Sunday, January 31, 2010

गणतंत्र दिवस विशेष

एक और माह बीत गया। जनवरी माह संपूर्ण भारतवर्ष में मकर संक्रॉंति और गणतंत्र दिवस से जोड़कर जाना जाता है लेकिन इस माह में दो और महत्‍वपूर्ण दिवस होते हैं जो धीरे-धीरे जनमानस (विशेषकर नई पीढ़ी) के मानस-पटल पर धुँधले पड़ते जा रहे हैं। यह शायद अब याद दिलाने का विषय होता जा रहा है कि इसी माह में स्‍वर्गीय लाल बहादुर शास्‍त्री का निर्वाण दिवस (11 जनवरी) और महात्‍मा गॉंधी का निर्वाण दिवस (30 जनवरी) भी पड़ते हैं। दोनों विभूतियों में एक महत्‍वपूर्ण सम्‍बन्‍ध जन्‍मदिवस (2 अक्‍टूबर) का भी है। यह अविवादित है कि महात्‍मा गॉंधी सामान्‍य मनुष्‍य नहीं थे और यह उनका ही दिव्‍य-प्रकाश था कि 11 वर्ष की उम्र में उनका एक भाषण सुनकर शास्‍त्री जी कुछ ऐसे प्रभावित हुए कि ताउम्र देश-सेवा को समर्पित रहे। 11 वर्ष की उम्र में लिया हुआ निर्णय बाल-मन का न होकर एक परिपक्‍व सोच थी जिसे 51वर्ष तक जीवनपर्यन्‍त निबाहना स्‍वर्गीय शास्‍त्री जी की प्रतिबद्धता का  उदाहरण है।

यह सोचने का विषय है कि आज जब हम गणतंत्र दिवस मनाते हैं तो इस गणतंत्र में इन विभूतियों के चरित्र को कहॉं पाते हैं। गणतंत्र का प्रश्‍न स्‍वतंत्रता से जुड़ा हुआ है। गॉंधी का स्‍वतंत्रता संग्राम और उसकी परिणति हमारे गणतंत्र का स्‍वरूप आज की इस पोस्‍ट का विषय हैं।

पिछली पोस्‍ट पर प्राप्‍त हुई टिप्‍पणियों पर व्‍यक्गित उत्‍तर तो नहीं दे सका लेकिन इस पोस्‍ट के माध्‍यम से टिप्‍पणियों को सादर शिरोधार्य करते हुए व्‍यक्तिगत आभार व्‍यक्‍त कर रहा हूँ, कृपया स्‍वीकार करें।

मध्‍यप्रदेश के रतलाम जिले की बॉछड़ा जनजाति को एक प्रतीकस्‍वरूप लेकर लगभग 25 वर्ष पहले एक गीत लिखा था जिसके मात्र दो ही छन्‍द स्‍मरण में बचे हैं और प्रथम प्रस्‍तुति है इस पोस्‍ट की। विवादित विषय होने के कारण अधिक न कहते हुए गीत प्रस्‍तुत है:

बॉंछड़ा जाति,
तन का सौदा,
और ये उँचे बोल,
नेता पीट रहे है ढोल, आजादी आ गयी।
आजादी आ गयी, आजादी आ गयी।

नग्‍न नाच वो देख रहे हैं, कस्‍में वादे बेच रहे हैं।
आज द्रौपदी का ऑंचल खुद, कृष्‍ण कन्‍हैया खेंच रहे हैं।।
रक्षक, भक्षक बन बैठे हैं, रात ये कैसी छा गयी।
आजादी आ गयी, आजादी आ गयी।

जहॉं दिखी कोई अक्षत बाला, इनके हृदय में भड़के ज्‍वाला।
मीठी बातों में फुसलाकर, ये करते अपना मुँह काला।।
खिल भी न पायी कली कई और उन्‍हें उदासी खा गयी।
आजादी आ गयी, आजादी आ गयी।

वर्ष 1983 से 1985 की अवधि में कही एक ग़ज़ल प्रस्‍तुत कर रहा हूँ जो गणतंत्र के आधार नागरिक की न्‍यूनतम अपेक्षाओं से जुड़े हैं:

आप अपने हक़ पे दस्‍तक दीजिये,
और ये दस्‍तक अचानक दीजिये।


दो समय रोटी हमें मिल जाये तो,
उनको छप्‍पन भोग बेशक दीजिये।


रेशमी कपड़े मुबारक हों उन्‍हें,
पर हमारा भी बदन ढक दीजिये।


छत हो सबके सर पे तो बेशक उन्‍हें
खुशनुमा महलों की रौनक दीजिये।



नाव ये भटकी सी है मझधार में,
एक नाविक इसको पावक दीजिये।


तंत्र में गण की जगह समझा करें
राष्‍ट्र को ऐसे भी नायक दीजिये।


राह पर गॉंधी की जो 'राही' बनें
ऐ खुदा कुछ ऐसे पाठक दीजिये।

सुधिजनों की टिप्‍पणियों की प्रतीक्षा रहेगी।