Friday, April 29, 2011

ग़ज़ल: फिर से बूढ़ी बातियों में तेल डाला

एक लंबे अंतराल के बाद आज फिर उपस्थिति हूँ एक नई गैर-मुरद्दफ़ ग़ज़ल के साथ। इस अंतराल में यूँ तो बहुत सी ग़ज़ल हुईं लेकिन तसल्‍ली एक से न थी, ब्‍लॉग पर लगाने लायक नहीं लगीं। लंबे समय बाद कुछ ऐसा हुआ कि आपसे साझा करने लायक लगा और प्रस्‍तुत है आप सबके समीक्षार्थ:

थक गये जब नौजवॉं, ये हल निकाला
फिर से बूढ़ी बातियों में तेल डाला।

जब से बूढ़ी बातियों में तेल डाला
हर तरफ़ दिखने लगा सबको उजाला।

जो परिंदे थे नये, टपके वही बस
इस तरह बाज़ार को उसने उछाला।

दूर तक अपना नज़र कोई न आया
याद पर हमने बहुत ही ज़ोर डाला।

देर मेरी ओर से भी हो गयी, पर
आपने भी ये विषय हरचन्‍द टाला।

दिल अगर चाहे, किसी भी राह में फिर
पॉंव को कॉंटे नहीं दिखते न छाला।

जब उसे कॉंधा दिया दिल सोचता था
साथ कितना था सफ़र, क्‍यूँ बैर पाला।

भूख क्‍या होती है जबसे देख ली है
अब हलक में जा अटकता है निवाला।

एकलव्‍यों की कमी देखी नहीं पर
देश में दिखती नहीं इक द्रोणशाला।

तोड़कर दिल जो गया वो पूछता है
दिल हमारे बाद में कैसे संभाला।

जि़ंदगी तेरा मज़ा देखा अलग है
इक नशा दे जब खुशी औ दर्द हाला।

त्‍याग कर बीता हुआ इतिहास इसने
हरितिमा का आज ओढ़ा है दुशाला।

बस उसी 'राही' को मंजि़ल मिल सकी है
राह के अनुरूप जिसने खुद को ढाला।

तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

43 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

वाह ..बहुत खूबसूरत गज़ल ..


जब उसे कॉंधा दिया दिल सोचता था
साथ कितना था सफ़र, क्‍यूँ बैर पाला।

यही तो नहीं समझ आता ...ज़रा सी ज़िंदगी में दोस्ती से ज्यादा लोग दुश्मनी निबाहते हैं

इस्मत ज़ैदी said...

जब उसे कॉंधा दिया दिल सोचता था
साथ कितना था सफ़र, क्‍यूँ बैर पाला।

भूख क्‍या होती है जबसे देख ली है
अब हलक में जा अटकता है निवाला।

बहुत ख़ूब !बहुत उम्दा!

वीनस केसरी said...

तिलक जी नमस्ते,

बहुत दिन के बाद सुधि ,ली आपने पाठकों की

भूख क्‍या होती है जबसे देख ली है
अब हलक में जा अटकता है निवाला।

एकलव्‍यों की कमी देखी नहीं पर
देश में दिखती नहीं इक द्रोणशाला।

ये शेर खास पसंद आये

Udan Tashtari said...

एकलव्‍यों की कमी देखी नहीं पर
देश में दिखती नहीं इक द्रोणशाला।


-बहुत उम्दा!! वाह!!

sudhir saxena 'sudhi' said...

थक गये जब नौजवॉं, ये हल निकाला
फिर से बूढ़ी बातियों में तेल डाला।
दिल अगर चाहे, किसी भी राह में फिर
पॉंव को कॉंटे नहीं दिखते न छाला।
बस उसी 'राही' को मंजि़ल मिल सकी है
राह के अनुरूप जिसने खुद को ढाला।
आपकी ग़ज़ल अनुभव की आंच है और एक ख़ास तरह की रसज्ञता से भरपूर है. आपको बधाई!
-सुधीर सक्सेना 'सुधि'

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

देर मेरी ओर से भी हो गयी, पर
आपने भी ये विषय हरचन्‍द टाला।
तिलकराज जी, ये बहुत अच्छा शेर लगा

जब उसे कॉंधा दिया दिल सोचता था
साथ कितना था सफ़र, क्‍यूँ बैर पाला।
फिर भी इंसान ऐसा करता है, कमाल है

तोड़कर दिल जो गया वो पूछता है
दिल हमारे बाद में कैसे संभाला।

बहुत अच्छी ग़ज़ल है...मुबारकबाद.

Rajeev Bharol said...

तिलक जी, बहुत ही बढ़िया गज़ल है हमेशा की तरह. बस गज़ल ज़रा देर से आई.
सभी अशआर बढ़िया हैं:.. मतले तो दोनों गज़ब हैं.

ये खास तौर पर पसंद आये:

देर मेरी ओर से भी हो गयी, पर
आपने भी ये विषय हरचन्‍द टाला।

जब उसे कॉंधा दिया दिल सोचता था
साथ कितना था सफ़र, क्‍यूँ बैर पाला।

भूख क्‍या होती है जबसे देख ली है
अब हलक में जा अटकता है निवाला।

सहज साहित्य said...

बहुत सुन्दर कहा आपने कपूर साहब !

शारदा अरोरा said...

एकलव्‍यों की कमी देखी नहीं पर
देश में दिखती नहीं इक द्रोणशाला।
vaah vaah

Pawan Kumar said...

कपूर साहब
थक गये जब नौजवॉं, ये हल निकाला
फिर से बूढ़ी बातियों में तेल डाला।
अच्छा तंज़ कसा है..... आज के नौजवानों पर... वाह वाह. इस शेर का जैसे नया विस्तार दिया हो आपने अगले शेर में......
जब से बूढ़ी बातियों में तेल डाला
हर तरफ़ दिखने लगा सबको उजाला।
बहुत शानदार....!!!!!!!

दिल अगर चाहे, किसी भी राह में फिर
पॉंव को कॉंटे नहीं दिखते न छाला।
हम जैसों के लिए तो आपके शेर लिखने-पढने की नयी राह दिखाते हैं....!!!
जब उसे कॉंधा दिया दिल सोचता था
साथ कितना था सफ़र, क्‍यूँ बैर पाला।
यह शेर भी कमाल का है.... !!!!!!
एकलव्‍यों की कमी देखी नहीं पर
देश में दिखती नहीं इक द्रोणशाला।

Sanjay Grover said...

अच्छी ग़ज़ल है। हासिले-ग़ज़ल वही शेर लगा जहां से शुरुआत हुई है:

थक गये जब नौजवॉं, ये हल निकाला
फिर से बूढ़ी बातियों में तेल डाला।

और इस शेर की ईमानदारी अच्छी लगी:

देर मेरी ओर से भी हो गयी, पर
आपने भी ये विषय हरचन्‍द टाला।

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

१७ दिसंबर २०१० के बाद आप को याद तो आई अपने पाठकों की| आप तो जैसे ब्लॉग के पाठकों को भूल ही गये थे|

तकरीबन 'एकांकी प्रहसन' का दृश्य उपस्थित करती तथा मुसलसल ग़ज़ल की बेहतरीन नज़ीर पेश करती उम्दा ग़ज़ल पेश करने के लिए मुबारकबाद क़ुबूल करें तिलक भाई साब|

'ग़ज़ल / छन्द / कविता' फिर से बातचीत का ज़रिया बनने लगे हैं| बधाई हर साहित्यिक प्रेमी को|

रंजना said...

दिल अगर चाहे, किसी भी राह में फिर
पॉंव को कॉंटे नहीं दिखते न छाला।

जब उसे कॉंधा दिया दिल सोचता था
साथ कितना था सफ़र, क्‍यूँ बैर पाला।

ऐसे मोती मनके बिखेरे हैं आपने कि समझ नहीं पद रहा किसे चुनुं किसे छोड़ दूं....

सभी के सभी शेर लाजवाब,बेहतरीन...

बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल...

दिगम्बर नासवा said...

तिलक जी ... आपको तो जल्दी जल्दी पोस्ट लगानी चाहिए ... हम जैसे लोगों को सीखना जो होता है ...
नये भाव ... नयी सोच और नयी पीडी को उलाहना देते हुवे कुछ लाजवाब शेरों का गुलदस्ता है आपकी ग़ज़ल ...

pran sharma said...

Is baar aapne hum sabko apnee
gazal padhwaane kaa bahut intezar
karwaayaa hai. Chaliye , intezar
ne rang dikhaayaa hai . Ek badhiya
gazal padhne ko milee hai . Sabhee
ashaar mun ko sparsh karte hain.

Bas usee rahi ko manzil mil gayee
Raah ke anuroop jisne khud ko dhala

pran sharma said...

Aapka maqta yun hain -

Bas usee rahi ko manzil mil sakee hai
Raah ke anuroop jisne khud ko dhaala

Bhool ke liye khshmaprarthee
hoon .

सुनील गज्जाणी said...

आदरणीय तिलक साब
प्रणाम !

जब उसे कॉंधा दिया दिल सोचता था
साथ कितना था सफ़र, क्‍यूँ बैर पाला।

भूख क्‍या होती है जबसे देख ली है
अब हलक में जा अटकता है निवाला।

बहुत ख़ूब !बहुत उम्दा!
saadar

मेरे भाव said...

बहुत खूबसूरत गज़ल .

"अर्श" said...

जब उसे कॉंधा दिया दिल सोचता था
साथ कितना था सफ़र, क्‍यूँ बैर पाला।

अंदाज़ खुबसूरत है आपका ... ये शे'र खासा पसंद आया ! मतला खुद में कामयाब है !ढेरो बधाई

अर्श

Rajeysha said...

is gazal ka intzaar tha kapoor sir...

नीरज गोस्वामी said...

भूख क्‍या होती है जबसे देख ली है
अब हलक में जा अटकता है निवाला।
क्या कहूँ ? जिस तरह आप अशआरों में जान डाल देते हैं उसे देख आपकी लेखनी पर रश्क होता है...गज़ब की ग़ज़ल कही है आपने...आपकी ग़ज़लें मेरे लिए सदा प्रेरणा की स्त्रोत रही हैं और रहेंगी...
नीरज

rekhamaitra said...

qamaal ka likhte hain to itne din chuppee kyon saadhee? ek -ek ashaar ek- ek motee kee maanind lafzon kee soorat me chhitak gaya hai !

राजेश उत्‍साही said...

पहला शेर ही सारी बात कह देता है। बधाई।

अरुण चन्द्र रॉय said...

आपको पढना अच्छा लगता है... काफी दिनों बाद पढने का अवसर मिला... ग़ज़ल लिखता नहीं लेकिन आपकी ग़ज़लों से इसे पढने और समझने की प्रेरणा मिलती है... जिंदगी के विभिन्न आयामों को समेटे इस ग़ज़ल का हर शेर अदभुद है.. जो मेरे दिल के सबसे करीब लगा वह है.
"एकलव्‍यों की कमी देखी नहीं पर
देश में दिखती नहीं इक द्रोणशाला।"

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बाप रे इतने उम्दा 13 शेर
मैं होता तो पहले को लेकर एक ...और दूसरे शेर को लेकर दूसरी गज़ल बना देता। दो गज़लें होतीं तो पाठक एक-एक शेर ध्यान से पढ़ता।
..बधाई स्वीकार करें।

सौरभ शेखर said...

Kapoor sahab namaskar,
Ghazal behad relevant hai.Matle ne to rang jama diya.

Faqeer said...

BAHUT SUBDAR GAZALA HAI.
BHWANA, ANUBHAV AUR SHILP KA BADHIYA SNAGAM HAI.
LIKHTE RAHIYE.

भूख क्‍या होती है जबसे देख ली है
अब हलक में जा अटकता है निवाला।
IS A CLASSICA SHER!
(DO YOU NEED 'AB' IN THE SECOND LINE? DOES NOT FIT WITH 'JAB SE' - WAZAN KE BAARE MEIN MUJHE NAHIN MAALOOM - I MEAN THE METER.

EK SHER MERA:
SAMJHA HAIN MAINE JABSE ZINDAGI KO
TZUBAN PAR JAISE LAG GAYA HAI TAALA

kavita verma said...

दूर तक अपना नज़र कोई न आया
याद पर हमने बहुत ही ज़ोर डाला।

जब उसे कॉंधा दिया दिल सोचता था
साथ कितना था सफ़र, क्‍यूँ बैर पाला।
bahut khoobsurat andaz...

Rajiv said...

"बस उसी 'राही' को मंजि़ल मिल सकी है
राह के अनुरूप जिसने खुद को ढाला।"
आदरणीय कपूर साहब,सादर प्रणाम.आप जैसे गजलकारों की गजल पर टिप्पणी हम जैसेबच्चों के बस की बात नहीं.हम तो बस आनंद लेते है. गजल का आखिरी शेर sabkuch kah गया.पहला शेर युवाओं को जगने के लिए काफी है.

प्रकाश टाटा आनन्द said...

कपूर साहिब, प्रणाम,
मैं आपके लिये क्या कहूँ, बस मन मोह लिया।

"बस उसी 'राही' को मंजि़ल मिल सकी है
राह के अनुरूप जिसने खुद को ढाला।"

मै तो इतना ही कहूँगी...
जिन्दगी क्या बताऊँ मैं, इक गूँगे का ख्वाब हो जैसे।
या किसी सूदखोर बनिये का उलझा उलझा हिसाब हो जैसे ॥
कुछ ऐसा ही आभास दिलाती है आपकी ये कालजयी रचना.
प्रकाश टाटा आनन्द

डॉ. जेन्नी शबनम said...

हर शेर बहुत बढ़िया, सामयिक और सारगर्भित. सौ टके की बात...
बस उसी 'राही' को मंजि़ल मिल सकी है
राह के अनुरूप जिसने खुद को ढाला।
दाद स्वीकारें तिलक राज जी|

मुकेश कुमार सिन्हा said...

khubsurat gajal:)

निर्मला कपिला said...

थक गये जब नौजवॉं, ये हल निकाला
फिर से बूढ़ी बातियों में तेल डाला।

जब से बूढ़ी बातियों में तेल डाला
हर तरफ़ दिखने लगा सबको उजाला।
सब को प्रेरणा देते हुये शेर। ये बत्तियाँ न जलें तो आने वाली पीढियों को राह कौन दिखायेगा।
एकलव्‍यों की कमी देखी नहीं पर
देश में दिखती नहीं इक द्रोणशाला।
ये शेर तो आज का सच है। पता नही क्यों लोग अपना ग्यान किसी को बाँटने की बाजाये साथ ही ले जाते हैं। हर एक शेर लाजवाब। देर से ही सही बहुत अच्छी गज़ल है। शुभकामनयें।

Ankit said...

नमस्कार तिलक जी,
आपका मतला बहुत चोट पहुंचा रहा है........मगर शेर अच्छा है, क्योंकि कुछ हकीकत भी है. हुस्न-ए-मतला, से थोडा राहत मिली.

ये दोनों शेर बेहद पसंद आये..........
दूर तक अपना नज़र कोई न आया
याद पर हमने बहुत ही ज़ोर डाला।

भूख क्‍या होती है जबसे देख ली है
अब हलक में जा अटकता है निवाला।

संजय भास्‍कर said...

तोड़कर दिल जो गया वो पूछता है
दिल हमारे बाद में कैसे संभाला।

बहुत अच्छी ग़ज़ल है...मुबारकबाद.

संजय भास्‍कर said...

बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल...

डॉ० डंडा लखनवी said...

श्री तिलकराज कपूर जी!
हर शेर लाजवाब है! दिल में सीधे उतर जाने वाली गजल की प्रस्तुति...सादुवाद!
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व्यंग्य उस पर्दे को हटाता है जिसके पीछे भ्रष्टाचार आराम फरमा रहा होता है।
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

Devi Nangrani said...

भूख क्‍या होती है जबसे देख ली है
अब हलक में जा अटकता है निवाला।

Waahhhhhhhhhhhhhhhhhhh!!
Daad ke liye itna kah sakti hoon ki meri alfaaz ka diwaala nikala hai

देवमणि पांडेय Devmani Pandey said...

तिलकराज जी, एक महीने गाँव (सुलतानपुर) में था इस लिए इतनी बढ़िया ग़ज़ल तक पहुँचने में एक महीना लग गया। सारे अशआर अच्छे लगे मगर-
काम का इक शेर हमने भी निकाला...

तोड़कर दिल जो गया वो पूछता है
दिल हमारे बाद में कैसे संभाला।

अनुपमा पाठक said...

जब उसे कॉंधा दिया दिल सोचता था
साथ कितना था सफ़र, क्‍यूँ बैर पाला।
अनमोल चिंतन!

बेहद सुंदर प्रस्तुति!

Satish Saxena said...

गज़ब की रचना ....
एक एक शेर दिल में गहराई तक असर करता है ! हार्दिक शुभकामनायें आपको भाई जी !

vijay kumar sappatti said...

पूरी गज़ल दिल में बस गयी है तिलक जी .. वाह क्या खूब लिखा है ..

तोड़कर दिल जो गया वो पूछता है
दिल हमारे बाद में कैसे संभाला।

सर जी , सलाम कबुल करे. दिल से..

आभार
विजय
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कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html

jogeshwar garg said...

शानदार ग़ज़ल ! सारे शेर एक से बढ़कर एक, किसे चुनें और किसे छोडें !! बधाई !!!