Monday, February 22, 2010

गॉंव ग़ुम शहर की ज़मीनों में

यह ग़ज़ल मूलत: करीब 25 वर्ष पहले कही थी। वक्‍त के साथ भूल ही चुका था। ब्‍लॉग जगत की वज़ह से फिर याद ताज़ा हुई और मत्‍ले का शेर और उसके बाद के दो शेर ही याद के ज़खीरे से निकल पाये। बाकी अशआर नये सिरे से कहने की कोशिश की है। लगता है जो अशआर याद ना रहे वो प्रस्‍तुति लायक ना रहे होंगे इसलिये उपर वाले ने ही खारिज कर दिये और उनकी जगह नये अशआर दे दिये।

एक करिश्‍मा है जो मैं आप सबसे निश्चित तौर पर बॉंटना चाहता हूँ।
'आज पत्‍थर... ' वाला शेर जब मैनें सोचा तो मैनें 'तराशता' कहा था जो टाईप करते समय 'तलाशता' टाईप हो गया। बाद में एक मित्र के ध्‍यान दिलाने पर मैं सोचता रह गया कि ऐसा क्‍यूँ हुआ। तराशता ही मैं कहना चाहता था मगर इस टंकण त्रुटि ने एक जादू कर दिया है। फिर सोचा तो लगा कि अब मैं तलाशता को ईश्‍वर का करिश्‍मा मानने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। एक अच्‍छा नगीना तराशने के लिये एक अच्‍छा पत्‍थर होना जरूरी है। तो अब बात एक कदम और पीछे की हो गयी कि मैं कुछ पत्‍थर तलाश रहा हूँ जो कल नग़ीनों के रूप में पहचान बनायेंगे। तराशना तो दोनों ही हालत में है। तलाश वाले मामले में अच्‍छे पत्‍थर तलाश कर तराशने में औरों की मदद भी ली जा सकती है। इसको अगर ऐसे लें कि मेरी कोशिश अच्‍छे पत्‍थरों को अच्‍छे नगीनों में बदलने की प्रक्रिया में अपनी भूमिका निबाहने की है तो तलाशना ही ठीक है। मुझे लगता है कि यह टंकण-त्रुटि मुझसे करवाई गयी है तो इसका सम्‍मान करना चाहिये। लेकिन यह बात भी तय है कि तराशना सीधे-सीधे समझ में आने वाली बात है।

गॉंव ग़ुम शहर की ज़मीनों में,
आदमी खो गये मशीनों में।

हर तरफ़ आग़ सी लगी क्‍यूँ है,
देश के सावनी महीनों में।

आपका ये सफर ना तै होगा,
बैठ कर कागज़ी सफीनों में।

आज पत्‍थर तलाशता हूँ, कल
ये गिने जायेंगे नग़ीनों में।

चंद लफ़्ज़ों में बात कहने की,
हमको आदत मिली ज़हीनो में।

होश आने प ये समझ आया,
नाग पाले थे आस्‍तीनों में।

दर्द 'राही' ने जी लिये तन्‍हा,
कब ये चर्चा हुआ मकीनों में।

तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

27 comments:

वीनस केसरी said...

तिलक जी नमस्ते

सबसे पहले तो एक प्रश्न है आपसे की आप गजल कब से लिख रहे है क्योकी आपके कहानुसार तो ये गजल तब की है जब हम पैदा भी नहीं हुए थे :))

आज पत्‍थर तलाशता हूँ, कल
ये गिने जायेंगे नग़ीनों में

मुझे भी तराशता की जगह तलाशता शब्द ज्यादा पसंद आया

मत्ला खास पसंद आया
जिस समय पूरा देश मशीनीकरण में जुता हुआ था ये शेर निकालना वाजिब है

एक गुजारिश है गजल के साथ बहर ओर रुक्न भी लिख दिया करें मुझ जैसे नए सीखने वालों का भला हो जाता है

आपने जो मत्ला दिया है उस पर काम कर रहा हूँ पूरा करके जल्द ही आपको पढ़वाता हूँ

आपका वीनस केशरी

RAJ SINH said...

बहुत अच्छे ! क्या बात कही है . सांप पाले थे आस्तीनों में .

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

आदरणीय तिलकराज जी, आदाब
गॉंव ग़ुम शहर की ज़मीनों में,
आदमी खो गये मशीनों में।
मतले से आगे बढ़ा ही नहीं जा रहा...
***********************
हर तरफ़ आग़ सी लगी क्‍यूँ है,
देश के सावनी महीनों में।
**********************
आपका ये सफर ना तै होगा,
बैठ कर कागज़ी सफीनों में।
**********************

आज पत्‍थर तलाशता हूँ, कल
ये गिने जायेंगे नग़ीनों में।
********************
लाजवाब..बेशक़ीमती गज़ल

रानीविशाल said...

Behtreen Prastuti....padhane ke bahut bahut shukriya !!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/

gazalkbahane said...

आज पत्थर जिसे समझता है
कल गिने जायेंगे नग़ीनों में।
दर्द हमने' सदा जिये तन्‍हा,
कब ये चर्चा हुआ मकीनों में।
नासमझ है बहुत ही ‘राही;
नाग पाले है आस्‍तीनों में।

M VERMA said...

आज पत्‍थर तलाशता हूँ, कल
ये गिने जायेंगे नग़ीनों में।

चंद लफ़्ज़ों में बात कहने की,
हमको आदत मिली ज़हीनो में।

बहुत खूब
हर पत्थर एक नगीना है
तलाशने और तराशने वाला चाहिये

कडुवासच said...

आज पत्‍थर तलाशता हूँ, कल
ये गिने जायेंगे नग़ीनों में।
.....प्रभावशाली गजल, सभी शेर बेहतरीन हैं !!!

निर्मला कपिला said...

भाई साहिब 25 वर्ष पहले भी आप इतनी अच्छी गज़लें कहते रहे हैं तब तक तो मैने सोचा भी नही था कि गज़ल क्या होती है बहुत कुछ सीखने को मिलता है आपसे ।
शाहिद जी ने सही कहा है मतले से आगे बढें कैसे बार बार इसे ही गुनगुनाने को जी चाहता है।
चंद लफ़्ज़ों में बात कहने की,
हमको आदत मिली ज़हीनो में।
वाह क्या बात है

होश आने प ये समझ आया,
नाग पाले थे आस्‍तीनों में।
ये शेर मुझे लगा कि मेरे दिल की आवाज़ है बेहतरीन शेर है

आज पत्‍थर तलाशता हूँ, कल
ये गिने जायेंगे नग़ीनों में।
इस शेर पर तो फिर से आ कर ठहर गयी हूँ ----लाजवाब
हर तरफ़ आग़ सी लगी क्‍यूँ है,
देश के सावनी महीनों में।
आज के हालात पर आपकी कलम कैसे चुप रह सकती थी । गज़ल बहुत ही अच्छा लगी। दाद देने के लिये मेरे पास शब्द नही हैं । बहुत बहुत बधाई इस गज़ल के लिये। शुभकामनायें

नीरज गोस्वामी said...

आज पत्‍थर तलाशता हूँ, कल
ये गिने जायेंगे नग़ीनों में।

होश आने प ये समझ आया,
नाग पाले थे आस्‍तीनों में।

राही साहब जिंदाबाद जिंदाबाद...इन एक से बढ़ कर एक खूबसूरत अशआरों से सजी इस ग़ज़ल के लिए दिली दाद कबूल फरमाएं. जो शख्स २५ साल पहले ऐसे तराशे हुए शेर कहता था वो अब क्या क़यामत ढाएगा खुदा जाने...और जैसी टंकण त्रुटी आपसे खुदा ने करवाई है वैसी खुदा सबसे करवाए और एक आम से लगते शेर को खसम खास बना दे.

नीरज

डॉ. जितेन्द्र कुमार सोनी said...

आपकी ग़ज़ल आपकी संवेदनशीलता और पशे मंजर को समझने का अंदाज बताती है.
इसके लिए आप को बधाई !
जितेन्द्र कुमार सोनी 'प्रयास'
WWW.JKSONIPRAYAS.BLOGSPOT.COM
WWW.MULKATIMAATI.BLOGSPOT.COM

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

आदरणीय तिलक राज जी, आज मै बहुत खुश हूँ, आपके ब्लॉग पर आकर. एक शिकायत है, आपने इसकी इत्तला मुझे पहले क्यूँ नहीं दी :(

सर्वत एम० said...

इतनी शानदार-जानदार गजल के लिए मुबारकबाद न दी जाए तो कमज़र्फ़ी होगी. मतले से लेकर खात्मे तक बहुत ही सलीके से काम लिया गया है. फिर अगर २५ साल पहले की गजल है तो पुरानी शराब वाला मुहावरा सच ही है.
पत्थर तराशने वाला शब्द ही मेरे हिसाब से दुरुस्त है. आपने टंकण-त्रुटि का जो प्रयोग किया है, वही सच है और त्रुटि तो त्रुटि ही होती है. पत्थर की कीमत नहीं होती, तराश के बाद ही उसे नगीना कहा जाता है. तलाश पता नहीं पूरी होगी या नहीं. तलाश के बाद वो नगीना कहलाएगा भी कि नहीं, यह भी संशय में है.
मैं सिर्फ अपना नजरिया बताया है, यह कोई मशविरा नहीं है. मैं अगर यह शेर कहता तो तराशता ही प्रयोग करता. आपको तलाशता बेहतर लग रहा है, अपनी पसंदहै.

दिगम्बर नासवा said...

नमस्कार तिलक राज जी ...
२५ साल पहले किगाल पर आज भी ताज़ा हैं शेर ... ज़माना बिल्कुल बदला नही है इन २५ सालों में ... मतले में समझ आ जाती है पूरी ग़ज़ल की खूबसूरती और हां तलाशना शायद लजवाब बदलाव है ... वैसे सारे शेर कुछ अलग कहानी कहते हुवे हैं .. यथार्थ के करीब ...
आज पत्‍थर तलाशता हूँ, कल
ये गिने जायेंगे नग़ीनों में।

चंद लफ़्ज़ों में बात कहने की,
हमको आदत मिली ज़हीनो में।

होश आने प ये समझ आया,
नाग पाले थे आस्‍तीनों में।

LAJAWAAB ... SUBHAAN ALLA ...

Ankit said...

नमस्कार तिलक जी,
आप की ये ग़ज़ल तो मुझसे भी उम्र में बड़ी है, वीनस की बात को आगे बड़ा रहा हूँ, अगर आप बहर का नाम बता देंगे तो हम सभी का भला हो जायेगा.
मतला लाजवाब है, चुनिन्दा लफ़्ज़ों में मुकम्मल बात कही है.
और ये शेर इसी बात को पुख्ता कर रहा है......
"चंद लफ़्ज़ों में बात कहने की,
हमको आदत मिली ज़हीनो में।"

वन्दना अवस्थी दुबे said...

कपूर साहब, इतनी सुन्दर गज़ल है कि कुछ कहते ही नहीं बनता.
आपका ये सफर ना तै होगा,
बैठ कर कागज़ी सफीनों में।
जैसे आसान लफ़्ज़ों में कितनी महत्वपूर्ण बातें कह डाली हैं आपने. बधाई.हर शेर बहुत खूबसूरत और व्यवस्था पर चोट करता हुआ. बहुत सुन्दर.

pran sharma said...

ACHCHHEE GAZAL KE LIYE AAPKO
HAARDIK BADHAAEE.

मेरी आवाज सुनो said...

गॉंव ग़ुम शहर की ज़मीनों में,
आदमी खो गये मशीनों में।

हर तरफ़ आग़ सी लगी क्‍यूँ है,
देश के सावनी महीनों में।

bahut marmik panktiyaan...!!

देवेन्द्र पाण्डेय said...

वाह!
बेहतरीन गज़ल.
मतला तो गज़ब का है.

मुझे तो तराशना ही अधिक अच्छा लग रहा है. वैसे कवि बहुत भावुक होता है..एक बार तलाशना अच्छा लगा तो लगा..आपकी इच्छा. यदि आपने तलाशना के संबंध में कुछ न लिखा होता तो लोगों को तराशना ही अधिक अच्छा लगता. यह मेरा विचार है..मैं गलत भी हो सकता हूँ.

Pushpendra Singh "Pushp" said...

bahut hi sundar gajal
sare misre umda
आज पत्‍थर तलाशता हूँ, कल
ये गिने जायेंगे नग़ीनों में।
abhar......

Akanksha Yadav said...

बेहतरीन ग़ज़ल...मुबारकवाद.

manu said...

ye hui naa ghazal....

स्वप्न मञ्जूषा said...

Raj sahab,
aapki tareef karna hamare vash ki baat nahi hai..yah main apne email mein bhi kah chuki hun..
aap bahut hi accha likhte hain..aaj fir se kah rahi hun..

Archana Gangwar said...

आज पत्‍थर तलाशता हूँ, कल
ये गिने जायेंगे नग़ीनों में।

bahut khoob....
abhi aapko jyada nahi para .....fursat mein aaker paroongi....aapka blog bahut pasand aaya.....

her patther mein ek morat chupi hoti hai.....
mager sangdil milta hai ek patther ko hi.....

(sangdil....shilpkaar)
patther mera fav..topic hai...
inme bahut kuch chupa hai...

thanks for sharing

kshama said...

गॉंव ग़ुम शहर की ज़मीनों में,
आदमी खो गये मशीनों में।

हर तरफ़ आग़ सी लगी क्‍यूँ है,
देश के सावनी महीनों में।

आपका ये सफर ना तै होगा,
बैठ कर कागज़ी सफीनों में।

आज पत्‍थर तलाशता हूँ, कल
ये गिने जायेंगे नग़ीनों में।
Samajh nahee pa rahee hun,ki, kin sheronko dohraya jay!Bahut khoob!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 27-10 - 2011 को यहाँ भी है

...नयी पुरानी हलचल में आज ...

Yashwant R. B. Mathur said...

चंद लफ़्ज़ों में बात कहने की,
हमको आदत मिली ज़हीनो में।

होश आने प ये समझ आया,
नाग पाले थे आस्‍तीनों में।

गजब की गजल कही है सर!

सादर

Prakash Jain said...

Adbhut.....

www.poeticprakash.com