Sunday, February 14, 2010

एक रुक्‍न के मिसरे में ग़ज़ल

एक रुक्‍न के मिसरे में ग़ज़ल कहने का प्रयास मैं शायद कभी नहीं करता यदि गौतम राज ऋषि के ब्‍लॉग पर छोटी बह्र के रूप में वीनस ‘केसरी’ की एक रुक्‍न के मिसरे वाली ग़ज़ल का संदर्भ न मिलता।


जब मैने ग़ज़ल कहना आरंभ किया था तब विद्वजनों ने बताया था कि पूर्ण ग़ज़ल में कम से कम सात शेर, (मतला और मक्‍ता सहित) आवश्‍यक होता है। कोशिश रहती है कि इस नियम का पालन कर सकूँ।
रचनाकार का धर्म तो अभिव्‍यक्ति के साथ पूरा हो जाता है। गुणीजन तो वो हैं जो मर्म तक पहुँच जाते हैं।
इस ग़ज़ल के मक्‍ते और उससे पहले के शेर पर हो सकता है आपत्ति आये लेकिन प्रयोगवादी ग़ज़लों विशेषकर मुज़ाहिफ शक्‍लों पर आमतौर से इतनी बारीकी से विवेचना नहीं होती है, इसलिये प्रयोग का साहस किया है।

छोटी बह्र की ग़ज़ल

चहरे देखे
पहरे देखे।


घाव, बहुत ही
गहरे देखे।


कानों वाले
बहरे देखे।


सारे वादे
ठहरे देखे।


हर सू झंडे
फहरे देखे।


मानक अक्‍सर
दुहरे देखे।


’राही’ ख्‍वाब
सुनहरे देखे।
 
तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

15 comments:

दिगम्बर नासवा said...

तिलक राज जी ..... मुकम्मल ग़ज़ल ... बहुत ही कठिन एक शब्द में कही ग़ज़ल .... कमाल है ... सुभान अल्ला ... ये आपजासे गुणिज़ानों के बस की हो बात है .... बहुत लाजवाब .......

निर्मला कपिला said...

बहुत खूब गौतम जी और वीनस केसरी जी तो गज़ल पर महारत हासिल कर चुके हैं और आप ने तो कमाल ही कर दिया । ये सब के बस का काम नही है बहुत बहुत बधाई आपको।

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

तिलकराज जी, आदाब
इस छोटी बहर में मफ़हूम बांधना हंसी खेल नहीं
हर शेर मुकम्मल है.
वाह
सच तो ये है, कि बहुत कुछ सीखने को मिला है.

रज़िया "राज़" said...

सुंदर ख़ूबसुरत!! गज़ल।

नीरज गोस्वामी said...

राही जी मैं इस ग़ज़ल पर कुछ कहूँगा तो लोग कहेंगे की दोस्ती का हक़ अदा कर रहा है लेकिन हकीकत ये है के इस ग़ज़ल को पढ़ कर बिना कहे रहा भी नहीं जा रहा...आप के साथ ये ही समस्या है...आप जो जब करते हो कमाल करते हो...कमाल से कम कुछ नहीं करते...इस बार आपने ये कमाल छोटी बहर में कर दिखाया है...जो ग़ज़ल के बारे में थोडा बहुत जानते हैं उन्हें पता है की छोटी बहर में कहना लोहे के चने चबाने से कम काम नहीं है...लेकिन आपने इस काम को कितनी आसानी से अंजाम दिया है...सुभान अल्लाह...हर शेर मुकम्मल है और आपसे बहुत कुछ कह जाता है...वाह वाह वाह...करते जी तो नहीं भर रहा लेकिन कब तक करें ये सोच कर अभी रुकता हूँ...लिखते रहें...यूँ ही. आमीन.
नीरज

वन्दना अवस्थी दुबे said...

एक बार, दो बार, तीन बार...पता नहीं कितनी बार पढ चुकी हूं, अभी भी जी नहीं भरा.

गौतम राजऋषि said...

शब्दातीत....

Narendra Vyas said...

वैसे मैं इतना सबल नहीं कि श्री तिलकराज जी की रचनाओं पर टिप्पणी कर सकूं, बस इतना ही कहूंगा कि मैं "निःशब्द हूं।" आभार!!

Narendra Vyas said...

वैसे मैं इतना सबल नहीं कि श्री तिलकराज जी की रचनाओं पर टिप्पणी कर सकूं, बस इतना ही कहूंगा कि मैं "निःशब्द हूं।" आभार!!

Pawan Kumar said...

चहरे देखे,पहरे देखे।
घाव, बहुत ही, गहरे देखे।
कानों वाले, बहरे देखे।
सारे वादे,ठहरे देखे।
हर सू झंडे,फहरे देखे।

राही साहब......छोटे बहर में आपने कमाल की रचना लिखी है.........मक्ते और मक्ते से एक पहले वाले शेर में जो कमी है वो ग्रामर के हिसाब से ज़रूर है मगर प्रयोग-धर्मिता को मद्देनज़र यह चलता है. बहुत खूब.........!

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

छोटी बहर में कमाल बात है,

मैं अब तक कहाँ था, यहाँ आने में देर कैसे हो गयी.

manu said...

nishabd hoon..

Archana Gangwar said...

चहरे देखे
पहरे देखे।

kamal ki baat hai.....

chahere tu sabko nazer aate hai....per chahere per pahere ko parne ke liye ek nazer chahiye.....

Prakash Jain said...

wah!!!
Bahut sikhne milta hai aapki rachnao se...bahut pasand aayi

www.poeticprakash.com

laxmi prasad said...

बहुत खूबसूरत