Saturday, February 27, 2010

होली की शुभकामनायें

एक विशेष आग्रह आया बिटिया की ओर से कि सूखी होली की बात हो ऐसा कम से कम एक शेर भेज दें। गंभीर समस्‍या। मुझे याद आ गयी भक्‍त कुंभनदास की।
बताते हैं कि भक्‍त कुंभनदास सदैव गिरधर भक्ति में लीन रहते थे और इसमें व्‍यवधान उन्‍हें पसंद नहीं था। 

बादशाह अकबर ने जब इनके भक्तिगान की प्रशंसा सुनी तो बेताब हो गये सुनने को। राजाज्ञा जारी हो गयी कि भक्‍त कुंभनदास दरबार में उपस्थित होकर गायन प्रस्‍तुत करें। भक्‍त कुंभनदास ने मना कर दिया। अंतत: राजहठ की स्थिति पैदा हो गयी तो लोकहित में स्‍वीकार कर लिया दरबार में आने को लेकिन यह शर्त रखी कि राजा की भेजी सवारी में न आकर पैदल ही आयेंगे।
पैदल ही पहुँचे और जब गायन का निर्देश हुआ तो कहा कि भजन तो मन से होता है किसी के कहने से नहीं। अंतत: बीरबल की चतुराई ने मना तो लिया लेकिन बात मन की ही निकली:
भगत को सीकरी सौं का काम।
आवत जात पनहिया टूटी बिसरि गयो हरि नाम।
जाको मुख देखे दुख उपजत ताको करनो परत सलाम।
कुम्भनदास लाला गिरिधर बिन यह सब झूठो धाम।
(कहा जाता है कि बादशाह अकबर का चेहरा सुंदर नहीं था।)
मेरे साथ ऐसा स्थिति साम्‍य तो नहीं। मैं तो भक्‍त कुंभनदास के चरणरज भी पा लूँ तो स्‍वयं को धन्‍य समझूँ। अशआर तो खुद-ब-खुद निकलते हैं, निकालो तो कुछ बन जरूर जाता है लेकिन वो ग़ज़ल के पैमाने पर खरे उतरें ये जरूरी नहीं। यहॉं बात राजहठ की ना होकर पुत्री के निवेदन की थी और वो भी व्‍यापक संदर्भ में, सो कोशिश की और जो परिणाम रहा वह प्रस्‍तुत है। अर्सा पहले पढ़ा एक मिसरा याद आ गया जो इसमें मददगार रहा है। मिसरा था 'मिले क्‍यूँ ना गले फिर शम्‍भू औ सत्‍तार होली में।'
किसका कहा हुआ मिसरा है, मुझे याद नहीं, हॉं मददगार रहा सो हृदय से आभारी हूँ यह संकटमोचक मिसरा कहने वाले का। यही स्थिति उपयोग किये गये चित्र की है जो मेल में प्राप्‍त हुआ था। इसके भी मूल रचयिता का हृदय से आभारी हूँ।
दिलों के बीच ना बाकी बचे दीवार, होली में
उठे सबके दिलों से एक ही झंकार, होली में।
जरा तो सोचिये पानी की किल्‍लत हो गयी कितनी
ना गीले रंग की अब कीजिये बौछार, होली में।
गुलालों से भरी थाली लिये हम राह तकते हैं
निकलता ही नहीं दिखता कोई इस बार होली में।
अजब ये शार्ट मैसेज का लगा है रोग दुनिया को
कोई खत ही नहीं आता है अब त्‍यौहार होली में।
चलो बस एक दिन को भूल जायें दर्द के नग़्मे
खुशी के गीत गायें और बॉंटें प्‍यार होली में।
समझ में कुछ नहीं आता कि इसका क्‍या करे कोई
बजट लेकर नया ईक आ गयी सरकार होली में।
बहुत बेचैन है राही कोई खुशबू नहीं आती
बहुत बेरंग लगता है भरा गुलज़ार होली में।
तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

Monday, February 22, 2010

गॉंव ग़ुम शहर की ज़मीनों में

यह ग़ज़ल मूलत: करीब 25 वर्ष पहले कही थी। वक्‍त के साथ भूल ही चुका था। ब्‍लॉग जगत की वज़ह से फिर याद ताज़ा हुई और मत्‍ले का शेर और उसके बाद के दो शेर ही याद के ज़खीरे से निकल पाये। बाकी अशआर नये सिरे से कहने की कोशिश की है। लगता है जो अशआर याद ना रहे वो प्रस्‍तुति लायक ना रहे होंगे इसलिये उपर वाले ने ही खारिज कर दिये और उनकी जगह नये अशआर दे दिये।

एक करिश्‍मा है जो मैं आप सबसे निश्चित तौर पर बॉंटना चाहता हूँ।
'आज पत्‍थर... ' वाला शेर जब मैनें सोचा तो मैनें 'तराशता' कहा था जो टाईप करते समय 'तलाशता' टाईप हो गया। बाद में एक मित्र के ध्‍यान दिलाने पर मैं सोचता रह गया कि ऐसा क्‍यूँ हुआ। तराशता ही मैं कहना चाहता था मगर इस टंकण त्रुटि ने एक जादू कर दिया है। फिर सोचा तो लगा कि अब मैं तलाशता को ईश्‍वर का करिश्‍मा मानने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। एक अच्‍छा नगीना तराशने के लिये एक अच्‍छा पत्‍थर होना जरूरी है। तो अब बात एक कदम और पीछे की हो गयी कि मैं कुछ पत्‍थर तलाश रहा हूँ जो कल नग़ीनों के रूप में पहचान बनायेंगे। तराशना तो दोनों ही हालत में है। तलाश वाले मामले में अच्‍छे पत्‍थर तलाश कर तराशने में औरों की मदद भी ली जा सकती है। इसको अगर ऐसे लें कि मेरी कोशिश अच्‍छे पत्‍थरों को अच्‍छे नगीनों में बदलने की प्रक्रिया में अपनी भूमिका निबाहने की है तो तलाशना ही ठीक है। मुझे लगता है कि यह टंकण-त्रुटि मुझसे करवाई गयी है तो इसका सम्‍मान करना चाहिये। लेकिन यह बात भी तय है कि तराशना सीधे-सीधे समझ में आने वाली बात है।

गॉंव ग़ुम शहर की ज़मीनों में,
आदमी खो गये मशीनों में।

हर तरफ़ आग़ सी लगी क्‍यूँ है,
देश के सावनी महीनों में।

आपका ये सफर ना तै होगा,
बैठ कर कागज़ी सफीनों में।

आज पत्‍थर तलाशता हूँ, कल
ये गिने जायेंगे नग़ीनों में।

चंद लफ़्ज़ों में बात कहने की,
हमको आदत मिली ज़हीनो में।

होश आने प ये समझ आया,
नाग पाले थे आस्‍तीनों में।

दर्द 'राही' ने जी लिये तन्‍हा,
कब ये चर्चा हुआ मकीनों में।

तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

Sunday, February 14, 2010

एक रुक्‍न के मिसरे में ग़ज़ल

एक रुक्‍न के मिसरे में ग़ज़ल कहने का प्रयास मैं शायद कभी नहीं करता यदि गौतम राज ऋषि के ब्‍लॉग पर छोटी बह्र के रूप में वीनस ‘केसरी’ की एक रुक्‍न के मिसरे वाली ग़ज़ल का संदर्भ न मिलता।


जब मैने ग़ज़ल कहना आरंभ किया था तब विद्वजनों ने बताया था कि पूर्ण ग़ज़ल में कम से कम सात शेर, (मतला और मक्‍ता सहित) आवश्‍यक होता है। कोशिश रहती है कि इस नियम का पालन कर सकूँ।
रचनाकार का धर्म तो अभिव्‍यक्ति के साथ पूरा हो जाता है। गुणीजन तो वो हैं जो मर्म तक पहुँच जाते हैं।
इस ग़ज़ल के मक्‍ते और उससे पहले के शेर पर हो सकता है आपत्ति आये लेकिन प्रयोगवादी ग़ज़लों विशेषकर मुज़ाहिफ शक्‍लों पर आमतौर से इतनी बारीकी से विवेचना नहीं होती है, इसलिये प्रयोग का साहस किया है।

छोटी बह्र की ग़ज़ल

चहरे देखे
पहरे देखे।


घाव, बहुत ही
गहरे देखे।


कानों वाले
बहरे देखे।


सारे वादे
ठहरे देखे।


हर सू झंडे
फहरे देखे।


मानक अक्‍सर
दुहरे देखे।


’राही’ ख्‍वाब
सुनहरे देखे।
 
तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी