूँ, यात्रा में व्यस्त हूँ...
विक्रमी संवत २०६७ की शुभकामनाएं !!

jogeshwar garg said...

जल प्रदूषित और ज़हरीली हवाएं देखिये
रहनुमा तक़रीर-फरमा है अदाएं देखिये

daanish said...

सिर्फ़ आधे पेट में, दिन रात खट लेती हैं ये,
आदमी के रूप में जि़दा मशीनें देखिये।

भर लिया सामान सातों पीढि़यों की भूख का,
पर भटकती फिर रहीं इनकी निगाहें देखिये।

हर संवेदनशील इंसान के मन को कचोटते हुए
हर सवाल को एक ही ग़ज़ल में
ख़ूबसूरती से पिरो लेने का हुनर
जनाब कपूर साहब का ही खास्सा है ....
पूरी ग़ज़ल इस बात की तसदीक़ करती है,,
ताईद करती है
हर बात को आम आदमी की ज़बान में ही
प्रस्तुत किया गया है
हर शेर हमारे आस-पास को ही ज़ाहिर कर रहा है
और ख़ास तौर पर वो 'चीज़' वाला शेर भी
इस शेर के हवाले से शाइर ने उसी ज़हनियत से रु.ब.रु करवाने की कोशिश की है
जो हमारे मुआशरे में ज़हर बन कर घुल चुका है .
आपके इस नेक हौसले और जज़्बे को सलाम .
और ....
नीरज भाई की एक-एक बात का
अनुमोदन करता हूँ .
अभिवादन .

दिगम्बर नासवा said...

नमस्कार तिलक जी ... बाहर होने की वजह से देरी से आया .. माफी ... पर आने के साथ साथ ही दिल खुश हो गया इतनी कमाल की, हक़ीकत से जुड़े शेरो की ग़ज़ल पढ़ कर ... हर शेर सच की दास्तान है ... बहुत खूब ... हर शेर पर वाह वाह निकलता है ....

Yatish Jain said...

बहुत खूब दिखाया आपने !!!

कभी अजनबी सी, कभी जानी पहचानी सी, जिंदगी रोज मिलती है क़तरा-क़तरा…
http://qatraqatra.yatishjain.com/

Rajeysha said...

खूबसूरत हकीकत बयानी।

हरकीरत ' हीर' said...

सारे के सारे अशआर नगीने से....किसकी तारीफ करूँ और किसे सहेजूँ .......
सिर्फ़ आधे पेट में, दिन रात खट लेती हैं ये,
आदमी के रूप में जि़दा मशीनें देखिये।

सच्च उन मशीनों के लिए तोहफा है ये शे'र ...

एक कपड़ा मिल गया तो खुश ये बच्‍चे हो गये,
इनके कद से भी बड़ी इनकी कमीज़ें देखिये।
सरज़द सच्चाई .....!!
आपको दिखता नहीं क्‍यूँ, खून से मक्‍तूल के
तरबतर हैं कातिलों की आस्‍तीनें देखिये।
बहुत खूब ......
पास में थाना है पर, उनका इलाका ये नहीं,
देखकर लुटती हुई अस्‍मत ना आयें देखिये।
अमीक चोट .....!!
उसने आज़ादी हमें, लौटाई इस अंदाज़ से,
भाइयों में पड़ गयीं गहरी दरारें देखिये।
kya . खूब .......!!

....ग़ज़ल कहना तो कोई आपसे सीखे .....